हिमालय क्षेत्र संकट में - TOURIST SANDESH

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गुरुवार, 3 जनवरी 2019

हिमालय क्षेत्र संकट में

त्यजेद्धर्म दयाहीनं विद्याहीनं गुरूं त्यजेत् ।
त्यजेत्क्राधमुखीं भार्या निःस्नेहान बान्धांवास्त्येजेत् ।

(दयाहीन धर्म को त्याग देना चाहिये। विद्याहीन गुरू को छोड़ देना चाहिए। झगड़ालू और क्रोधी स्त्री को त्याग कर देना चाहिए तथा स्नेहविहीन बन्धुबाधवों को छोड़ देना चाहिए।)
भावार्थ- ऐसे धर्म को कभी भी स्वीकार नहीं करना चाहिये जिसमें प्राणी मात्र के लिये दया का भाव न हो, ऐसे गुरू को नहीं अपनाना चाहिए जिसमें विद्वता का अभाव हो, पत्नी को रूप में ऐसी स्त्री को स्वीकार नहीं करना चाहिए जो  क्रोधी स्वभाव की तथा कलह प्रिय हो। दुःख और सुख में काम न आने वाले परिजनों से सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए।


                            हिमालय क्षेत्र संकट में



ज्ञानेन्द्र रावत
आज समूचा हिमालय क्षेत्र संकट में है। इसका प्रमुख कारण इस समूचे क्षेत्र में विकास के नाम पर अंधाधुंध बन रहे अनगिनत बांध है। दुख इस बात का है कि हमारे नीति नियंताओं ने कभी भी इसके दुष्परिणामों के बारे में सोचा तक नहीं, वे आंख बंद कर इस क्षेत्र में पनबिजली परियोजनाओं को ही विकास का प्रतीक मानकर उनको स्वीकृति दर स्वीकृति प्रदान करते रहे। बिना यह जाने समझे कि इससे पारिस्थितिकी तंत्र को कितना नुकसान उठाना पड़ेगा।
पर्यावरण प्रभावित होगा वह अलग जिसकी भरपाई असंभव होगी। उस स्थिति में जबकि दुनिया के वैज्ञानिकों ने इस बात को साबित कर दिया है कि बांध पर्यावरण के लिये भीषण खतरा है और दुनिया के दूसरे देश अपने यहां से धीरे-धीरे बांधों को कम करते जा रहे हैं। अब सवाल यह है कि यदि यह सिलसिला इसी तरह जारी रहा तो इस पूरे हिमालयी क्षेत्र का पर्यावरण कैसे बचेगा। सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि हमारी सरकार और देश के नीति नियंता, योजनाकार यह कदापि नहीं सोचते-बिचारते कि हिमालय पूरे देश का दायित्व है। वह देश का भाल है। गौरव है स्वाभिमान है, प्राण है, जीवन के सारे आधार यथा जल, वायु, मृदा सभी हिमालय की देन है। देश की तकरीब 65 फीसदी आबादी का आधार हिमालय ही है क्योंकि उसी के प्रताप से यह फलीभूत होती है और यदि उसी हिमालय की पारिस्थितिकी प्रभावित होती है तो देश प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा।
इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता, ऐसे हालात में वैज्ञानिक पर्यावरणविद् और समाजविज्ञानी सभी मानते हैं कि हिमालय की सुरक्षा के लिये सरकार को इस क्षेत्र में जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए पर्वतीय क्षेत्र के विकास के मौजूदा मॉडल को बदलना होगा। यही नहीं उसे बांधें के विस्तार की नीति भी बदलनी होगी क्योंकि बांधों से नदियां तो सूखने लगती ही है, इसके पारिस्थितिकीय खतरों से निपटना भी आसान नहीं होता। यदि एक बार नदियां सूखने लगती है तो फिर वे हमेशा के लिए खत्म हो जायेंगी, परिणामतः मानव अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा। शायद इसी खतरे को भांपते हुए देश के पूर्वराष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने पिछले वर्ष राष्ट्रपति भवन में आयोजित दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट पर पहले भारतीय पर्वतारोही दल की ऐतिहासिक जीत की स्वर्ण जयंती समारोह के अवसर पर कहा कि हिमालय को प्रदूषण से बचाना आज की सबसे बड़ी चुनौती बन गया है। इसलिए इस क्षेत्र में पारिस्थितिकी संरक्षण के लिये काम करने की महती आवश्यकता है कारण हिमालय पर पारिस्थितिकी का खतरा बढ़ गया है  इस स्थिति में हिमालय पर पर्यावरण संरक्षण के लिये काम करना सबसे बड़ी सेवा है।