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सोमवार, 15 अक्टूबर 2018

 ‘‘बारानाजा’’ फसल पद्धति को अपनाने से समृद्ध होगी राज्य की कृषि

                                                सुभाष चन्द्र नौटियाल

रासायनिक उर्वरकों के बेतहाशा उपयोग से खेती की जो दुर्दशा हुई है वह किसी से छिपी नहीं है। रासायनिक खादों के अत्यधिक उपयोग के कारण जल, जमीन तथा तैयार फसल जहरीली हो चुकी है जो कि अनेकों रोगों का कारण बन रही है। भले ही रासायनिक खादों के उपयोग से फसल पैदावार में बढ़ोत्तरी हुई हो परन्तु गुणवत्ता की दृष्टि से फसल बेकार साबित हुई है। जहरीले अन्न उत्पादन के कारण उपभोग करने वालों पर इसका बुरा असर पड़ा है। इस प्रकार के अन्न से मानव शरीर निरन्तर विकार ग्रस्त हो रहा है।  इसलिए  वैज्ञानिक पुनः जैविक खेती की ओर लौटने की सलाह दे रहे हैं। मूल रूप से उत्तराखण्ड की परम्परागत खेती पूर्ण रूप से जैविक पद्धति पर आधारित थी। आज विशेषज्ञ जब खेती में बदलाव के लिए जोर दे रहें हैं तो उन्हें उत्तराखण्ड की परम्परागत ‘‘बारानाजा’’ फसल विकल्प के रूप में दिखायी देता है। ज्ञात हो कि उत्तराखण्ड  में सदियों से बारानाजा खेती की पद्धति  रही है। परन्तु जैसे-जैसे सरकारी कृषि विभाग में बैठे वैज्ञानिकों ने रासायनिक खादों के उपयोग को बढ़ाने की सलाह पूरे देश में दी वैसे-वैसे देश की खेती के साथ-साथ उत्तराखण्ड की परम्परागत खेती भी अपने मूल स्वरूप से विकृत होती चली गयी। आज बढ़ते पलायन के कारण पहाड़ों में परम्परागत खेती लगभग गायब हो चली है। देश में कृषि की वर्तमान स्थिति को देखते हुए उत्तराखण्ड में सदियां से अपनाई जाने वाली परम्परागत ‘‘बारानाजा ’’ कृषि पद्धति को बढ़ावा दिये जाने की आवश्यकता है। वास्तव में राज्य सरकार ने इन्वेस्टर समिट के नाम पर जो करोड़ रूपये बर्बाद किये हैं यदि राज्य सरकार चाहती तो इस पैसे का सदुपयोग कर राज्य की कृषि में होने वाली परम्परागत कृषि पद्धति पर ध्यान देकर राज्य की आर्थिकी में बढ़ावा किया जा सकता था। परन्तु कमजोर विजन तथा अज्ञानता के कारण राज्य सरकार देश-विदेशों में निवेश के लिए  भटक रही है। जबकि ऐसा निवेश ना सिर्फ राज्य की पारिस्थितिकी तंत्र, स्थानीय जैव विविधता को खतरा उत्पन्न हो रहा है बल्कि यहां का शुद्ध वातावरण (हवा,पानी,जमीन) भी जहरीला हो रहा है। पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले ऐसे निवेश से आखिरकार राज्य का क्या भला होने वाला है?  वास्तव में उत्तराखण्ड की बारानाजा फसलें ना सिर्फ राज्य की आर्थिकी के उच्चतर प्रतिबिंबित हो सकती हैं बल्कि देश के अन्य राज्यों के लिए भी उदाहरण साबित हो सकती हैं।उत्तराखण्ड में बारानाजा पौष्टिकता के साथ-साथ औषधीय गुणों से भी लबरेज हैं। 
