जब तन-मन में हरियाली छाये तो मनायें हरेला - TOURIST SANDESH

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बुधवार, 15 जुलाई 2020

जब तन-मन में हरियाली छाये तो मनायें हरेला

जब तन-मन में हरियाली छाये तो मनायें हरेला

अंजली नेगी
 भारतीय संस्कृति में पृथ्वी की वार्षिक गति(परिक्रमण) के कारण पृथ्वी वर्षभर (चान्द्र तथा   सौर बर्ष) विभिन्न आयामों से होकर गुजरती हैं। इन विभिन्न आयामों पर पड़ने वाले पर्वों को भारतीय संस्कृति में उत्सव के रूप में मनाने की परम्परा रही है। सभी जीवधारियों द्वारा की गयी चेष्टाएं या कार्य का निष्पादन भूमि पर ही होता है। प्रकृति ही समस्त जीवधरियों की पालक एवं पोषक है। इसलिए प्रकृति को भारतीय संस्कृति में मां की संज्ञा दी गई है। ’माता भूमिः पुत्रों ऽहम् पृथ्विव्या’ (धरती मेरी माता है और मैं इसका पुत्र हूं।)
भारतीय साहित्य, लोक मान्यताओं, नीति-रीति तथा परम्पराओं में प्रकृति को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। मातृ देवो भवः का अर्थ केवल जन्म लेने मां से नहीं है बल्कि धरती मां के प्रति आदर भाव प्रकट करने के लिए भी है। धरती मां ही हमें अन्न-जल उपलब्ध कराकर हमें पोषित करती है तथा इसी मां कारण ही हमारा अस्तित्व है। मां के प्रति समर्पण का भाव रखना हमारा परम कर्त्तव्य है। उत्तराखण्ड सनातन धर्म, वैदिक संस्कृति का केन्द्र रहा है। भारतीय संस्कृति का उद्गम स्थल यह मध्य हिमालयी क्षेत्र विभिन्न अवसरों पर धरती को नमन करने के लिए समय की अनुकूलता का ध्यान रखते हुए समय-समय विभिन्न प्रकार के आयोजन करता रहा है। सूर्य जब उत्तरायण होते हैं तो यहां उत्तरायणी (मकर संक्रान्ति) पर्व मनाया जाता है। ठीक इसी प्रकार जब सूर्य नारायण दक्षिणायन होते हैं तो हरेला (कर्क संक्रान्ति) पर्व मनाया जाता है। वास्तव में इस क्षेत्र में जितने भी पर्व, त्यौहार, व्रत, उत्सव मनाये जाते हैं वे सभी प्रकृति सम्मत हैं। श्रावण मास की संक्रान्ति को आयोजित होने वाला पर्व हरेला, हरियाली का उत्सव मनाने का पर्व है। जहां गढ़वाल क्षेत्र में यह पर्व डोल जात्रा के रूप में मनाया जाता है तो कुमाऊं में इस पर्व को हरेला के रूप में मनाने की परम्परा रही है।  गढ़वाल क्षेत्र में पहले सावन संक्रान्ति पर महिलायें हरियाली का उत्सव मनाने के लिए आस-पास के विभिन्न पहाड़ी का हरियाली दृश्य देखने के लिए लघु यात्राओं का आयोजन करती थी। सावन संक्रांति को घर में खीर बनाने का महत्व भी है। वहीं कुमाऊँ क्षेत्र में इस पर्व को हरेला के रूप में मनाया जाता है। लोक पर्व हरेला पर आज भी विशेषकर कुमाँऊ क्षेत्र में घर की बड़ी महिलाएं घर-परिवार के छोटे सदस्यों को हरेला शिरोधार्य करती हुई  शुभाशीष देती हुई देखी जा सकती हैं।
‘लाग हरियाव्, लाग दसैं, लाग बग्वाल, जी रयैं, जागि रहैं, यो दिन यो मास भेटनैं रये, विष्टिये पनपिये, हिमाय मा ह्यूं छन तक, गंग ज्यू मा पाणि छन तक, अगास चार उकाव, धरती चार चकाव है जाये। स्याव कस बुद्धि हो, स्यों जस तराण हो, युव जन पंगुरिये, सिल पिसी भात खावै, जांठ टेकी झाड़ जाए....’
