कण्वाश्रम : ऋषि दुर्वासा के शाप से हो पायेगा मुक्त?
जिस कण्वाश्रम की माटी में जन्मे लाल के नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा, जिस माटी को चक्रवर्ती सम्राट भरत की जन्मस्थली, क्रीड़ास्थली होने का सौभाग्य मिला लगता है, कण्वाश्रम में बसन्त पंचमी पर आयोजित कार्यक्रम में ऋषि दुर्वासा के श्राप से मुक्ति का समय भी निर्धारित अवश्य किया होगा। हर बार बसन्ती बयार तो कुछ यही खबर लाती है। परन्तु निराशा हर बार बाधक बन कर राह का रोड़ा बन कर रह जाती है। शायद यही कण्वाश्रम की नियति है। ज्ञात रहे कि दुष्यंत के विरह वियोग में जलने वाली शकुन्तला को शाप देने के बाद ऋषि दुर्वासा ने मुक्ति का उपाय भी बताया था। समय की मन्थर चाल निरन्तर अपनी गति से गतिमान रहती है। इसी बहते समय के साथ सदियां बितती चली गयी। मानव पीढ़ियां बदलती चली गयी। हालात बदले परन्तु नहीं बदली तो कण्वाश्रम की स्थिति जो निरन्तर भूल तथा धूल की गर्त में समाता चला गया। किसी भी राष्ट्र के लिये इससे शर्म की बात और क्या हो सकती है कि जिस स्थान को राष्ट्रीय तीर्थ के रूप में विकसित किया जाना था वह स्थान आज भी सुनसान वीरान पड़ा है।इस ऐतिहासिक स्थल को आज तक किन परिस्थितियों में गौरवान्वित नहीं होने दिया गया। इसके मूल में हालांकि अनेकों कारण हैं, परन्तु सबसे अहम तथा मुख्य कारण रहा है सत्ता प्रतिष्ठानों की उदासीनता । वास्तव में उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री तथा परम विद्वान डॉ0 सम्पूर्णानन्द एवं तत्कालीन वन मंत्री स्व0 जगमोहन सिंह नेगी के प्रयासों के उपरान्त सत्ता प्रतिष्ठानों में बैठे किसी भी नेता ने उनके प्रयासों को आगे बढाने का ईमानदारी से कभी भी प्रयास नहीं किया है। उनके बाद कण्वाश्रम को जिस तरह से पंचमी कौथिग तक सीमित रख दिया गया। यह भी घोर आश्चर्य की बात है। जलेबी, पकौड़ी तक सीमित इसी मेले के कारण यह अति महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल शनैः शनैः अपनी पहचान खोता चला गया। स्थानीय स्तर पर हालांकि अनेक लोगों ने इसे राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने के प्रयास जरूर किये। लेकिन उनके ये प्रयास नाकाफी साबित हुए। फलस्वरूप समाचार पत्रों के लिये जहां यह एक समाचार मात्र रहा, वहीं दूसरी ओर कण्वाश्रम नेताओं के लिये भाषण बाजी का मुद्दा बना रहा । क्षेत्रीय जनमानस के लिये तो कण्वाश्रम एक अच्छा पिकनिक स्पॉट भी नहीं बन पाया। जनमानस में हर बार कण्वाश्रम विकास की कुछ आस बंधी शेष रहती है। परन्तु वसंत पंचमी के बीत जाने के बाद फिर स्थानीय जनमानस भी कण्वाश्रम को ठीक उसी प्रकार भूल जाता है, जिस प्रकार राजा दुंष्यत शकुन्तला हो भूल गये थे। बीतते समय के साथ शकुन्तला तो शाप से मुक्त हो गयी थी परन्तु लगता है कि, अभी कण्वाश्रम का शाप से मुक्त होना शेष रह गया है। वसंत पंचमी के अवसर पर यहां हर वर्ष खूब ठुमके लगाये जाते हैं, मंच सजता है, बड़े-बड़े वादे किये जाते हैं परन्तु वर्ष में 362 दिन वीरानी झेलने वाला कण्वाश्रम अब पूछ रहा है भारत की इस पुण्य भूमि से भारत के लाल आखिर कब तक छलावा करते रहेंगें?क्या कण्वाश्रम ऋषि दुर्वासा के शाप से कभी मुक्त हो पायेगा या फिर शापित ही रह जायेगा?
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