आत्मसात्
सफलता के सूत्र
जिस प्रकार हीरे में चमक लाने के लिए अनेक संक्रियाओं से होकर गुजरना पड़ता है ठीक उसी प्रकार एक सफल साधक भी अनेकों प्रक्रियाओं से गुजर कर सफलता की सीढ़ियां चढ़ता है। जीवन में सफलता प्राप्त करने का कोई शार्टकट मार्ग नहीं है। नियमित अभ्यास, उत्साह पुरुषार्थ तथा मन पर संयम रख कर ही सफलता प्राप्त की जा सकती है महान विभूति, प्रकाण्ड विद्वान, ज्ञान तथा विवेक के धनी आचार्य चाणक्य ने सम्पूर्ण जीवन चरित्र और व्यक्तित्व में निखार हेतु अपने जीवन के अनुभविक आधार पर सफलता के सूत्रों का प्रतिपादन किया।आओ शिक्षाप्रद और प्ररेणाप्रद इन सूत्रों से सफलता को प्राप्त करने के लिए अपने प्रयासों को नई उड़ान देने का प्रयास करें।
सूत्र 1- जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए जीवन में सफल व्यक्तियों को अपना प्ररेणास्रोत बनायें।
गुणवदाश्रयन्निर्गुणोपि गुणी भवति।
(गुणवान के आश्रय में गुणहीन व्यक्ति भी गुणवान हो जाता है।)
एक समय की बात है गर्मी के दिनों में दक्षिण भारत के श्रृंगेरी में आदि गुरु शंकराचार्य ने अचंभित कर देने वाला एक दृश्य देखा। दो मेंढ़क एक पत्थर पर बैठे थे। तेज धूप के कारण पत्थर भी धीरे-धीरे गर्म हो रहा था। गर्मी के कारण दोनों मेंढ़क उस पत्थर को छोड़कर जाने ही वाले थे कि, अचानक एक विषैला सांप ठीक उनके पीछे आकर फन फैला कर छाया देने लगा। आश्चर्य! विषधर ने मेंढ़कों पर धावा बोलने के बजाय फन की छतरी बनायी और छाया देने लगा। मेंढ़क भी काफी समय तक उस छांव का आंनद लेते रहे। फिर कूदते-फुदकते वहां से चले गये। मेंढ़कों के चले जाने पर सांप ने भी अपना फन समेटा और अपने बिल में चला गया।
आदि शंकराचार्य को दृश्य देखने के पश्चात् यह समझने में देर न लगी कि निश्चित ही इस जगह पर श्रेष्ठ तरंगों का प्रवाह है। क्योंकि ऐसा तभी सम्भव है जब उस स्थान पर सद्गुणरूपी सकारात्मक उर्जा का समावेश हो जानकारी इकठ्ठी करने पर उन्हें मालूम हुआ कि उस पत्थर पर बैठ कर एक ब्रह्मज्ञानी ने बहुत लम्बे समय तक साधना की थी।
निःसन्देह व्यक्ति यदि गुणवान के आश्रय में रहता है तो सद्गुणों के श्रेष्ठ तरंगों के स्पर्श से दुर्विचार और दुष्प्रवृत्तियों का नाश होता है। व्यक्तित्व में सद्गुणों की चमक दिखायी देने लगती है। जो कि व्यक्ति को सफलता के मार्ग पर अग्रसर करती है।
सूत्र 2- संगठित होकर चलें।
कहा गया है कि संघे शक्ति सर्वत्रा (एकता में बल है।) संगठन-शक्ति की इसी शिक्षा से सम्बन्धित आचार्य चाणक्य का दूसरा सूत्र है-
बहूनां चैव सत्त्वानां समवाये रिपुज्जयः।
वर्षधाराधरो मेघस्वृणैरपि निवार्यते।।
(बहुत से छोटे प्राणी भी मिलकर बड़े शत्रु को परास्त कर देते हैं,तिनकों का ढेर भी वर्षा की जलधारा को रोक लेता है। स्पष्ट है कि संगठित होने पर बड़ी से बड़ी विपरीत परिस्थिति का सामना भी आसानी से किया जा सकता है।
सूत्र 3- उत्साही बनें।
उद्यमशीलता उत्साही पुरुषों में समाहित होती है जब हम किसी कार्य को उत्साह पूर्वक करते हैं तो मार्ग में आने वाली बाधाएं स्वयं ही समाप्त हो जाती हैं आचार्य चाणक्य सफल जीवन के तीसरे सूत्र में हमें यही शिक्षा देते हैं।
