किलकिलेश्वर : जहां बसते हैं साक्षात् भगवान शंकर
ऐतिहासिक नगरी श्रीनगर गढ़वाल से मात्र आधा कि0मी0 की दूरी पर पतित पावनी अलकनन्दा के दक्षिण कूल पर एक सुदृढ़ पाषाण शिला पर श्री किलकिलेश्वर महादेव मंदिर विख्यात है। समुद्रतल से इसकी ऊँचाई 1,650 फुट है। टिहरी जनपद के विकासखण्ड कीर्तिनगर की चौरास पट्टी में अवस्थित यह पवित्र शिव धाम ऋषिकेश से 108 कि0मी0 कीर्तिनगर से 5 कि0मी0 तथा पौड़ी से 36 कि0मी0 की दूरी पर स्थित है। इस स्थान तक पहुंचने के लिए चारों ओर से मोटर मार्ग की सुविधा है। यह स्थान गढ़वाल क्षेत्र में स्थित श्री किलकिलेश्वर, क्यूंकालेश्वर, बिन्देश्वर (बिनसर), एकेश्वर तथा ताड़केश्वर इन पांच शैव पीठों में से एक है।
महाभारत के (वन पर्व, अध्याय-37-13) अनुसार पाशुपत अस्त्र की प्राप्ति के लिये अर्जुन ने इन्द्रकील पर्वत पर तपस्या की थी। अर्जुन के पराक्रम की परीक्षा के लिये किरात रूप धारी शिव ने इससे युद्ध किया था। युद्ध के समय शिव के किरात रूपी गणों का किलकिलाने का स्वर चारों ओर गुंजने लगा जिस कारण इस स्थान का नाम किलकिलेश्वर प्रसिद्ध हुआ। इसी स्थान पर अर्जुन ने शिवलिंग स्थापित कर पूजा-अर्चना की थी। जिस इन्द्रकील पर्वत पर अर्जुन ने तप किया था वह पर्वत किलकिलेश्वर के उत्तर पश्चिम में रानीहाट के ऊपर है। वन पर्व के अध्याय 140 में किरात और कुलिंदों के अधिपति सुबाहु द्वारा पाण्डवों के आतित्य का वर्णन है। सुबाहु की राजधानी किलकिलेश्वर के दक्षिण में अति निकट थी। अर्जुन द्वारा इन्द्रकील पर्वत पर तप करने और शिव द्वारा उसे पाशुपत अस्त्र देने की पुष्टि शिवपुराण (शिवपुराण शतरूद्र्र संहिता 37/65 और 40/55) में भी की गई है। केदारखण्ड के अनुसार यहां पाण्डुपुत्र अर्जुन ने तप करके महेश्वर देव से पाशुपत अस्त्र प्राप्त किया।
यत्रार्जुनः पाण्डुपुत्रस्तपस्तेपे मुनीश्वराः
शस्त्रं पाशुपतं नाम प्राप देवान्महेश्वरात्
(केदारखण्ड 176/13)
इतिहास पर दृष्टि दौड़ायें तो बाढ़, भूकम्प व भूस्खलन ने यहां के मंदिरों को कई बार ध्वस्त किया है।कई मंदिरों की मूर्तियां बाढ़ में बही है या भूस्खलन ने यहां के मंदिरों को कई बार ध्वस्त किया है। कई मंदिरों की मूर्तियां बाढ़ में बही हैं या भूस्खलन की भेंट चढ़ी हैं। रोहिला आक्रमण (1743-44 ई0) के दौरान कुमाऊँ-गढ़वाल के कई मंदिरों को ध्वस्त कर कई बहुमूल्य मूर्तियां को नष्ट भी किया गया। अतः इन प्राचीन मंदिरों का स्वरूप क्या रहा होगा यह कह पाना कठिन है। किलकिलेश्वर मंदिर का भी अति प्राचीन काल में क्या स्वरूप था साक्ष्यों के अभाव में यह कह पाना कठिन है। प्राप्त अभिलेखों के अनुसार सन् 1804 ई0 में गढ़वाल पर गोरखाओं के शासनकाल के दौरान उन्होंने किलकिलेश्वर मंदिर की पूजा व्यवस्था से सीधे गर्भगृह में प्रवेश होता है। नागर शिखर शैली के इस मंदिर में सभामंडप नहीं है। गर्भग्रह में प्रतिष्ठित मुख्य शिवलिंग को काष्ठ प्रकोष्ठ के भीतर स्थान दिया गया है। गर्भग्रह में ही विघ्न विनाशक गणेश (पाषाण प्रतिमा) गोरखनाथ की प्रतिमायें हैं। उत्तरी द्वार के निकट पाषाण निर्मित नंदी की तीन मूर्तियां तथा गर्भग्रह में अब तक के महन्तों की चरण पादुकायें हैं। मंदिर के बाहर उत्तरी द्वार पर एक व्याघ्र (शार्दूल) की पाषाण प्रतिमा है।यहीं भक्तों के द्वारा चढ़ाये हुये नन्दीगण भी हैं। उक्त् सभी कलाकृतियों का 5 जुलाई 1978 को पुरावशेष एवं बहुमूल्य कलाकृति रजिस्ट्रीकरण के अन्तर्गत पंजीकरण भी हो चुका है।