कृषि पैदावार को बढ़ाने के लिए देश में जिस तरह से रासायनिक उर्वरकों का बेहतशा प्रयोग किया गया है उससे भूमि की उर्वरा शक्ति क्षीण हुई है तथा उगने वाली फसलों पर भी विभिन्न रोगों के तौर पर सामने आ रहा है। ऐसी स्थिति में उत्तराखण्ड की बारानाजा पद्धति की सार्थकता बहुत अधिक बढ़ जाती है। उत्तराखण्ड की बारानाजा पद्धति में वह सब उपलब्ध है जिसकी  वर्तमान में आवश्यकता है। भले ही पहाड़ी क्षेत्रों में चलन में मौजूद बारानाजा पद्धति से पैदावार कम  हो परन्तु अनाज की गुणवत्ता, पौष्टिकता से भरपूर लबरेज में इसका कोई सानी नहीं है। कुछ  सामाजिक संस्थाओं ने इस कृषि पद्धति को बचाने की मुहिम छेड़ी है जो निरन्तर इस बात पर जो दे रहें है कि बारानाजा उगाओ-जीवन बचाओ। वास्तव में यहां की सदियों पुरानी बारानाजा कृषि पद्धति स्थानीय जैव विविधता के अनुकुलन है। यह पद्धति कम स्थान में अधिक तथा विविधता पूर्ण पैदावार लेने में सक्षम है। बारानाजा की फसलों में सूखा और कीट-व्याधि से लड़ने की जबरदस्त क्षमता देखी गयी है। जो वर्तमान में बिगड़े मौसम चक्र में भी एक बेहतर विकल्प के रूप में भी हो सकता है। पूर्व में भी पहाड़ों में अकाल-दुकाल में भी बारानाजा बचा रहा। आज जरूरत इस बात की है कि पुनः इस पद्धति को अधिक से अधिक बढ़ावा दिया जाये। ताकि प्राकृतिक संतुलन के साथ-साथ गुणवत्ता पूर्ण पौष्टिक अनाज पर सभी का हक हो। 
क्या है बारानाजा पद्धति? 
विषम भौगोलिक वाले राज्य उत्तराखण्ड की जलवायु और भौगोलिक परिस्थितियों को देखते हुए इस क्षेत्र में बारानाजा कृषि पद्धति की सदियां से सशक्त व्यवस्था रही है। पहाडी़ क्षेत्रों में वर्ष में रवि, धान और जायद (मंडवा) की फसल विविधतापूर्ण रही हैं। धान की फसल के साथ झंगोरा-कोंणी बोया जाता है। जबकि चिंणा, फाफर, मडंवा(कौदा), ज्वार-बाजरा, तिल, भंगजीरा, गहथ, रयांस, काले भट्ट, सोयाबीन , हरे भट्ट, लोभिया, उड़द, राजमा, कुट्टू (ओगाल), सण, मरसू (रामदाना), मक्का, तोर आदि इसी प्रकार रवि की फसल के साथ गेंहू, मटर, सरसों (र ाडा), चना, मसूर, जौ, जई आदि की मिश्रित खेती की  परम्परा रही है।  दूसरे शब्दों में कहें तो बारानाजा मिश्रित  खेती का श्रेष्ठतम उदाहरण है। उत्तराखण्ड की परम्परागत बारानाजा कृषि पद्धति पूर्ण रूप से जैविक है। उससे भी खास बात यह है कि इस फसल पद्धति में भूमि की उर्वरक शक्ति तथा भूमि की नमी को बनाये रखे के लिए सक्षम कृषि पद्धति है। आवश्यकता है उत्तराखण्ड की बारानाजा कृषि पद्धति को समझने की तथा वैज्ञानिक आधार के साथ उसका तारतम्य बैठाने की ताकि इस कृषि पद्धति के अनुसार कृषि की जा सके। यदि यह सम्भव हो पाया तो हम विश्व में खेती का श्रेष्ठतम उदाहरण प्रस्तुत कर सकते हैं। राज्य सरकार को भटकाव की स्थिति में न रहते हुए इस कृषि पद्धति को समझने की तथा अपनाने की आवश्यकता है। ताकि हम जैविक खेती में सिक्किम से भी अधिक बेहतर उदाहरण  प्रस्तुत कर सकें। 


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