भारतीयता को स्थापित करना हो शिक्षा का उद्देश्य - TOURIST SANDESH

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गुरुवार, 13 अगस्त 2020

भारतीयता को स्थापित करना हो शिक्षा का उद्देश्य

 भारतीयता को स्थापित करना हो शिक्षा का उद्देश्य 


सुभाष चन्द्र नौटियाल 

ज्ञान की उर्वरा शक्ति से परिपूर्ण भारत सदा ही सम्पूर्ण विश्व का मार्गदर्शक रहा है। अपनी इसी विशेषता के कारण भारत को जगतगुरू कहा जाता है। मानव सभ्यता के इतिहास में सभ्य मानव की प्रथम ज्ञान की पाठशाला यदि विश्व के किसी भू-भाग में स्थापित हुई थी, तो वह भारत ही था। भारत, भारती तथा भारतीयता से ही प्रथम सभ्य मानव होने का एहसास होता है। मानव सभ्यता  के इतिहास में भारत में ज्ञान की जो प्रथम लौ स्थापित हुई थी वही निरन्तर सबल होकर सम्पूर्ण विश्व को आलौकित कर रही है। मानव सभ्यता के इतिहास में वैदिक काल से ज्ञान की स्थापना का समय माना जाता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि विश्व का प्रथम विश्व विद्यालय, कण्वाश्रम भारत भूमि में ही स्थापित था। बाद में तक्षशिला और नालन्दा जैसे उच्चकोटी के ज्ञान के केन्द्र भी इसी भूमि पर स्थापित हुए। ज्ञान के कारण ही भारत देश आर्थिक राजनैतिक तथा सामाजिक रूप से बहुत सशक्त था। इसीलिए भारत सोने की चिड़िया कहलाता था। भारत की आर्थिक समृद्धि को देखकर ही तथा आर्थिक संसाधनों पर कब्जा जमाने के उद्देश्य से भारत पर समय-समय अनेकों बार विदेशी आक्रंताओं ने आक्रमण किये हैं। जिसके कारण भारतीय ज्ञान का न सिर्फ विचलन हुआ अपितु प्रसार भी हुआ है। विदेशी आक्रंताओं ने न सिर्फ यहां के ज्ञान को अपने यहां प्रसार किया बल्कि यहां की ज्ञान धाराओं को सुखाने का हर मुमकिन प्रयास भी किया। जब तक भारत में सशक्त ज्ञान धाराओं का प्रवाह बना रहा तब तक हम सम्पूर्ण मानव जाति के मार्गदर्शक बने रहे परन्तु जैसे-जैसे हम इन ज्ञान धाराओं से विमुख होते चले गये वैसे-वैसे हम पराधीनता की ओर बढ़ते चले गये। देश के भावी नागरिकांं  को गुणात्मक शिक्षा उपलब्ध कराना सरकार का मूल कर्त्तव्य है। अमीरी-गरीबी, धर्म, ऊंची-नीची जातिगत व्यवस्था से मुक्त भेदभावरहित समान शिक्षा का अधिकार प्रत्येक भारतीय का मौलिक अधिकार है। शिक्षा व्यवस्था का पूर्ण दायित्व सरकार के हाथों में होना चाहिए। शिक्षा का निजीकरण का मायने शिक्षा का विनास करना है ऐसी शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ लाभ कमाना होता है, केवल लाभ के उद्देश्य से ली गयी शिक्षा राष्ट्र के प्रति जिम्मेदार नागरिक नहीं बना सकती है। चारित्रिक और नैतिकता विहीन ऐसी शिक्षा मानवता रहित ही होती है। 

