यथार्थवाद के प्रतिरूप हैं भगवान श्रीकृष्ण
-सुभाष चन्द्र नौटियाल
त्रेतायुग में जन्मे भगवान श्रीराम को मर्यादा पुरूषोत्तम कहा जाता है क्योंकि भगवान श्री राम ने मानव जीवन में रह कर स्वयं सभी मर्यादाओं का पालन किया। प्रभु श्रीराम ने जीवन में आदर्शवाद पर जोर दिया। प्रभु श्रीराम ने अयोध्या में आदर्श समाज की स्थापना की जिसे की वर्तमान में रामराज के रूप में जाना जाता है। माना जाता है कि त्रेतायुग में जन्म लेने वाले प्रभु श्रीराम 12 कलाओं में प्रवीण थे। त्रेतायुग से द्वापर युग आते-आते समय की मांग भी बदल चुकी थी। द्वापर युग में जन्मे भगवान श्रीकृष्ण यथार्थवाद के प्रतिरूप बने तथा उन्होंने अपने जीवन में व्यक्तियों को यथार्थ रहने के लिए प्रेरित किया। जीवन को वास्तविक स्वरूप में स्वीकार करते हुए उसे बेहतर बनाने के लिए निरन्तर प्रयत्नशीलता ही वास्तव में यथार्थवाद की सही परिभाषा हो सकती है। यही कर्मवाद है, मानव को जीवन का बेहतर बनाने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहना चाहिए। यही प्रभु श्रीकृष्ण का संदेश है। भगवान श्रीकृष्ण ने जेल में जन्म लिया तथा मानव जीवन में सभी प्रकार की लौकिक-आलौकिक क्रियाओं द्वारा मानव जीवन को धन्य किया। भगवान श्रीकृष्ण का यथार्थवादी स्वरूप श्रीमदभगवद्गीता में स्पष्ट देखा जा सकता है। यु़द्ध भूमि में अर्जुन द्वारा दिया गया ज्ञान आज किस प्रकार मानव उपयोगी हो रहा हैं इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि धार्मिक पुस्तकों में श्रीमदभगवद्गीता का सबसे अधिक विस्तार हुआ है। भगवान श्रीकृष्ण 16 कलाओं में प्रवीण माने जाते हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यथार्थवादी रहकर जीवनयापन का संदेश दिया। व्यक्ति को सदैव देश, काल और परिस्थिति के अनुरूप ही अपना व्यवहार रखना चाहिए। यही मानव जीवन के लिए उचित है। वास्तव में यही गीता का संदेश है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को युद्ध भूमि में केवल युद्धनीति का पालन करने का उपदेश देते हैं-कुतस्त्वा कश्मलमिंद विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ।। श्रीमद्भागवत्।।2।।2।।
(हे अजुर्न! तुझे इस असमय यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो श्रेष्ठ पुरूषों द्वारा आचारित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति करने वाला ही है) स्पष्ट है कि, प्रभु श्रीकृष्ण यथार्थवाद पर जोर देकर कह रहे हैं कि व्यक्ति को सदैव देश, काल और परिस्थिति के अनुरूप ही व्यवहार करना चाहिए। उचित समय पर किया गया उचित कार्य ही सदैव फलदायी होता है। श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते है कि युद्ध भूमि में योद्धा का कर्तव्य सिर्फ युद्ध करना होता है। मन की दुर्बलताऐं व्यक्ति को सदैव कमजोर बना देती हैं। युद्ध के लिए अर्जुन को प्रेरित करते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं -
क्लैव्यं मा स्य गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुंद्र ह्दयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ।।2।।3।।
(इसलिए हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझ जैसे वीर पुरूष में यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप! ह्दय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिये खड़ा हो जा)मोह माया से ग्रसित अर्जुन को श्रीकृष्ण अज्ञानता के भँवर से मुक्त होने के लिए कहते हैं-
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांच भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।।2।।11।।
(हे अर्जुन! तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक करता है और पण्डितों के से वचनों को कहता है, परन्तु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं उनके लिए भी पण्डितजन (विद्वान) शोक नहीं करते।)श्रीकृष्ण कहते है जीवन में कोई भी स्थिति सदैव एक समान नहीं रहती वह समय के साथ बदलती रहती है इसलिए व्यक्ति को जीवन में यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाना चाहिए-
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।2।।12।।
(न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नही था, तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और नहीं ऐसा है कि इससे आगे हम सब नही रहेंगे)स्पष्ट है कि भगवान श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है तथा जिसकी मृत्यु हुई है उसका जन्म भी निश्चित है अतः व्यक्ति के यथार्थवादी होना चाहिए-
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुति।।
(जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, इस विषय में धीर पुरूष मोहित नहीं होते)जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।27।।
(जन्मे हुए की मुत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है। इसलिए यह विषय शोक करने योग्य नहीं है।)भगवान श्रीकृष्ण की गीता में अर्जुन की दी गयी शिक्षा वास्तव में मानव कल्याण के लिए श्रेष्ठतम मार्ग है। आओ! गीता से आत्मसात् करते हुए श्रीकृष्ण की भक्ति में खो जाते हैं।
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