उत्साहवतां शत्रुवोपिवशीभवन्तिः।
(उत्साहियों के शत्रु भी वश में आ जाते हैं)
इस सूत्र का एक बहुत खूबसूरत उदाहरण दूसरे विश्व युद्ध के समय सामने आया। विस्ंटन चर्चिल इग्लैंड के प्रधानमंत्री थे। द्वितीय विश्वयुद्ध में जब अन्य देशों ने भी जर्मनी के आगे घुटने टेक दिए। तो जर्मनी के विरूद्ध इंग्लैंड अकेला ही रह गया। शक्तिशाली जर्मनी के आगे इग्लैंड की हार तय थी। परन्तु चर्चिल निरन्तर अपनी सेना में उत्साह भर रहा था। उत्साह से लबरेज इग्लैंड ने आखिरकार जर्मनी को मात दी। इस ऐतिहासिक विजय के बाद 29 अक्टूबर, 1941 को चर्चिल को एक विशाल जनसमूह को सम्बोधित करना था। खचाखच भरे हाल में सबकी निगाहें चर्चिल पर टिकी थी कि, कब वे अपनी जीत का राज खोलेंगे।
चर्चिल कुर्सी से उठे तथा पोडियम पर जाकर खड़े हो गये अपनी मुठ्ठी बाँधी और पोडियम पर हाथ की मुठ्ठी जोर से मारते हुए सिर्फ तीन शब्द कहे -Naver Give in ! (कभी प्रयास करना मत छोड़ों) फिर चार-बार Naver Give in ! (कभी नहीं! कभी नहीं!)कहते हुए बोले- चाहे कैसी भी परिस्थिति हो छोटी या बड़ी, विषम या आसान तुम कभी हार को स्वीकार मत करना बस इतना कहकर वे अपनी कुर्सी पर आकर बैठ गये।
शब्द बेशक थोड़े थे परन्तु इन शब्दों में असीम उत्साह समाया है जब लक्ष्य प्राप्ति हेतु व्यक्ति निरन्तर उत्साह बनाये रखता है तो सफलता निश्चित है। अतः उत्साह को थामकर यदि हम लक्ष्य की डगर पर बढ़ते चलेंगे तो एक दिन विजयश्री निश्चित ही हमारा स्वागत करेगी।
सूत्र 4- पुरुषार्थी बनें
हम अपने पुरुषार्थ के दम पर कुछ भी कर सकते हैं। परिश्रम करने की यदि सच्ची नीयत हो तो नियति भी अपना रुख बदलने पर मजबूर हो जाती है। परिश्रम की तो इतनी महानता है कि वह एक सम्राट को झुकने पर विवश कर सकता है परिश्रमी के लिए आचार्य चाणक्य का चौथा सूत्र यही सन्देश है-
दैवं विनति प्रयत्नं करोति यत्तद्विफलम्।
(देव (भाग्य) पुरूषार्थी का ही साथ देता है।)
संस्कृत व्याकरण के सूत्रों का प्रतिपादन करने वाले पण्डित पाणिनी को उनके गुरुजी ने बताया कि आप विद्या धारण नही कर सकते क्योंकि आप के हाथ में विद्या की रेखा नहीं है यह सुन कर पाणिनी को बड़ा दुःख हुआ वह गुरुजी का आश्रम छोड़ कर भाग गए। मार्ग में चलते-चलते उन्हें प्यास लगी, वे एक कुवें के पास बैठ गये उन्होंने देखा कि एक स्त्री कुवें से पानी खींचने का लगातार प्रयास कर रही है परन्तु हर बार किसी न किसी कारण असफल हो जाती थी बहुत देर बाद आखिरकार स्त्री को सफलता मिली तथा उसने कुवें से पानी की बाल्टी खींच ली। इसी उदाहरण से पाणिनी जीवन में पुरुषार्थ का महत्व समझ गये। उन्होंने चाकू की नोंक से अपने हाथ में विद्या की रेखा बनायी तथा पुनः अपने गुरुजी के पास वापस चले गये। पाणिनी गुरुजी से बोले देखो गुरुजी मेरे हाथ में विद्या की रेखा आ गयी है। पाणिनी की ललक तथा श्रेष्ठ चाह को देखते हुए गुरुजी भी भावविभोर हो उठे। उन्होंने पाणिनी की पीठ थपथपाई तथा पाणिनी को विधिवत् शिक्षा देना आरम्भ किया आगे चलकर अपने पुरुषार्थ के बल पर ही पाणिनी महान व्याकरणाचार्य बनें।
