गांवों की सुध ले सरकार
विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाला राज्य उत्तराखण्ड बने 18 साल व्यतीत हो चुके हैं। 90 के दशक में प्रचण्ड आंदोलन के चलते उत्तराखण्ड राज्य अस्तित्व में आया था। तत्काल समय में क्षेत्र की परिस्थितियां वास्तविक हालातों की अनविज्ञता तथा विकास के निरंतर पिछड़ने के कारण यह पहाड़ी भू-भाग राज्य प्राप्ति के लिये आंदोलित हुआ था। यह धारणा बलबती हो रही थी लखनऊ में बैठकर क्षेत्र की वास्तविकताओं का आंकलन नहीं किया जा सकता है। अतः एक ऐसी सरकार की आवश्यकता है, जो क्षेत्रवासियों के बीच रहकर क्षेत्र की परिस्थितियों का समझकर उनके अनुरूप विकास मॉडल तैयार करे ताकि क्षेत्र में क्षेत्र की परिस्थितियों तथा क्षेत्रवासियों के अनुरूप समता, समानता तथा पर्यावरण के अनुकुलन विकास किया जा सके। अब जबकि राज्य बने 18 साल हो चुके हैं तो आज भी वही चुनौतियां राज्य सरकार के सम्मुख मुंह बायें खड़ी है जो कि 18 साल पूर्व थी, बल्कि आज समस्यायें ज्यादा विकराल रूप में हमारे सामने हैं। एक ओर राज्य के संसाधनों को बड़े औद्योगिक घरानां के हवाले कर दिया गया है तो वहीं दूसरी ओर राज्य सरकार कर्ज के जाल में फंसती नजर आ रही है। वर्तमान हालात में राज्य के हालात बद से बदत्तर होते नजर आ रहे हैं। राज्य कर्मचारियों को बाजार से कर्ज लेकर घी पिलाया जा रहा है। यह कर्ज साल दर साल बढता जा रहा है। विधायकों की सुख-सुविधाओं, वेतन-भत्तों में अत्याधिक वृद्धि कर राज्य के आमजन पर आर्थिक बोझ बढाया जा चुका है। राज्य के गांवों से सरकार की बेरूखी के कारण पलायन निरंतर जारी है। खेत खलिहान बजंर होते जा रहे हैं। ग्राम संस्कृति के अस्तित्व को खतरा उत्पन्न हो चुका है या यूं कहे कि संरक्षण के अभाव में दम तोड़ती नजर आ रही है। ऐसे में विशेषज्ञ का कहना सही है कि गांवों के विकास पर ध्यान केन्द्रित करना व्यस्थागत प्रश्न है। उत्तराखण्ड के गांवों में मूलभूत सुविधाओं के विस्तार के साथ ही ढांचागत विकास रोजगार आदि से जुड़े मसलों का समाधान सरकार को करना है। यदि इसमें सरकार का तंत्र फेल हो जाता है तो फिर उत्तराखण्ड की अवधारणा ही धरी की धरी रह जायेगी इसके लिए विशेष प्रयास किये जाने चाहिए। यदि वास्तविकता का आंकलन किया जाय तो पिछले 18 सालों में पहाड़ी गांवों के हालात और भी बदरंग हुए हैं। यहां की परांपरागत संस्कृति, नगद फसलें (मंडुवा, झंगोरा, कोणी, ओगल, मरसू, गहथ आदि) दम तोड़ती नजर आ रही है तो दूसरी ओर सरकार का ध्यान सिर्फ राज्य के तीन शहरों देहरादून, हरिद्वार तथा हल्द्वानी के आसपास ही सिमटकर कर रह गया है। शहरीकरण पर ध्यान टिकाये सरकार गांवो को भूल चुकी है और शायद सरकार में बैठे कारिंदे देहरादून शहर, हरिद्वार व उद्यमसिंहनगर को ही राज्य का हिस्सा समझ बैठे हैं जहां विकास करना आवश्यक है। सरकार मे बैठे इन्हीं कारिन्दों के कारण पहाड़ों पर निरंतर असंतोष पनप रहा है पहाड़ी संस्कृति को भी खतरा उत्पन्न हो चुका है। राज्य सरकार को आइना पलायन आयोग भी दिखा चुके हैं। हलांकि पलायन आयोग भी राज्य के लिए सफेद हाथी ही साबित हुआ है सरकार गांवों के प्रति कितना गंभीर हो पाती है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा पर यह सच है कि यदि सरकार ने समय रहते गांवों की सुध न ली तो उत्तराखण्ड राज्य गंभीर संकट में फंस सकता है, जिसकी पूर्ण जिम्मेदारी केन्द्र तथा राज्य सरकार की होगी। मध्य हिमालयी क्षेत्र में बसा उत्तराखण्ड राज्य सामरिक, पर्यावरण तथा जैव विविधता की दृष्टि से भी अति महत्वपूर्ण क्षेत्र है। इस राज्य में बसे गांव की सुध लेना केंद्र तथा राज्य सरकार की नैतिक जिम्मेदारी है।
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