इस परिसर में भैरव की मूर्ति और लिंग दोनों रूपों में स्थापना है।यही लौह त्रिशूल है। मंदिर के पश्चिम द्वार के सामने एक हवनकुण्ड है एक साल से प्रतिदिन यहां हवन सम्पन्न हो रहा है। इसी परिसर में एक वट वृक्ष भी है। मंदिर परिसर के अन्य जीर्णोद्धार के लिये अनेक भक्तगणों ने भी स्वेच्छा से इस मंदिर में धनराशि प्रदान की है। जिसमें 5,000 से 500 रूपये तक प्रदान करने वाले 89 भक्तों (दानदाताओं) की सूची का श्री धर्मानन्द उनियाल ‘पथिक’ जी की पुस्तक में उल्लेख है। अन्य उन व्यक्तियें का भी इसमें उल्लेख है जिन्होंने सामग्री (ईट, सीमेन्ट आदि) या श्रमदान देकर इस धार्मिक स्थल की खूबसूरती को समृद्ध किया है।
इस मंदिर में सात्विक व विधि-विधानपूर्वक पूजा सम्पन्न होती है। पूजा के दौरान नित्य सुबह-शाम घण्टे, घडियाली और पारम्परिक वाद्य यन्त्रों (नगाड़े आदि) के साथ आरती वन्दना होती है। यह मंदिर वर्ष पर्यन्त दर्शनार्थियों के लिये खुला रहता है। सावन के महीने और शिवरात्रि पर्व के दौरान यहां भक्तों की संख्या अधिक रहती है। यात्रियों की सुविधा के लिये धर्मशाला का भी यहां निर्माण हुआ है।
बताया जाता है कि मनोनीत समिति के अध्यक्ष एवम् उप जिलाधिकारी (एस0डी0एम) श्री नत्थी सिंह तोमर के विशेष प्रयासों से पुरानी धर्मशाला के स्थान पर तीन कमरों वाली नई धर्मशाला का निर्माण हुआ जिसमें एक अतिथि गृह, एक कार्यालय और एक हॉल है) इसके तुरन्त बाद सत्संग भवन और महन्त जी के गद्दी स्थान का निर्माण भी हुआ।
इस निर्माण कार्य के लिये धन और अन्य सामग्री एकत्रित करने में एस0डी0एम0 श्री तोमर और समिति के सचिव श्री भुवनेश्वर प्रसाद नौटियाल की मुख्य भूमिका रही। धर्मशाला में रात्रि निवास की व्यवस्था है। मंदिर के बाहर एक छोटा बाजार भी है। जहां चाय-पानी, भोजन के साथ ही दैनिक उपयोग की चीजें भी उपलब्ध हो जाती है। इस मंदिर परिसर में पवित्रता एवम् सदाचार का विशेष ध्यान रखा जाता है।
निकट के अन्य तीर्थ और मंदिर
अलकनंदा नदी के पार जनपद पौड़ी के अन्तर्गत शामिल कलिया सौड में धारी देवी, श्रीकोट गंगानाली में चन्द्रेश्वर महादेव, डैम कॉलोनी के निकट धसिया महादेव, खोला गांव में अष्टावक्र, सुमाड़ी गांव में लक्ष्मी नारायण और गौरा देवी, श्रीनगर में कमलेश्वर महादेव, कीर्तिनगर के सामने विल्वकेदार और विल्वकेदार के ऊपर मंजुघोष (जहां कांडा मेला आयोजित होता है) आज भी सुपूजित है। इसी घाटी (अलकनंदा घाटी) में गढ़वाल का प्राचीन ऐतिहासिक शहर श्रीनगर, जो किलकिलेश्वर से मात्र पांच कि0मी0 दूर है जहां अनेक प्राचीन व अर्वाचीन मन्दिर अपने वास्तुशिल्प और ऐतिहासिक धरोहर के रूप में प्रसिद्ध है।
अलकनन्दा के निकट ही श्रृंगीवाडा, महेन्द्राचल पर्वत पर गुरूपाणिकनाथ, रानीहाट गांव में पुरातात्विक महत्व का राजराजेश्वरी मंदिर, कीर्तिनगर के निकट ढुंडिप्रयाग और ढुंडेश्वर महादेव और कीर्तिनगर-ऋषिकेश मोटर मार्ग पर लछमोली गांव में लक्षमौलेश्वर शिव का मंदिर विद्यमान है।
इस प्राचीन मंदिर का अद्वैतानन्द महाराज ने जीर्णोद्धार कराकर यहां चहल-पहल पैदा कर दी है। किलकिलेश्वर से 25 किमी0 दूर बड़यारगढ में एक अति प्राचीन गुफा भी प्रकाश में आई है।
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