अतः पुरुषार्थी व्यक्ति अपने पुरुषार्थ के बल पर जीवन में सब कुछ हासिल कर सकता है भाग्य उन्हीं का हमसफर होता है जो कर्मयोगी होते हैं।
सूत्र 5- मन को संयमित रखें। आचार्य चाणक्य सफलता के पाँचवे सूत्र में कहते हैं-
न चलचित्तस्य कार्यावाप्तिः।
(मन की चंचलता कार्य में बाधक है।)
यदि जीवन में सफलता हासिल करनी है तो मन की चंचलता का परित्याग करना आवश्यक है क्योंकि, मन को संयमित रख कर ही लक्ष्य का भेदन किया जा सकता है। एक समय की बात है एक शिष्य अपने गुरुजी के पास उलहाना लेकर पहुँचा कि गुरुदेव आपने मेरे साथ पक्षपात किया है मेरे सभी साथी ज्ञान से परिपूर्ण हो नित्य उन्नति कर रहे हैं परन्तु मैं आज भी उसी कक्षा में हूं जिस कक्षा में आया था मेरे ज्ञान में कोई वृद्धि नहीं हुई क्योंकि आपने अभी तक मुझे कुछ भी ज्ञान नहीं दिया। गुरुजी ने मौन रहकर एक छोटा सा बक्सा शिष्य के हाथ में थमा दिया उसमें लिखा था कि इस बक्से को बिना छेड़-छाड़ किये नदी पार साधु महाराज को देना है क्योंकि इसमें अमूल्य सामान है इसलिए इसे खोलें नहीं। इस बात का खास ध्यान रहे कि चाहे कुछ भी हो जाए परन्तु बक्से को नहीं खोलना है।
गुरुजी की आज्ञा को शिरोधार्य कर शिष्य चलते-चलते गहन चिन्तन के साथ नदी तक पहुँच गया। परन्तु मन की तरगें लगातार हिलोरे मार रही थी पता नहीं गुरुजी ने साधु महाराज के लिए कौन सी अमूल्य वस्तु इस बक्से में रखी है उत्सुकता निरन्तर बढ़ रही थी परन्तु गुरुजी की आज्ञा का उल्लघंन भी नहीं किया जा सकता था। शिष्य साधु के आश्रम में पहुँचने ही वाला था कि सब्र का बाँध छलक उठा उसने बक्से का ढक्कन खोल ही दिया। ढक्कन खोलते ही यह क्या? उससे एक चूहा तेजी से बाहर भागा और देखते ही देखते आँखों से ओझल हो गया। अफसोस! वही हुआ जिसका डर था गुरुजी की आज्ञा का उल्लघंन। रोते सिसकते डर-डर कर साधु महाराज के पास पहुंचा उसने पूरी घटना का विवरण साधु महाराज को सुनाया तथा अपने कृत्य के लिए साधु से माफी मांगी। साधु ने उसे वापिस जाकर अपने गुरुदेव से सब कुछ सच-सच कह देने की सलाह दी। शिष्य वापस पहुँचा, तो हाथ जोड़कर अपराध बोध चुपचाप गुरुजी के सामने खड़ा हो गया। गुरुजी ने मौन तोड़ते हुए बोले क्या हुआ? चूहा भाग गया ना! शिष्य प्रश्नवाचक मुद्रा में गुरुदेव को देखता रहा। गुरु बोले- तुम्हारी दुविधा का यही उत्तर है वत्स, वह चूहा नहीं, तुम्हारा मन ही है। जो बेहद चंचल है। पलभर में ही निकल कर कहीं दूर तक पहुंच जाता है। जब तुम एक बक्से की वस्तु को चंद समय के लिए सहेज कर नहीं रख पाए। फिर मुझसे प्राप्त ज्ञान की अमूल्य निधि को जीवन भर कैसे सुरक्षित रख पाओगे? अतः धैर्य और संयम को धारण करो। लक्ष्य का संधान तभी सम्भव है जब मन स्थिर होगा तथा लक्ष्य पर नजर गढ़ाये रहोगे। यदि हम अपने जीवन में पूरी ईमानदारी, तन्मयता व निष्ठा के साथ सफलता के सूत्रों से आत्मसात् करते हैं तो हमारी सफलता दर(Success Rate) अपने चरमोत्कर्ष तक पहुँचने में देर नहीं लगेगी।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें