संस्कृति को प्रकृति से जोड़ने की आवश्यकता
सुभाष चन्द्र नौटियाल
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित् दुःख भाग्याभवेत्।।
(सभी सुखी रहे, सभी निरोगी रहें, सबका कल्याण हो दुःख किसी के हिस्से में न आये)
सभी प्राणियों के सुखी, निरोगी तथा कल्याण की भावना से ओत-प्रोत भारतीय संस्कृति प्रकृति सम्मत रही है। इसीलिए सनातन धर्म, वैदिक संस्कृति के संस्कार, नीति-रीति तथा परम्पराओं को प्रकृति के अनुरूप ढाला गया ताकि लोक संस्कृति में लोकाचार प्रकृति के अनुरूप हो सके। लोक व्यवहार और लोक मान्यताओं को प्रकृति के साथ सम्बन्ध स्थापित करने के लिए मानव संस्कारों के रूप में प्रस्तुत किया गया। मानव संस्कृति और प्रकृति के इसी सम्बन्ध के कारण वैदिक काल से ही मानव प्रकृति में स्वच्छंद विचरण करता रहा है। प्रकृति में वह सारे तत्व मौजूद हैं जो मानव सहित सभी प्राणियों का भरण-पोषण कर सकें। मानव का विकास क्रम ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता गया त्यों-त्यों वह प्रकृति से दूर होता चला गया। प्रकृति से मानव के विस्थापन होने के कारण मानव मन की व्यग्रताऐं एवं बैचेनियाँ बढती़ गई हैं। इन्हीं व्यग्रताओं और बेचैनियों ने मानव मन को उद्वेलित कर देहसुख की खोज में दोहनकारी प्रवृत्ति का बना दिया है। दरअसल इसकी शुरूआत सत्रहवीं सदी से औद्योगिकीकरण के साथ तब हुई जब अधिक से अधिक सुविधाभोग की चाह में मानव ने प्रकृति का तेजी विदोहन करना शुरू किया। मानव की दोहन की प्रवृति तथा सुविधाभोग की चाह से घृणा, विद्वेष आदि दुर्गुणों का समावेश हुआ। भौतिक सुख की चाह में मानव ने प्रकृति का तीव्रतम दोहन शुरू किया। जिसके कारण मानव संस्कृति का प्रकृति के साथ सदियों से जो सम्बन्ध स्थापित था उसका तेजी से हा्रस शुरू हुआ। भौतिक सुख की चाह तथा प्रकृति का तीव्रतम विदोहन ने भले ही औद्योगिकीकरण को पंख लगा दिये हो परन्तु पंचतत्व बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। धरती, आकाश वायु, जल और अग्नि तत्व के प्रभावित होने के कारण मानव मनोविज्ञान तथा व्यवहार को नकारात्मक भावों में परिवर्तित कर दिया। आत्मविहीन स्वरूप में परिवर्तित होता आज का मानव भौतिकवादी स्वभाव में लिप्त होकर नितान्त व्यक्तिवादी हो चुका है। औद्योगिकीकरण की व्यवस्था भारतीय संस्कृति के ठीक विपरीत थी। भारतीय संस्कृति, प्रकृतिसम्मत होते हुए प्रकृतिसंरक्षण पर जोर देती है, जबकि यह संस्कृति दोहनकारी होने के कारण ना तो मानव के अनुरूप है और ना ही जैव विविधता के अनुकूल। भारतीय संस्कृति के सभी जीवों के स्वस्थ निरोगी तथा सुखी रहने की कामना की गयी है। यह तभी संभव है जब हम एक-दूसरे के विरोधी न होकर पूरक हों। यह मंत्र भारतीय संस्कृति की जीवन जीने की पद्धति की मूल अवधारणा को निरूपित करता है। मंत्र से स्पष्ट है कि भारतीय जीवन पद्धति सभी प्राणियों के सुखी, स्वस्थ, निरोगी रहते हुए कल्याण की कामना करती है। मंत्र के मूल भाव से स्वतः ही प्रमाणित हो जाता है। सामूहिकता एवं सामूदायिकता जहां एक ओर भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग रहे हैं तो वहीं दूसरी ओर धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को जीवन पद्धति का आधार माना गया है। सहजता, सौम्यता तथा सरलता जहां लोकव्यवहार से प्रलाक्षित होती थी तो सदाचार को मानव संस्कृति का आभूषण माना जाता था परन्तु मानव जैसे-जैसे औद्योगिकीकरण की ओर बढ़ता गया वैसे-वैसे देह सुख की अभिलाषा बढ़ गयी। बाहरी चमक-दमक तथा दिखावे की संस्कृति ने संग्रह की प्रवृत्ति का विकास किया। संग्रह की इस