भगवान धन्वंतरी जयंती, धनतेरस
यह तो हम सभी भली-भांति जानते ही हैं कि धनतेरस के दिन अधिकतर लोग कार ,स्कूटी,आभूषण,फ्रीज़ और अन्य कई प्रकार की वस्तुओं की खरीददारी करते हैं साथ ही इस त्यौहार के दौरान आने वाले प्रत्येक पलों को यादगार बनाने का प्रयास करते हैं। वास्तव में धनतेरस शब्द धन्वन्तरि से आया है, एक पौराणिक कथा के अनुसार बहुत से विद्वानों का मानना है कि, इसका मौद्रिक धन से कोई लेना देना नहीं है, यह स्वस्थ तन और मन रूपी धन का पर्व है! धन्वन्तरी ने समस्त औषधियों का विस्तार से वर्णन करने के पश्चात कहा कि, भगवान का नाम समस्त व्याधियों की औषधि है! धन्वंतरी को हिन्दू धर्म में देवताओं के वैद्य माना जाता है। ये एक महान चिकित्सक थे जिन्हें देव पद प्राप्त हुआ। हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार ये भगवान विष्णु के अवतार समझे जाते हैं। इनका पृथ्वी लोक में अवतरण समुद्र मंथन के समय हुआ था। शरद पूर्णिमा को चंद्रमा, कार्तिक द्वादशी को कामधेनु गाय, त्रयोदशी को धन्वंतरी, चतुर्दशी को काली माता और अमावस्या को भगवती लक्ष्मी जी का सागर से प्रादुर्भाव हुआ था। इसीलिये दीपावली के दो दिन पूर्व धनतेरस को भगवान धन्वंतरी का जन्म धनतेरस के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन इन्होंने आयुर्वेद का भी प्रादुर्भाव किया था। इन्हें भगवान विष्णु का रूप कहते हैं जिनकी चार भुजायें हैं। उपर की दोंनों भुजाओं में शंख और चक्र धारण किये हुये हैं। जबकि दो अन्य भुजाओं मे से एक में जलूका और औषध तथा दूसरे मे अमृत कलश लिये हुये हैं। इनका प्रिय धातु पीतल माना जाता है। इसीलिये धनतेरस को पीतल आदि के बर्तन खरीदने की परंपरा भी है। इन्हें आयुर्वेद की चिकित्सा करने वाले वैद्य आरोग्य का देवता कहते हैं। इन्होंने ही अमृतमय औषधियों की खोज की थी। इनके वंश में दिवोदास हुए जिन्होंने 'शल्य चिकित्सा' का विश्व का पहला विद्यालय काशी में स्थापित किया जिसके प्रधानाचार्य सुश्रुत बनाये गए थे। सुश्रुत दिवोदास के ही शिष्य और ॠषि विश्वामित्र के पुत्र थे। उन्होंने ही सुश्रुत संहिता लिखी थी। सुश्रुत विश्व के पहले सर्जन (शल्य चिकित्सक) थे। दीपावली के अवसर पर कार्तिक त्रयोदशी-धनतेरस को भगवान धन्वंतरि की पूजा करते हैं। कहते हैं कि शंकर ने विषपान किया, धन्वंतरि ने अमृत प्रदान किया और इस प्रकार काशी कालजयी नगरी बन गयी।प्रस्तुति--राजीव थपलियाल,
सहायक अध्यापक (गणित) , राजकीय आदर्श प्राथमिक विद्यालय सुखरौ (देवी) कोटद्वार, पौड़ी गढ़वाल
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