कोरोना : अति भौतिकवादी सोच का परिणाम - TOURIST SANDESH

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बुधवार, 17 जून 2020

कोरोना : अति भौतिकवादी सोच का परिणाम

कोरोना : अति भौतिकवादी सोच का परिणाम
 सुभाष चन्द्र नौटियाल
आज कोरोना के खौफ से हम घरों में कैद होने के लिए मजबूर हैं। पूरा विश्व सहमा हुआ है। क्या हमने कभी गौर किया कि इन सब के लिए दोषी कौन है। वास्तव में कोरोना जैसी महामारी अति भौतिकवादी सोच का परिणाम है।
जरा सोचिए हम इस मुहाने पर क्यों आ खड़े हुए? क्यों कुछ सौ साल के भीतर ही हमारे तथाकथित विकास के हाथ-पांव फूलने लगे हैं? क्यों हम ‘ग्लोबल विलेज’ और संचार-क्रांति के इस चमकते दौर में एक-दूसरे पर संदेह करने लगे? विचार कीजिए इस महामारी की जड़, दुनिया की महाशक्ति, चीन के विनाशकारी क्रियाकलापों पर. प्रकृति के बदन को खुरचने, छीलने और लहुलुहान करने की कीमत पर होने वाले तथाकथित विकास के बारे में सोचिए। जरा सोचिए, अठारहवीं सदी से यूरोप में आरंभ हुई औद्योगिक क्रांति के महज ढाई सौ साल ही तो हुए हैं। अमेरिका और यूरोप के कई देशों में जहां मानव की आजादी का विशेष आग्रह रखा जा रहा है, आज मौत के दहशत में उनकी आजादी न जाने कहां गुम हो गई है. सभी ख़ामोश हैं, सभी के होश उड़े हुए हैं।
कारण खोजने के लिए आपको ज़्यादा दूर नहीं जाना पड़ेगा. जरा सोचिए, इस बह्मांड को बनाने वाली ईश्वरीय सत्ता ने हम मानव को एक सुंदर और खुशहाल जीवन जीने के लिए धरती पर तमाम अनुकूल व्यवस्थाएं दी थीं। पर हुआ यह कि विश्व के औद्योगिक विकास के पिछले ढाई सौ-तीन सौ सालों में हमारा चिंतन पूरी तरह से बदल गया। भौतिक साधन-संसाधनों से अपने जीवन में सहूलियतें आने से हमारे अंदर अहंकार भाव भरते चले गए और हमने स्वयं को परम सत्ता द्वारा निर्मित विराट प्रकृति का हिस्सा मानना बंद कर दिया।
इन सब की शुरुआत हुई सन् 1760 में यूरोप की औद्योगिक क्रांति से जब अधिक से अधिक उत्पादन करने के लिए प्रकृति को हमने छीलना और लहुलुहान करना शुरु कर दिया। कल-कारखाने बनाने, नए-नए शहरों को बसाने, खेतों के विस्तार के लिए प्रकृति को बड़े पैमाने पर बरबाद करने लगे. मीलों-मील हरे-भरे जंगल काट कर गिराए गये. पहाड़ों को छीला-तराशा गया। नदियों को रोका-टोका गया. अपने वैज्ञानिक अनुसंधान के बल पर हमने कई असाध्य रोगों से लड़ने के टीका और दवाइयां बना लीं। कृत्रिम साधन-संसाधनों के बल पर जीवन की कठिनाइयों पर हमने विजय पाई और दुनिया भर में मानव की आबादी तेजी से बढ़ने लगी और फिर अपने भौतिक विकास को हम दिन-दूना रात-चौगुना करने के लिए हम विकास के अंतहीन होड़ में उलझ गए। जिन देशों ने औद्योगिक विकास किया उन्हें और विकसित होना था, जिन्होंने देर से विकास शुरु किया वे अपनी रफ़्तार बढ़ाने में लग गए। विकास की इस अन्धी दौड़ में हम भूल  ही गये कि दरअसल जिसे हम विकास का नाम दे रहे हैं वह विकास नहीं बल्कि विनास है।
फिर हम अपनी विकास गतिविधियों को अपने-अपने राष्ट्र को श्रेष्ठ सिद्ध करने और दूसरे राष्ट्रों को अपने अधीन करने के विनाशकारी भाव से भरते चले गए. बहुत जल्द ही हमने दो-दो विश्वयुद्ध निपटा दिए। अमेरिका द्वारा जापान पर किए परमाणु हमले में उस राष्ट्र का सब कुछ तबाह हो गया। इस युद्ध में दुनिया भर में करोड़ों मौतें होने के बाद भी हम ठहरे नहीं आगे बढ़ते ही रहे। आगे नए-नए विनाशक हथियारों के निर्माण और स्वामित्व का होड़ शुरु हुआ और अब हम दूसरे विश्वयुद्ध के बाद सबसे विनाशकारी दौर में आ चुके हैं, जहां सारे साधन-सामर्थ्य मौजूद होते हुए भी दुनिया भर के हमारे भाई-बहन, परिजन हमसे बिछुड़ते जा रहे हैं और हम सभी अपने-अपने घरों में कैद रहने के लिए बेबस हैं. तड़पते इंसानों के पास अब कोई खड़ा होने वाला नहीं है. आज मानव की ‘अनुशासनहीन’ आजादी की दुहाई देने वाले लोग भी सोचें कि क्या कोई भी आज़ादी विश्व कल्याण के भाव से बड़ी है? यदि नहीं तो ऐसी ‘आज़ादियों’ का क्या फ़ायदा! जिसका रास्ता विनास की ओर खुलता हो।  क्या यह महज हमारे अंदर के अहं की तुष्टिकरण तो नहीं है? क्या अब भी हमें ठहरकर जरा सांस लेने की जरूरत नहीं है? या हम 3-4 महीनों के बाद इस महामारी से उबरते ही दुगने उत्साह के साथ फिर से विनाश की अंधी दिशा में चल पड़ेंगे?  अपने-अपने घर में बंद रहकर आप भी चिंतन कीजिए कि हमारी दिशा में कहांं पर चूक हुई थी?हमें विकास का पश्चिमी मॉडल चाहिए  या भारतीय आध्यात्म के साथ जीवनयापन का उचित प्रबन्धन। चिन्तन की इस घड़ी में भारतीय दर्शन के साथ आत्मसात् कीजिए। जहां धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को जीवन जीने का आाधार माना गया है। यदि हमने इस दर्शन से आत्मसात् कर लिया तो कोरोना जैसी लाखों करोड़ो बीमारियो हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकती। भारतीय जीवन दर्शन में ही जीवन जीने का वास्तविक आन्नद है। आओ फिर लौट चलें भारतीय दर्शन की ओर........

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