आत्मसात्
आत्म सन्तोष का धन है सबसे महान
पूर्वकाल में एक लोभी राजा था, राजा शिव भक्त था । एक बार राजा ने शिव की भक्ति कर शिव से वरदान प्राप्त कर लिया कि वह जो भी वस्तु छू लेगा, वह वस्तु सोने की बन जायेगी। राजा जिस भी वस्तु को छूता, वह सोने की हो जाती थी। एक बार राजा ने अपनी बेटी को गोद में उठा लिया और बेटी भी सोने की हो गयी, उसका खाना-पीना सब सोना का ही हो गया वह भूख प्यास से तड़पने लगा। उसने पुनः भगवान शिव से क्षमा याचना के लिये प्रार्थना की, कि हे ! प्रभु आप अपना वरदान वापस ले लो। राजा के आह्वान पर भगवान शिव ने वरदान वापस ले लिया तथा राजा को सीख दी कि हे राजा ! आत्मसन्तोष का धन ही सबसे महान होता है। व्यक्ति का लोभ व्यक्ति को अन्ततः नाश की ओर ले जाता है। दरअसल, यह दन्त लोककथा हमें यह सोचने का अवसर देती है कि आखिर जीवन का वास्तविक धन क्या है ? घ र परिवार के प्रति प्रेम, परिश्रम से उपजी घर का खाना आदि या सोने-चाँदी की सम्पदा ? रूपया-पैसा सोना चांदी की सम्पदा तो लोभ-लालच को बढ़ाने वाली है। यह वह बाहरी सम्पदा है , जो हमारी भीतरी सम्पदा आत्मसंतोष को नष्ट कर देती है। यदि बाहृय सम्पदा को सही ढंग से अर्जिन न किया जाय तो हमारी भीतरी सम्पदा सहिष्णुता, प्रेम, दया, करूणा आदि बाहरी सम्पदा से उपजा लोभ और अहंकार हमारी भीतरी सम्पदा को धीरे-धीरे नष्ट कर देता है। हमारे हृदय की कोमल भावनाएं समाप्त हो जाती है तब हम रूढ़ हो जाते हैं। मन की शान्ति समाप्त हो जाती है। हमारा सुख-चैन छिन जाता है। हमें स्वयं तय करना है कि, हमें लोभ-लालच का साथ चाहिए या शान्ति तथा सन्तोष का। संत कबीर ने कहा है
गजधन, गोधन, बाजिधन और रतन धन खान... जब आवे सन्तोष धन, सब धन धूरि समान।
अर्थात् सबसे बड़ा धन सन्तोषधन है। अर्थात आत्म सन्तोष रूपी धन सबसे बड़ा धन है। सन्तोष ही जीवन में शान्ति लाता है। श्रीमद् भगवद् गीता के 12वें अध्याय के 9वें श्लोक में कहा है-
तुल्यनिन्दास्तुतिमौनी संतुष्टौ येन केनचित्।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्ये प्रियो नरः ।।
निंदा,स्तुति को समान समझने वाला मननशील और जीवन-निर्वाह में अर्थात् निंदा व स्तुति में सदा संतुष्ट रहने वाला , मोह और आसक्ति से रहित स्थिर बुद्धि भक्तिमान पुरूष मुझ को प्रिय है।
स्पष्ट है कि लोभ, मोह और आसक्ति छोड़कर, सन्तोष को अपनाने वाला ही भगवान का प्रेम पाने का अधिकारी है।
‘‘धन सम्पत्ति का होना गलत नहीं है। व्यक्ति अपने पुरूषार्थ और प्रयत्न से ही धन सम्पत्ति का उपार्जन करता है। लेकिन जब धन के साथ जीवन निर्वाह से अधिक लोभ जुड़ जाये तो आत्मीय संवेदनाएं समर्पित होने लगती हैं। ऐसा धन किसी काम का नहीं जो दूसरे जीवों के प्रति आत्मीयता को महसूस ना कर सके।’’ अपने जीवन में हमें आत्म संतोष रूपी धन से आत्मसात् करना चाहिए। संत कबीर ने आवश्यक धन की सीमा भी निर्धारित कर दी है-
सांई इतना दीजिए, जांये कुटुम्ब समाय..मैं भी भूखा न रहूॅ, न साधु भी भूखा जाए।
कबीर जीवन में केवल इतने धन की चाह रखते हैं कि, जीवन निर्वाह अच्छी प्रकार से हो सके तथा आन्तरिक सन्तोषरूपी धन भी सुरक्षित रहें। अतिथि सत्कार तथा मानवीय संवेदना बची रहे यही कारण है कि समृद्ध देश अध्यात्म की ओर मुड़ रहे हैं, वे दान पुण्य कर रहे हैं । यह उनका भीतरी अशान्ति को भरने का प्रयास ही है।
जीवन में बाहरी धन के साथ-साथ आन्तरिक आत्मसन्तोष रूपी धन से भी आत्मसात् करना आवश्यक है। तभी जीवन में उन्नति सम्भव है। जीवन में सुखी रहने का यह मूल मंत्र है।
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