हिमालयी ग्राम संस्कृति से आत्मसात् करने का समय
सुभाष चन्द्र नौटियाल
जि स प्रकार हिमालय को विश्व में सर्वोच्च शिखर होने का गौरव प्राप्त है। उसी प्रकार मध्य हिमालय की गोद में रची-बसी हिमालयी ग्राम संस्कृति विश्व की सर्वोत्कृष्ट संस्कृतियों में से एक है। देवत्व से ओत-प्रोत इस भू-भाग को देवभूमि तथा यहां रचने-बसने वाली संस्कृति को देव संस्कृति कहा जाता है। मध्य हिमालय की गोद में बसा उत्तराखण्ड ना सिर्फ प्राकृतिक रूप से सुन्दर है, बल्कि यहां की संस्कृति मानव जाति सहित सभी जीवधारियों (वनस्पति एंव प्राणी जगत) के बीच जीने की सह-अस्तित्व भावना लिए जीवंत रूप में उच्चतम शिखर पर मानी जा सकती है। नैसर्गिक रूप से सुन्दर इस क्षेत्र में अनादि काल से अनेक ऋषि-मुनियों ने अपनी तप स्थली के रूप में स्वीकार किया है। साधकों की अखण्ड तप साधना के कारण ही यह पुण्य क्षेत्र भारत भूमि का सिद्व क्षेत्र कहलाया। सम्पूर्ण विश्व में स्थायी शान्ति, आत्मिक सुख-समृद्धि तथा विश्व मानव के लिए मानवीय गुणों के विकास के लिए ’वसुधैव कुटुम्बकम्’ के सूत्र इसी पुण्य भूमि से प्रस्फुटित हुए हैं।
सर्व भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित् दुःख भाग्याभवेत्।।
(सभी सुखी रहें, सब निरागी रहें, सबका कल्याण हो, दुःख किसी के हिस्से में न आये)
जैसे श्रेष्ठ मंत्रों की रचना भी इसी पुण्य भूमि से होकर सम्पूर्ण विश्व में प्रचारित-प्रसारित हुए। मानवीय चेतना को जाग्रत एंव संस्कारित करने का क्रम भी इसी देवभूमि से प्रारम्भ होकर अखिल ब्रह्माण्ड में विस्तरित हुआ है। अनादि काल से ही यह देव भूमि सन्त-महापुरूषों की जन्म या कर्मस्थली रही है। चूंकि हिमालय के इस भू-भाग में अनेक ऋषि-मुनियों की तपो भूमि रही है। इसलिए इस हिमालयी संस्कृति के केन्द्र में सदैव संस्कार सम्पन्न सुख, बाह्य-आन्तरिक स्वच्छता के कारण श्रेष्ठता, उदारता, जगतहित में निजी स्वार्थों का त्याग, नीतियुक्त धनोपार्जन, सहिष्णुता, आपसी सहयोग, व्यवहार में शुचिता-शुद्धिता, वरिष्ठ जनों के प्रति आदर का भाव, पितरों के प्रति श्रद्धाभाव जागृत करने के लिए धर्म-कर्म, ईश्वर के प्रति आस्था एंव सर्मपण भाव के साथ जीवनयापन, पशु-पक्षियों के प्रति दया का भाव, पर्यावरण शुद्वुता के लिए वृक्षों का संरक्षण एंव संवर्धन, जल संरक्षण के लिए नीति-रीति व खाल-चाल और मानवीय भावनाओं से ओत-प्रोत सम्पूर्ण मानवता का पाठ इस हिमालयी ग्राम सस्ंकृति के आधार स्तंभ रहे हैं। इसी आध्यात्मिक भूमि से योग सूत्रों उत्पत्ति हुई तथा यहीं से योग सूत्रों ने सम्पूर्ण विश्व में विस्तार प्राप्त किया है।
वर्त्तमान समय में जबकि आसुरी प्रवृत्तियां बलवती होकर विश्व मानव की मानवीय भावनाओं का समाप्त कर देना चहाती हैं तो ऐसे समय में हिमालयी ग्राम संस्कृति की प्रासांगिकता बढ़ जाती है। राष्ट्र निमार्ण तथा विश्व कल्याण की भावना से ओत-प्रोत हिमालयी ग्राम संस्कृति में मानवीय संवेदनाओं को जाग्रत करते हुए पर्यावरण संरक्षण तथा जल संरक्षण की नीति-रीति रही है। प्रकृति संसाधनों का लालसा रहित त्याग पूर्वक उपभोग ने इस संस्कृति को श्रेष्ठता प्रधान की है। मानव की बढ़ती सुविधाभोग लालसा ने जलवायु परिवर्तन जैसे संकटों को जन्म दिया है। जबकि हिमालयी ग्राम संस्कृति में इस से निजात पाने की क्षमता विद्ययमान है। जब राष्ट्र अपना 73 वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है तो ऐसे समय में संकल्प लेने की आवश्यकता है कि हम भारतवासी अपनी मूल संस्कृति को अपना कर फिर से विश्व गुरू के पथ पर अग्रसर रहते हुए सम्पूर्ण विश्व का मार्ग दर्शन कर सकते हैं।
वर्त्तमान समय में जबकि आसुरी प्रवृत्तियां बलवती होकर विश्व मानव की मानवीय भावनाओं का समाप्त कर देना चहाती हैं तो ऐसे समय में हिमालयी ग्राम संस्कृति की प्रासांगिकता बढ़ जाती है। राष्ट्र निमार्ण तथा विश्व कल्याण की भावना से ओत-प्रोत हिमालयी ग्राम संस्कृति में मानवीय संवेदनाओं को जाग्रत करते हुए पर्यावरण संरक्षण तथा जल संरक्षण की नीति-रीति रही है। प्रकृति संसाधनों का लालसा रहित त्याग पूर्वक उपभोग ने इस संस्कृति को श्रेष्ठता प्रधान की है। मानव की बढ़ती सुविधाभोग लालसा ने जलवायु परिवर्तन जैसे संकटों को जन्म दिया है। जबकि हिमालयी ग्राम संस्कृति में इस से निजात पाने की क्षमता विद्ययमान है। जब राष्ट्र अपना 73 वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है तो ऐसे समय में संकल्प लेने की आवश्यकता है कि हम भारतवासी अपनी मूल संस्कृति को अपना कर फिर से विश्व गुरू के पथ पर अग्रसर रहते हुए सम्पूर्ण विश्व का मार्ग दर्शन कर सकते हैं।
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