विडम्बना इस बात की है कि सरकार और उसके कार कुरान मानने को कतई तैयार नहीं है ऐसा लगता है कि वे विकास के फोबिया से ग्रस्त है, उन्हें न तो पर्यावरण की चिंता है और न मानव जीवन की। उनके लिये तो नदी मात्र जल की बहती धारा है इसके सिवाय कुछ नहीं। उन्होंने हिमालय से निकलने वाली नदी की उस जल धारा को केवल और केवल बिजली पैदा करने का स्रोत माना, इसी स्वार्थी प्रवृत्ति ने हिमालय का सर्वनाश किया। वह चाहे हिमालय के उत्तर पूर्व हो या पश्चिमी राज्य सभी ने पर्यावरण के सवाल को महत्ता नहीं दी, बल्कि उसे दर किनार करने में ही अपनी भलाई समझी। नतीजतन इसी सोच के चलते हिमालय के अंग-भंग होने का सिलसिला आज भी थमा नहीं है और उसकी तबाही बेरोकटोक जारी है। इसमें हिमालयी राज्यों ने अहम भूमिका निभाई है।
उत्तराखण्ड के रूप में अलग राज्य बनने के बाद इसमें और बढोत्तरी हुई इसे नकारा नहीं जा सकता। इसमें सबसे महत्वपूर्ण काम यह हुआ कि पर्यावरण का सवाल पृष्ठभूमि में धकेल दिया गया। यानी उसको पूरी तरह नजर अंदाज कर दिया गया। असलियत में वर्तमान में सरकारों का एकमात्रा लक्ष्य विकास होकर रह गया है पर्यावरण संरक्षण नाम का शब्द तो उनके शब्दकोष में अब है ही नहीं, वह तो विकास का सबसे बड़ा विरोधी हैं या यूं कहें कि वह विकास मे मार्ग में सबसे बड़ी बाधा हैं। उनकी दृष्टि में नदी का मानव जीवन और औद्योगिक हित में दोहन ही उसका सही मायने में उपयोग है अन्यथा नहीं यानी फिर तो वह निरर्थक है। उस स्थिति में जबकि यह पूरा का पूरा क्षेत्र भूकंप के लिहाज से अति संवेदनशील है। तात्पर्य यह है कि सिस्मिक जोन पांच में होने के कारण इस क्षेत्र में भूकंप का हमेशा खतरा बना ही रहता है। फिर जल विद्युत परियोजनाओं की खातिर सुरंग बनाने हेतु किये जाने वाले विस्फोट के परिणामस्वरूप वहां रहने बसने वालों के घर तो तबाह होते ही है वहां के जल स्रोत भी खतरे में पड जाते हैं।विशेषज्ञ मानते हैं कि हिमालयी क्षेत्र से निकलने वाली नदियों और वनों को यदि समय रहते नहीं बचाया गया तो इसका दुष्प्रभाव पूरे देश पर पड़े बिना नहीं रहेगा। यदि हिमालय बचेगा तभी नदियां बचेगी और तभी इस क्षेत्र में रहने बसने वाली आबादी का जीवन भी सुरक्षित रह पायेगा। असलियत यह है कि विकास के ढेरों दावों के बावजूद अभी भी हिमालय क्षेत्रा में रहने वाली तकरीबन 80 फीसदी आबादी सरकारी योजनओं के लाभ से वंचित है। उनके जीवन में आज भी सुधर नहीं आ पाया है जिसकी वजह से वह पलायन को विवश है। इतिहास गवाह है कि कोई भी अपनी जमीन छोडना नहीं चाहता। यानी अपनी जडों से अलग होना नहीं चाहता, लेकिन भूख उन्हें इसके लिये विवश कर देती है। यह सच है कि यदि विकास का लाभ उन्हें मिला होता तो वे किसी भी कीमत पर अपनी जड़ों को छोडना उससे अलग होना कतई पंसद नहीं करते देखा जाय तो हिमालय का देश से सीधे संबंध है। हिमालय से निकली नदियों की हमारे देश में हरित और श्वेत क्रांति