खड्ड-खड्ड हुआ द्वार बेकार और बेजार
कोटद्वार। कण्वभूमि के नाम से प्रसिद्ध गढ़वाल का द्वार कोटद्वार में कभी विश्व का प्रथम विश्व विद्यालय स्थापित था। महाभारतकालीन अनेक पौराणिक दस्तावेजों तथा समय-समय पर मालन में आयी बाड़ के कारण यहां निकली कलात्मक मूर्तियां इस बात को प्रमाणित करती हैं कि यहां पर कभी वैभवशाली उच्चतम शिक्षा का मन्दिर कण्वाश्रम स्थापित था। इस क्षेत्र का वैभवशाली अतीत रहा है। अपने वैभवशाली अतीत के कारण ही यह क्षेत्र ज्ञान की भूमि सिद्व क्षेत्र कहा जाता है। समय बदला, परिस्थितियां बदली, कोटद्वार की फिजा बदली तथा जिस कोटद्वार में कभी ज्ञान की गंगा बहती थी धीरे-धीरे वह बेकार और बेजार बस्ती में तब्दील होती गयी। एक ऐसी बस्ती जिसे न अतीत का भान था, न वास्तविकता का ज्ञान।
क्यों कि यह सघन वन क्षेत्र था इसलिए अंग्रेजों ने वनों के दोहन करने के लिए रेलवे लाइन बिछाई तथा वनों को काटने के लिए ठेकेदार, मजदूर आदि को यहां पर बसाना शुरु किया। समय बदला देश स्वतंत्र हुआ खोयी हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करने का समय था दुनिया तेजी से बदल रही थी परन्तु हम कठियाबाड़ी घोड़े की तरह टाप से मिट्टी खुरचते रहे, अक्षम नेतृत्व पिछलग्गू हो कर चारण-भाट की तरह राग दरबारी गाकर खुशियों से सराबोर हुआ जा रहा था। समय गुजरा एक नई आशा की किरण लेकर उत्तराखण्ड राज्य बना परन्तु फिर वही पुरानी बीमारी उभर कर सामने आयी अक्षम नेतृत्व और चाटुकारों से घिरा हुआ शासन जो कि आपस में ही उलझता रहा। उलझन की इस आपाधापी में अठारह साल कब व्यतीत हो गये पता ही नहीं चला। कण्वाश्रम सदियों से कराह रहा है प्रदेश का नेतृत्व घोषणाओं का रस पिलाकर हर साल चलता बन जाता है। कोटद्वार नगर निगम क्यों बना इसका जबाब या तो प्रदेश नेतृत्व के पास होगा या समर्थकों के पास या फिर नगर निगम पर काबिज छोटी सरकार के पास परन्तु आमजन तो स्वयं को ठगा सा महसूस कर रहा है। लाचार आमजन आज भी कह रहा है, खड्ड-खड्ड हुआ द्वार बेकार और बेजार।
अनाज का कटोरा कहे जाने वाला गढ़वाल का भाबर क्षेत्र कभी पूरे गढ़वाल की उधरपूर्ति करता था परन्तु जब से सुविधाभोगी पलायन का चस्का चढ़ा है तब से फिजा खराब ही हुई है। पहाड़ी पहाड़ों से उतर कर तराई भाबर की ओर रुख करने लगा तो भाबर की जमीनों पर भूमाफियों की नजर लग गयी। एक ओर पहाड़ खाली होने लगे तो दूसरी ओर अव्यवस्था का आलम पसरने लगा। अव्यवस्था इधर भी है तो अव्यवस्था उधर भी है। मानवीय मूल्यों की अव्यवस्था, सभ्यता और संस्कृति की अव्यवस्था, संस्कारो की अव्यवस्था, धरोहरों की अव्यवस्था और न जाने क्या-क्या जो कि सब कुछ अव्यवस्थित करने पर उतारु है। जहां एक ओर भूमाफियाओं की कारिस्तानियों से भाबर की खेती-बाड़ी चौपट हुई , पारिवारों में विग्रह बढ़ा परिवार टूटते चले गये तो दूसरी ओर बढ़ते आवासीय प्रवाह ने रही -सही कसर पूरी कर दी। उधोगों के नाम जशोधरपुर में जहर उगलने वाली ईकाइयो स्थापित हैं जो कि नित-प्रतिदिन हजारों टन जहर फिजा में घोल रही हैं। शासन मौन है प्रशासन चाकरी में व्यस्त है। ग्रोथ सेन्टर सिगड्डी में उधोगों के नाम पर सरकारी सुविधाओं को चट करने के लिए मात्र ढांचे खड़े किये गये हैं। जनता के धन पर कब्जा कर किस प्रकार मूर्ख बनाया जाता है यह एक उदाहरण मात्र है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि यहां किस कदर मजदूरों का शोषण किया जाता है, समय-समय पर उठते विरोध के स्वर इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं परन्तु हर बार उन्हें सियासी चालों से खामोश कर दिया जाता है। परिवहन व्यवस्थाओं का बुरा हाल यहां हर रोज देखा जा सकता है। सड़कों के गड्डे तथा उपखनिज लूटने की होड़ में मालन, सुखरौं तथा खोह का सीना चीरते हुए खड्ड़े यहां स्पष्ट देखे जा सकते हैं। अवैध खनन की धींगा मस्ती अनकों बार आपसी कलह का रुप धर कर खतरनाक रुप में प्रकट हो ही जाती है। अन्तर राज्य बस अड्डा मात्र खड्डा बन कर रह गया है। नगर निगम आज भी मात्र डेढ़ किलोमीटर में ही सिमटा नजर आ रहा है। सरकारी अस्पताल के नाम पर ढ़ाचा तो खड़ा है परन्तु मात्र रेफर सेन्टर ही नजर आता है। गजब का न्याय देखये एक ओर लालढ़ाग- चिलरखाल जैसी जन-अपेक्षाओं की सड़क पर रोक है तो दूसरी ओर धूल का गुबार उडाते क्रेशर पर छूट है। वन और वन्यजीवों के साथ-साथ मानव के लिए घातक क्रेशर विरोध के बाद भी बेखौप चल रहा है। नशे का बढ़ता करोबार यह साबित करने के लिए काफी है कि स्थानीय प्रशासन कितना मुस्तैद है। भावी पीढ़ी की नशों में घुलता जहर चिन्ता का सबब है। शिक्षा के नाम पर बढ़ती दुकानदारी तथा कुकुरमुत्तों की तरह उग आये कोचिंग सेन्टर शिक्षा की बदहाल स्थिति को ही बयां कर रहे हैं। शिक्षण संस्थानों की मनमानी से उपजी अराजकता भावी पीढ़ी को कैसे संस्कारित करेगी इस पर प्रश्न चिन्ह है। कुल मिलाकर स्थिति यही बंया कर रही है खड्ड-खड्ड हुआ द्वार, बेकार और बेजार।
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