एक गढ़वीर, जिसे सेना में शहीद होने के बाद, आज भी मिलती है पदोन्नति
जसवंत सिंह चीनियों के साथ 1962 की लड़ाई में वीरगति को प्राप्त हुए थे। उनकी वीरता को सेना आज भी नमन करती है। सेना के जवान आज भी उनको सुबह तड़के साढ़े चार बजे बेड टी देते हैं। उन्हें नौ बजे नाश्ता और शाम सात बजे रात का खाना भी मिलता है।
चौबीस घंटे सातों दिन उनकी सेवा में भारतीय सेना के पाँच जवान लगे रहते हैं. उनका बिस्तर लगाया जाता है, उनके जूतों की बाक़ायदा पॉलिश होती है और यूनिफ़ॉर्म भी प्रेस की जाती है।
इतनी आरामतलब ज़िंदगी है बाबा जसवंत सिंह रावत की, लेकिन आपको ये जानकर हैरानी होगी कि वे अब इस दुनिया में नहीं हैं।
राइफ़ल मैन जसवंत सिंह भारतीय सेना के सिपाही थे, जो 1962 में नूरारंग की लड़ाई में असाधारण वीरता दिखाते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे।उन्हें उनकी बहादुरी के लिए मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया था। वीर जसवंत सिंह रावत का जन्म 19 अगस्त 1941 को उत्तराखंड के ग्राम-बाड्यूं ,पट्टी-खाटली,ब्लाक-बीरोखाल, जिला-पौड़ी गढ़वाल उत्तराखंड में हुआ था। आपको बता दें कि जिस समय जसवंत सिंह सेना में भर्ती होने गए थे उस समय उनकी उम्र महज 17 साल थी। जिस कारण उन्हें सेना में भर्ती होने से रोक दिया गया था। इसके बाद फिर उनकी उम्र होने पर ही उन्हें सेना में भर्ती किया गया। वह 1962 की लड़ाई में चीनी सेना के खिलाफ युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गए थे।
सेला टॉप के पास की सड़क के मोड़ पर वह अपनी लाइट मशीन गन के साथ तैनात थे। चीनियों ने उनकी चौकी पर बार-बार हमले किए लेकिन उन्होंने पीछे हटना क़बूल नहीं किया।
चीनी मशीनगन शांत
जसवंत सिंह और उनके साथी लांसनायक त्रिलोक सिंह नेगी और गोपाल सिंह गोसांई ने एक बंकर से क़हर बरपा रही चीनी मीडियम मशीन गन को शांत करने का फ़ैसला किया।
बंकर के पास पहुँच कर उन्होंने उसके अंदर ग्रेनेड फेंका और बाहर निकल रहे चीनी सैनिकों पर संगीनों से हमला बोल दिया। चीनी मीडियम मशीन को खींचते हुए वह भारतीय चौकी पर ले आए और फिर उन्होंने उसका मुँह चीनियों का तरफ़ मोड़ कर उन्होंनें उनको तहस-नहस कर दिया।
मैदान छोड़ने के बाद चीनियों ने उनकी चौकी पर दोबारा हमला किया। 72 घंटों तक लगभग अकेले मुक़ाबला करते हुए जसवंत सिंह शहीद हुए। लेकिन तब तक जसवंत सिंह अपनी वीरता की गाथा लिख चुके थे। कहा जाता है जब उनको लगा कि चीनी उन्हें बंदी बना लेंगे तो उन्होंने अंतिम बची गोली से अपने आप को निशाना बना लिया।
उनके बारे में एक और कहानी प्रचलित है. पीछे हटने के आदेश के बावजूद वह 10000 फीट की ऊंचाई पर मोर्चा संभाले रहे। वहाँ उनकी मदद दो स्थानीय बालाओं सेला और नूरा ने की
लेकिन उनको राशन पहुँचाने वाले एक व्यक्ति ने चीनियों से मुख़बरी कर दी कि चौकी पर वह अकेले भारतीय सैनिक बचे हैं। यह सुनते ही चीनियों ने वहाँ हमला बोला।
चीनी कमांडर इतना नाराज़ था कि उसने जसवंत सिंह का सिर धड़ से अलग कर दिया और उनके सिर को चीन ले गया।
लेकिन वह उनकी बहादुरी से इतना प्रभावित हुआ कि लड़ाई ख़त्म हो जाने के बाद उसने जसवंत सिंह की प्रतिमा बनवाकर भारतीय सैनिकों को भेंट की जो आज भी उनके स्मारक में लगी हुई है।
मरने के बाद भी पदोन्नति
जसवंत सिंह की याद में वहां पर एक मंदिर बनाया गया है। जिस स्थान पर उन्होंने मोर्चा संभाला था। यह मन्दिरउनकी याद में बनवाया गया है, जहाँ पर उनके इस्तेमाल की जाने वाली अधिकतर चीज़ें रखी गई हैं।
इस रास्ते से गुज़रने वाला चाहे जनरल हो या जवान, उन्हें श्रद्धांजलि दिए बिना आगे नहीं बढ़ता। जसवंत सिंह के मारे जाने के बाद भी उनके नाम के आगे स्वर्गीय नहीं लगाया जाता।
वह भारतीय सेना के अकेले सैनिक हैं जिन्हें शहीद होने के बाद भी प्रमोशन मिलना शुरू हुए। पहले नायक फिर कैप्टन और अब वह मेजर जनरल के पद पर पहुँच चुके हैं।
उनके परिवार वाले जब ज़रूरत होती है, उनकी तरफ़ से छुट्टी की दर्खास्त देते हैं, जब छुट्टी मंज़ूर हो जाती है तो सेना के जवान उनके चित्र को पूरे सैनिक सम्मान के साथ उनके उत्तराखंड के पुश्तैनी गाँव ले जाते हैं और जब उनकी छुट्टी समाप्त हो जाती है तो उस चित्र को ससम्मान वापस उसके असली स्थान पर ले जाया जाता है।
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