में महती भूमिका है सभ्यता का विकास भी इन्हीं नदियों के किनारे हुआ है जिन पर हम गर्व का अनुभव करते हैं। इन्हीं नदियों पर बने बांध देश की ऊर्जा संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति को दिशा में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते हैं, लेकिन विडम्बना देखिये कि उसी हिमालय क्षेत्र के तकरीबन 40 से 50 फीसदी गांव आज भी अंधेरे में रहने को विवश है। यही नहीं तकरीबन 60-50 फीसदी देश के लोगों की प्यास बुझाने वाला हिमालय अपने ही लोगों की प्यास बुझाने में असमर्थ है। समूचे हिमालयी क्षेत्र में पीने के पानी की समस्या है। वहां की खेती तक मानसून पर निर्भर है और यदि मानसून समय पर नहीं आया तो खेती पानी के लिये तरसती है। जो हिमालय पूरे देश को प्राणवायु प्रदान करता है उसके हिस्से में मात्र वह तीन फीसदी ही आती है। जाहिर है कि वह सब यहां के वनों के कारण ही संभव हुआ है। लेकिन वह उससे भी वंचित है। गौरतलब हो कि पर्यावरण विनाश का सबसे ज्यादा प्रभाव सबसे पहले पर्यावरण से की गई छेड़छाड का सीधा असर यहीं पर होता है जिसके कारण हिमालय हिलता है। भूकंप, बाढ आदि आपदायें इसका जीता जागता प्रमाण है। उत्तराखंड की भीषण त्रासदी भी इसी का प्रतीक है ऐसा लगता है कि ये आपदायें हिमालयी क्षेत्र की नियति बन चुकी है। इसमें दोराय नहीं कि देश के पूर्वोत्तर राज्यों नेपाल और चीन से लगे सीमावर्ती इसके का समूचा हिमालयी क्षेत्र लंबे समय से विनाशकारी भूकंपों की तबाही झेलता रहा हे। दरअसल यह पूरा का पूरा हिमालयी क्षेत्र भारतीय और यूरेशियन प्लेटों के टकराहट वाले भूगर्भीय क्षेत्र में आता है। भूगर्भ में यूरेशियन प्लेटों की टक्कर से भारतीय प्लेटें हर साल 45 मिलीमीटर की दर से उसके नीचे खिसक रही है। प्लेटों में टकराहट के दौरान दवाब से बनी ऊर्जा भूकंप के रूप में बाहर निकलती है। जब लंबे समय तक ऊर्जा बाहर नहीं आती तो सीस्मिक गैस यानी भूकम्पीय अंराल पैदा हो जाता है। नतीजतन बड़े प्रभावशाली भूकंप का खतरा बढ़ जाता है। बीते दिनों नेपाल में आया विनाशकारी भूकंप इतना प्रमाण है। इसके अलावा 01 सितम्बर 1805 को गढ़वाल में चमोली और उत्तरकाशी के बीच आया भूकंप 26 अगस्त 1833 को पश्चिम काठमांडू में आया भूकंप 12 जून 1897 को शिलांग में आया भूकंप, 4 अप्रैल 1905 को कांगडा घाटी में आया भूकंप , 03 जुलाई 1930 को धुबरी में आया भूकंप, 15 जनवरी 1934 को नेपाल, बिहार सीमा पर आया भूकंप, 29 जुलाई 1947 को ऊपरी असम, अरूणाचल और तिब्बत में आया भूकंप, 15 अगस्त 1950 को असम, अरूणाचल, तिब्बत और सिक्किम भूटान में आया भूकंप 30 मई 1985 को बारामूला , श्रीनगर में आया भूकंप और 8 अक्टूबर 2005 को पाकिस्तान अध्कित कश्मीर में आये भूकंप इस बात के प्रमाण है कि हिमालय क्षेत्रा में भूगर्भीय अंतराल के चलते भूकंप आते रहते हैं जो महाविनाश के कारण बने हैं। भूकंप यह साबित करते हैं कि इस हिमालयी क्षेत्र में भूकंप का खतरा हमेशा बना ही रहता है। इसलिए अब आवश्यकता इस बात की है कि सत्ता प्रतिष्ठान इस हिमालय क्षेत्र की पारिस्थितिकी की वजहों के हल तलाशें और ऐसे विकास को तरजीह दें ताकि पर्यावरण की बुनियाद मजबूत हो और उसे व्यापक बनाने की दिशा में अनवरत प्रयास किये जाते रहे, तभी कुछ बदलाव की उम्मीद की जा सकती है।



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