प्रवृत्ति ने भारतीय संस्कृति के दो मूल आधारों धर्म और मोक्ष का लोप कर दिया तथा अर्थ और काम को प्रधान बना दिया। संस्कृति के दो मूलाधारों धर्म और मोक्ष के अभाव में मानव, स्वयं मानव न रहकर अर्थ और काम का पिपासु मात्र बनकर रह गया। अर्थ की मशीन बना मानव में भौतिक अभिलाषाओं की पूर्ति के लिए येन-केन-प्रकारेण प्रवृत्ति का विकास हुआ। इसी येन-केन-प्रकारेण की प्रवृत्ति ने मानव की सुप्त आसुरी शक्तियों का जागरण करवाया। मानव के अन्दर आसुरी शक्ति के जागृत होने से मानव भोग-विलास तथा संग्रह की लालसा चरम तक पहुंचने लगी। इस लालसा को शांत करने के लिए मानव ने प्रकृति का बेहिसाब से दोहन प्रारंभ शुरू कर दिया। अतिवाद की सीमाओं का लांघते हुए वह स्वयं को प्रकृति से भी श्रेष्ठ समझने लगा। श्रेष्ठता की इस जंग में वह इतना अहंकारी हो गया कि, वह मानव यह भी भूल गया कि वह भी प्रकृति का ही एक अंग मात्र है, न तो वह प्रकृति का निर्माता है और ना ही निर्धारक। भौतिक सुख-सुविधाओं को जुटाने में वह स्वयं को भी भूल गया। वह यह भी भूल गया कि धरती पर जन्म लेने वाले हर प्राणी (जीव तथा वनस्पति) की अपनी महत्ता होती है। धरती की इसी जैव विविधता का हमारी जीवन सुरक्षा में अहम् योगदान है। इस वर्ष पर्यावरण दिवस की थीम जैव विविधता का उत्सव के रूप में मनाने की है। जैव विविधता मुख्यतः तीन प्रकार की होती है- प्रजाति विविधता, अनुवांशिक विविधता एवं परिस्थितिकी विविधता।
मानव स्वास्थ्य भी जैव विविधता तथा पारिस्थितिकीय परिवर्तन के कारण परिवर्तित होता है। विश्व स्तर पर मुख्यतः भारत में मानव समाज सांस्कृतिक पहचान, बौद्धिक सम्पत्ति तथा रचनात्मकता भी जैव विविधता से सम्बन्धित है। भारतीय संस्कृति में सदैव विविधता को संरक्षित करने की प्रवृत्ति रही है। इसीलिए इस संस्कृति में छोटे से छोटे जैसे (दूबघास आदि) से लेकर बड़े से बड़े जैसे (बड़-पीपल आदि वृक्ष) तक को पूजनीय माना गया है। जैवविविधता के संरक्षण के लिए इन सभी वनस्पतियों को पूजा पद्धति में विशेष रूप से शामिल किया गया। जैवविविधता संरक्षण में अद्वितीय भगवान शिव का परिवार भारतीय संस्कृति में सदैव पूजनीय रहा है। भगवान शिव स्वयं गले में सर्प की माला धारण करते हैं तथा देव सेनापति कार्तिकेय का वाहन मोर है, इसी प्रकार गणेश भगवान का वाहन मूषक है तथा माता पार्वती का वाहन सिंह है तो शिव भगवान का वाहन नन्दी बैल है। यानि कि इस प्राणी जगत में प्रत्येक प्राणी का अपना विशेष महत्व है।
सांस्कृतिक संरक्षण के कारण ही भारत जैव विविधता के मामले में धनी देश है। विश्व की 70 प्रतिशत जैव विविधता भारत में पायी जाती है। यदि वर्तमान परिवेश में देखें तो भारत में जैव विविधता को संरक्षित करने के तीन क्षेत्र हैं- बायोस्फियर रिजर्व जैसे सुंदरवन, मन्नार की खाड़ी नीलगिरी के वन जो विश्व के संरक्षित रिजर्व के अन्तर्गत आते हैं। भारत में 47 हजार पौधों की प्रजातियां हैं। इनमें दुर्लभ 2532 प्रजातियां उच्च हिमालय क्षेत्रों में हैं। वन को जैव विविधता का घर माना जाता है परन्तु अति दोहन ने हमारी जैव विविधता को खतरे में डाल दिया है। भारत में उगने वाली 1782 वनस्पतिक प्रजातियां इस समय लुप्त होने के कगार पर हैं। इस कारण इस समय हमारी जैव विविधता तथा सांस्कृतिक धरोहर दोनों खतरे में हैं। यदि अपनी जैव विविधता तथा सांस्कृतिक धरोहर को बचाना है तो हमें फिर से मानव संस्कृति को प्रकृति से जोड़ना होगा। तभी हम जल, जैव विविधता एवं जलवायु सुरक्षा, मानव स्वास्थ्य को अद्भुत रूप से विकसित कर सकते हैं।
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