(यह दसवें दिन वाला हरेला तुम्हारे लिए शुभ हो, बग्वाल तुम्हारे लिए शुभ हो, तुम जीते रहो और जागरूक बने रहो, तुम्हारे जीवन में हरेला का यह दिन बार-बार आता रहे, वंश परिवार दूब की तरह बढ़ता रहे, धरती जैसा विस्तार मिले, आकाश जैसी ऊंचाई प्राप्त हो, सिंह जैसी ताकत मिले, सियार जैसी बु़द्ध हो, हिमालय में हिम रहने तथा गंगा में पानी बहने तक इस संसार में बने रहो।........)
वास्तव में हरेला पर्व ‘जीवेत् शरद शतम्’ की अवधारण पर आधारित है। हरेला पर्व से प्रकृति व मानव के सह अस्तित्व और प्रकृति संरक्षण कि दिशा में उन्मुख एक समृद्ध विचारधारा भी साफ तौर पर परिलक्षित होती है। प्रकृति के इसी ऋतु परिवर्तन पर सभी जीवधारियों (पशु, पक्षी, पेड़-पौधे) सम्पूर्ण जगत में व्याप्त जीव एवं वनस्पतियों का जीवन चक्र निर्भर है।
उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्र में विशेषकर कुमाऊं क्षेत्र में हरेला पर्व मनाने की परम्परा सदियों से चली जा रही है। इन पर्वों पर उगंम और उत्साह को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। उमंग और उत्साह से व्यक्ति में शक्ति का संचार होता है। हरेला पर्व कर्क संक्रांति (सौण संग्राद) को मनाया जाता है। परम्परानुसार दोना-पत्तल या रिंगाल की टोकरियों में हरेला नौ दिन पूर्व बोया जाता है। जिसमें उपलब्धतानुसार पांच, सात, नौ प्रकार के धान, मक्का, तिल, उड़द, गहत, भट्ट, जौ, कौणी, सरसों आदि बोने की परम्परा रही है। देवस्थान में इन टोकरियों को रखने के उपरान्त रोज जल के छींटों से सींचा जाता है। दो-तीन दिन में बीज अंकुरित होने लगते हैं। नौवें, दसवें दिन सात-आठ इंच तक बड़े हो जाते हैं। हरेला पर्व की पूर्व संध्या पर इन तृणों की गुड़ाई कर विधिवत् पूजन किया जाता है। कुछ स्थानों पर मिट्टी के देव डिकारे(मूर्ति) शिव पार्वती, गणेश, कार्तिकेय बनाने की परम्परा भी है। इन अंलकृत डिकारों को हरेला के साथ पूजे जाने की परम्परा भी है। हरेला के दिन यानि श्रावण संक्रान्ति के दिन टोकरियों में उगे इन हरेला (हरे तृण) को काटा जाता है। सावन ऋतु के प्रारंभ या प्रकृति पर्व हरेला के अवसर पर घर के बड़े सदस्य सतनाजा की अंकुरित हरित(लगभग पीली) पत्तियां (हरेले के विनड़ो) को घर के छोटे सदस्यों के सिर में रखते हुए शुभाशीष देते हैं। इन शुभाशीषों में त्रेतायुग में देवर्षि विश्वामित्र द्वारा भगवान राम को दी गयी। आकाश की तरह ऊंचे होने तथा धरती की तरह चौड़े होने का आशीष का भाव भी समाहित है। कुमाऊं क्षेत्र में यदि प्रियजन दूर प्रवास पर कहीं भी हां उन्हें भी हरेला पत्रों के माध्यम से पहुंचाया जाता है। जिनका उन्हें भी वर्ष भर से इंतजार रहता है।
लोक पर्व हरेला, हरियाली का उत्सव मनाने का पर्व है। सावन के चंहु ओर फैली हरियाली से मन-मस्तिष्क प्रफुल्लित होकर मन मयूरी की तरह नाचने लगता है। तन-मन में उत्साह और उमंग का संचार होने लगता है। अतः जब तन-मन में हरियाली छाये तो समझो हरेला पर्व मनाने का समय आ चुका है। 

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