राज्य में परंपराये और प्रकृति दोनों प्रभावित - TOURIST SANDESH

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सोमवार, 10 दिसंबर 2018

राज्य में परंपराये और प्रकृति दोनों प्रभावित

राज्य में परंपराये और प्रकृति दोनों प्रभावित

प्रकृति जीवन का आधार है तो परंपराये सामाजिक जीवन दर्शन होती है । दोनों ही एक दूसरे के पूरक भी होती है क्योंकि दोनों ही एक दूसरे को प्रभावित करती है। समाज प्रकृति और परंपराओं का अधीन होता है। पहाड़ों की अनेक ऐसी परंपराये रही है जो प्रकृति के साथ तालमेल रखते हुए समाज को निर्देशित करती रही है और अनेकों परंपरायें देश के दूसरे क्षेत्रों को प्रभावित करती है। संसार में जो कुछ दृष्टि देखती है। वही प्रकृति है उत्तराखण्ड में प्रकृति और परंपराये बेजोड़ मानी जाती हैं। क्योंकि यह पहाड़ी प्रदेश है और भौगोलिक रूप में विषम है। प्रकृति और परंपराओं ने पहाड़ी जीवन को संजोया है। लेकिन व्यवस्थाओं ने तमाम परंपराओं और प्रकृति को विखंडित करने का ही कार्य किया है। विकास की ऐसी अंधी दौड़ की प्रकृति को छिन्न-भिन्न कर दिया। व्यवस्थाओं ने उस पहाड़ी जीवन को भी संजोये रखने का प्रयास नहीं किया जो प्रकृति के सानिध्य में रहने के आदि रहे हैं। पहाड़ों का सामाजिक जीवन प्रकृति के साथ पूर्ण तालमेल रखता है और प्रकृति भी पहाड़ी समाज के साथ रहने में खुश होती है क्योंकि प्रकृति उस समाज के सामने जितना परोसती है, वही उसमें से उतना ही प्रयोग में लाता है। जितना कि जीवित रहने के लिए आवश्यक होता है। प्रकृति का अंधाधध्ुं दोहन उस समाज के स्वभाव में नहीं होता। पहाड़ों की तमाम परंपरायें रहन-सहन, खान-पान अथवा तीज त्यौहार सभी में कुदरत के साथ तालमेल रखता है। कास्तकारी अथवा पशुपालन व कृषि पहाड़ों की मुख्य दिनचर्या रही है, लेकिन वह कभी भी प्रकृति के चक्र में व्यवधान का कारण नहीं बना है, बल्कि वहां के समाज ने प्रकृति के साथ अपने को ढाला है। प्रकृति ने पहाड़ों की तमाम उपज में भी आयुर्वेद के गुण भरपूर दिये हैं जो देश के दूसरे मैदानी क्षेत्रों में संभव ही नहीं है। आज पहाड़ों की वही परंपरा दम तोड़ती जा रही है। गांव से पशु लापता है और खेतों से कृषि गायब हो रही है। हालात यहां तक हो गये हैं कि पहाड़ी बीज तक विलुप्त हो रहे हैं और इन सब में व्यवस्था की कमी व कमजोरी दोनों का हाथ है। राज्यवासियों की अपनी व्यवस्था बन जाने के बाद पर्वतीय क्षेत्र के लोगों के कल्याण के लिए जो साधन व व्यवस्थायें मिलनी चाहिए थी, नहीं मिली। रोजगार की कमी तथा सुविधाओं के नहीं मिलने के कारण ग्रामीणों में निराशा पनपी और वे पहाड़ छोड़ने को मजबूर हो गये। राज्य सरकार अब जागती दिखती है जब पहाड़ों से सब कुछ बिगड़ चुका है। कृषि और पशुपालन पहाड़ी समाज का मुख्य व्यवसाय रहा, लेकिन यह आर्थिक उन्नति का जरिया कभी नहीं बन सका क्योंकि कृषि उपज आकाश जल पर निर्भर रही है। दूसरे कि पहाड़ी मिट्टी पथरीली है और उपज कम है फिर भी पहाड़ों के लोग उसी में खुश थे। लेकिन वन विभाग का बढ़ता दवाब और वनों से ग्रामीण हक हकूक के बंद होने तथा पशुओं के वनों में आने जाने पर प्रतिबंध ने ग्रामीणों को संकट में डाल दिया। पहाड़ों में मकान या गौशाला निर्माण में लकड़ी उपलब्ध नहीं है और लोग मकानों की मरम्मत तक नहीं कर पा रहे हैं। वही खेती वन पशुओं के अतिक्रमण के कारण प्रभावित हुर्ह। गांव में जीवन कठिन हुआ तो जो लोग सक्षम थे वे पलायन करते चले गये जो वहां रह रहे हैं वे भी दूर-दूर बिखरे खेतों की देखभाल नहीं कर पा रहे हैं और उन्होंने भी खेती-बाड़ी से हाथ खींच लिये हैं। सरकार अब जाकर पलायन रोकने की दिशा में कदम बढ़ा रही है, लेकिन पलायन हुई कृषि को वापस पटरी पर लाना अब आसान नहीं है, अब काफी देर हो चुकी है। पलायन आयोग मात्र सफेद हाथी बन कर राज्य में विचरण कर रहा है। राज्य में गठित पलायन आयोग क्या राज्य की कृषि, पम्परायें, संस्कृति,जैव विविधता तथा जल संरक्षण रीति को बचा पायेगा? या मात्र सरकारी खजाने पर बोझ बन कर रह जायेगा?  

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