प्रसिद्ध गांधीवादी चिन्तक डॉ0 धर्मपाल  के अनुसार अंग्रेजी शासनकाल में अंग्रेजों ने न केवल हमारे अर्थशास्त्र, लघु एवं कुटीर उद्योगों को समाप्त किया बल्कि पूरे भारतीय समाज के अर्थतंत्र को नष्ट कर डाला। अंग्रेजी शासनकाल में हमारा सांस्कृतिक, साहित्यिक नैतिक तथा अध्यात्मिक विखंडन भी हुआ। कुव्यवस्थाओं को जबरन थोपा गया जिसके कारण हम अपना भारतपन ही भूल गये। स्वतंत्रता के बाद शिक्षा का मूल उद्देश्य भारतीयता को पुनः स्थापित करना होना चाहिए परन्तु दुर्भाग्य से ऐसा संभव न हो सका। हम अंग्रेजों द्वारा स्थापित शिक्षा व्यवस्था के दलदल में फंसते चले गये तथा अंग्रेजी शिक्षा से आच्छादित यहां के कुछ बड़े घरानों के लोग भारत के भाग्य विधाता बन गये तथा आम भारतीय इन घरानों का चाकर बन कर रह गया। भारत सरकार द्वारा लायी जा रही वर्तमान शिक्षा नीति में इसका स्पष्ट प्रतिबिम्ब मिल जायेगा। कहने का तो 34 साल बाद नई शिक्षा नीति का ढोल पीटा जा रहा है परन्तु यह शिक्षा नीति अंग्रेजी शिक्षा नीति से अलग नहीं है बल्कि शिक्षा को नये सिरे से साहुकारों की बपौती बनाने की कोशिश मात्र है। वास्तव में यदि सीधी और सरल भाषा में कहा जाए तो नई शिक्षा नीति भारतीय शिक्षा व्यवस्था को देशी-विदेशी शिक्षा साहूकारों के यहां गिरवी रखने की योजना मात्र है। यही इसका सत्य है। भारतीय स्वतंत्रता का मूल लक्ष्य बड़े घरानों की चाकरी करने में कहां गुम हो गया 73 साल बाद भी पता नहीं चल पाया कि हम कब मानसिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक गुलामी के दलदल में फंस गये। आजादी का मूल उद्देश्य प्रत्येक भारतीय के स्वाभिमान को जाग्रत करते हुए यहां की सभ्यता एवं संस्कृति को पुनर्स्थापित करना था। शिक्षा का मूल उद्देश्य एक ऐसे राष्ट्र को स्थापित करना था जहां के नागरिक स्वावलम्बी होकर राष्ट्र निमार्ण में अपना योगदान दे सकें। उन लघु एवं कुटीर उद्योगों को नया स्वरूप देना था जिन्हें अंग्रेजी शासन में उपेक्षित कर दिया गया था। वास्तव में एक ऐसे भारत का निर्माण करना आजादी का मूल उद्देश्य था ताकि यहां का नागरिक साक्षर मात्र न रहकर शिक्षित होकर विद्या से परिपूर्ण हो। मानवीय गुणों से परिपूर्ण भारतीय संस्कृति से संस्कारित तथा राष्ट्र के प्रति जिम्मेदार नागरिक ही आजादी का मूल उद्देश्य था परन्तु इन 73 सालों में हम आजादी के वास्तविक लक्ष्यों से भटक कर नयी आर्थिक तथा मानसिक गुलामी में उलझ कर रह गये हैं। शिक्षा को अमीरी-गरीबी में बांट कर देखा जा रहा है। समान शिक्षा व्यवस्था के बजाय अमीरों के बच्चे सुविधासम्पन्न वातानुकूलित विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करेगें तथा गरीबों के बच्चे टाट-बोरी वाले फटेहाल विद्यालयों में सन्तोष का भाव प्रकट करेगें।

एक ऐसी गुलामी जहां राष्ट्र के नागरिकों का मानसिक तथा आत्मिक उत्पीड़न किया जाता है। बाह्य आडम्बर, दिखावा तथा भोंड़ा-भद्दा प्रदर्शन करना ही नियति बन चुकी हो। अर्थ प्रधान शिक्षा में भाव के बजाय भावुकता को प्रमुखता दी जा रही है। धर्म(नीति) प्रधान के बजाय धर्मभीरू(धार्मिक आडम्बरों को बढ़ावा देने वाला) बनाया जा रहा है। ऐसी शिक्षा जिसमें नैतिकता और चारित्रकता को गिरवी रखकर भौतिक संसाधन जुटाये जा रहे हैं। इसी कारण वर्तमान समाज में वास्तविक शिक्षा से परिपूर्ण आर्दश व्यक्ति लुप्तप्रायः हो चुके हैं। 

