मानसिक दासता से मुक्ति का समय
सुभाष चन्द्र नौटियाल
पूर्व राष्ट्रपति तथा प्रसिद्ध शिक्षाविद् डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था ‘‘स्वयं में मानवता का भाव विकसित करने तथा अनुशासन को जीवन में शामिल करने के बाद ही हम आजादी के सही अर्थ को समझ सकते हैं।’’ जीवन में मानवता का भाव, अनुशासन, स्वावलम्बी सोच तथा आत्मनिर्भरता से ही सम्भव है। किसी भी राष्ट्र के नागरिकों में मानवता का भाव तथा अनुशासन कितना होगा इसका निर्धारण सदैव इस बात से होता है कि, क्या राष्ट्र के नागरिक मानसिक दासता से मुक्त हैं? भारतीय आजादी के इतिहास में यदि आप देखेगें तो पायेगें कि उस समय हर देशवासी का सपना विदेशी हुकूमत के शोषण, अन्याय, मनमानी तथा मानसिक दासता से मुक्त होकर स्वतंत्र, स्वावलम्बी तथा जीवन में भारत, भारती व भारतीय मूल्यों की पुर्नस्थापना था। आज जब हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं यानि कि, हमारी दासता से मुक्ति के 75 साल पूरे हो चुके हैं तो पुनः वही सवाल हमारे सम्मुख है क्या इन 75 सालों में हम मानसिक दासता से मुक्त हो पाये हैं? क्या इन 75 सालों में हम अपना जीवन भारतीय मूल्यों के अनुरूप कर पाये हैं? यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता कि, एक ओर हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं तथा दूसरी ओर मानसिक दासता से मुक्ति पाने के लिए आज भी राह ढ़ूढ़ रहे हैं। वास्तव में मानसिक दासता से मुक्ति ही हमें जीवन में वास्तविक स्वतंत्रता दिला सकती है परन्तु इन 75 सालों में हम मानसिक दासता में धंसते चले गये तथा जीवन की वास्तविक स्वतंत्रता से कोशों दूर होते चले गये। देश में अभी ऐसी स्वतंत्रता शायद दूर की कौड़ी है। हिन्दी भूषण शिवपूजन सहाय ने लिखा है- ‘‘राष्ट्र की जनता राष्ट्र की आत्मा होती है और राष्ट्र भाषा ही राष्ट्र की वाणी है तथा राष्ट्र की भाषा ही राष्ट्र की संस्कृति की रीढ़ है।’’ विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दम्भ भरने वाला राष्ट्र भारत क्या अपनी रीढ़ को सुदृढ़ कर पाया है? 75 साल बाद भी हिन्दी राष्ट्रभाषा क्यों नहीं बन पायी? देश में आर्थिक असमानता साल-दर-साल क्यों बढ़ती चली गयी? एक ओर भारत का एक वर्ग अमेरिका के धन कुबेरों की बराबरी के लिए लालायित हो रहा है तो दूसरी ओर एक वर्ग ऐसा भी है जो आज भी दोजून की रोटी के लिए तरस रहा है। क्या यही हमारी स्वतंत्रता के मायने हैं? देश कर्ज के जाल में क्यों फंसता जा रहा है? देश में प्राकृतिक संसाधनों का आज भी असमान वितरण क्यों है? 75 साल बाद भी देश में जाति आधारित आरक्षण व्यवस्था का औचित्य क्या है? देश आज भी वी.आइ्र.पी. संस्कृति को ढोने के लिए क्यों मजबूर है? 75 साल बाद भी देश में पूर्णरूप से समता, समानता तथा सामाजिक सहिष्णुता का भाव स्थापित क्यों नहीं हो पाया है? देश आज भी धर्म, जाति, क्षेत्रीयता तथा भाषायी आधार पर क्यों बंटा हुआ? क्या देश में राजनीति आज भी जाति तथा धर्म के आधार पर नहीं होती है? क्या राजनीतिक लड़ाई को येन-केन-प्रकारेण जीतने के लिये देश में आज भी धार्मिक विद्वेष नहीं फैलाया जाता है? ये कुछ सवाल हैं जो कि, हमारी स्वतंत्रता पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं, बिना इन सवालों का उत्तर ढ़ूढ़े हमारी स्वतंत्रता अधूरी है। देश के नेतृत्व के लिए लालायित नेताओं ने वास्तविकतों से ध्यान हटाकर इन प्रश्नों के स्याह पक्ष पर हमेशा पर्दा डालने की कोशिश की है। देश के नागरिकों में स्वनुशासन तथा मानवीय संवेदनाओं का भाव तभी जाग्रत हो सकता है जब देश का नेतृत्व स्वयं स्वनुशासित तथा मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण हो। मानसिक दासता में जकड़े इस देश में स्वाधीनता तथा स्वाभिमान के तब कोई मायने नहीं हैं जब तक देश के नागरिक मानसिक गुलामी से मुक्त नहीं हो जाते हैं। देश के नागरिकों में स्व-अनुशासन तथा स्वावलम्बन का भाव तभी जाग्रत हो सकता है जब वे मानसिक दासता से मुक्त हों।
इस वर्ष जब देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है तो यह विचारणीय प्रश्न है कि, वास्तविक स्वतंत्रता के आनन्द लेने के लिए देश का नागरिक आखिर कब मानसिक गुलामी के बन्धन से मुक्त हो पायेगा?
आओ! इस पुण्य पावन समय पर मानसिक दासता से मुक्ति का संकल्प लेकर जीवन में मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण होकर स्व-अनुशासन, स्वावलम्बन तथा आत्मनिर्भर सशक्त भारत बनाने के लिए अपने कदम बढ़ाते हैं।
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