येन-केन प्रकारेण अर्थ को केन्द्र में रखकर ही कार्य सम्पादित किया जा रहा है। मानवीय मूल्यों का निरन्तर हा्रस हो रहा है। ऐसी शिक्षा व्यवस्था को जबरदस्ती देश पर थोपा जा रहा है। जो मानवीय मूल्यां से रहित साहूकारों के लिए अर्थ मशीन के रूप में कार्य कर सके। पूरी शिक्षा व्यवस्था देशी-विदेशी सेठ-साहुकारां के हाथों में गिरवी रखने की पूर्ण व्यवस्था हो गयी है। वर्तमान शिक्षा नीति राष्ट्र निर्माण में न होकर कुछ अन्तर्राष्ट्रीय बड़े शिक्षा घराने के हाथों में कैद करने के लिए ही बनायी जा रही है ताकि उनका शिक्षा व्यवस्था पर पूर्ण नियंत्रण हो सके। शिक्षा का उद्देश्य राष्ट्र हित में श्रमपरक, विचारपरक, कलापरक, अर्थपरक, बुद्धिपरक, तार्किकता पर आधारित होता है। दुर्भाग्य देखिये इस समय शिक्षा का उद्देश्य अर्थपरक होने का ढोंग किया जा रहा है परन्तु विडम्बना है कि, इस समय देश में सबसे अधिक बेरोजगारी की दर है जिसमें निरन्तर बढ़ोत्तरी देखी जा सकती है। मतलब साफ है कि ऐसी शिक्षा उद्देश्य हीन हो चुकी है। जो सिर्फ बेरोजगारों की फौज तैयार कर रही है। ऐसी शिक्षा व्यवस्था में युवा कुंठित होकर आत्मघाती कदम उठाने में भी जरा भी हिचक नहीं कर रहा है। नयी शिक्षा नीति भी कोई इससे अलग नहीं है। इस नीति में साहुकारों के लिए श्रमिक तैयार करना मात्र है। चारित्रिक सबलता और नैतिकता का इस शिक्षा नीति में कोई स्थान नहीं हैं। धार्मिक उन्माद्ता को रोकने तथा मानवता को स्थापित करने का इस शिक्षा नीति में कोई प्राविधान नहीं है। शिक्षा व्यक्ति को परिश्रमी, विचारक बनाकर राष्ट्र, समाज तथा मानव हित में विचारों का प्रवाह बनाती है। शिक्षा अर्थाजन के साधन विकसित करने का मार्ग प्रशस्त करती है। शिक्षा व्यक्ति की कलात्मक अभिवृद्धि करती है। शिक्षा व्यक्ति को नीतिवान, बुद्धिवान बनाकर विवेकशील बनाती है। शिक्षा से ही व्यक्ति को राष्ट्र के प्रति जिम्मेदार नागरिक बनाया जा सकता है। शिक्षा व्यवस्था ऐसी हो जिसमें राष्ट्र का नागरिक श्रमपरक, विचारपरक, कलापरक, अर्थपरक, बुद्धिपरक, नैतिकता तथा चारित्रिकता से परिपूर्ण मानवीय भावनाओं से ओत-प्रोत राष्ट्र के प्रति जिम्मेदार नागरिक हो। वास्तव में यही भारतीयता है और भारतीयता को स्थापित करना ही शिक्षा का मूल उद्देश्य होना चाहिए। यदि हमारी शिक्षा नीति का उद्देश्य भारतीयता को स्थापित करना है तो हमारी शिक्षा नीति की दशा और दिशा दोनों सही हैं। अन्यथा हमें अपनी शिक्षा नीति पर पुनः विचार करने की आवश्यकता है। 

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