स्वस्तिक से करें आत्मसात्
मानव में सकारात्मक ऊर्जा का स्तर बढाने तथा सृजनात्मक शाक्तियों को जागृत करने के लिए कुछ विशेष प्रकार की ज्यामिति संरचनाएं विशेष रूप से सहायक सिद्ध होती है। ऐसी रेखागणितीय संरचनाओं से ना सिर्फ नकारात्मक ऊर्जा समाप्त होती है बल्कि निरन्तरता के साथ सकारात्मक ऊर्जा का संचार भी होता है इसी लिए वैदिक संस्कृति सहित विश्व की सभी संस्कृतियों में कुछ विशेष प्रकार की ज्यामिति आकृतियों को घर-आंगन, धार्मिक स्थलों, शादी-विवाह, उत्सव एवं पर्वों तथा सांस्कृतिक स्थलों में उकेरने की परंपरा आदिकाल से चली आ रही है। इन सभी ज्यामिति आकृतियों में सबसे अधिक प्रचलित स्वस्तिक चिन्ह है। स्वस्तिक चिन्ह के प्रभाव को केवल वैदिक संस्कृति में ही स्वीकार नहीं किया गया अपितु विश्व की सभी संस्कृतियों में इसे श्रेष्ठम् स्थान हासिल है। स्वस्तिक को सूर्य का प्रतीक माना जाता है। वास्तव में जीवन और जीवंत चेतना की विशेषताओं के प्रति आगाद श्रद्धा व्यक्त करने का नाम ही स्वस्तिक है। अनादि, अनन्तकाल से चली आ रही स्वस्तिक की यह महायात्रा अखिल ब्रह्माण्ड के लिए परम कल्याणकारी है। समस्त विश्व में शुभ, मंगल और कल्याण के भाव पूरित स्वस्तिक किसी-न-किसी रूप में मौजूद है। प्रत्येक शुभ कार्यों में शुभत्व को बढ़ाने के लिए स्वस्तिक का बड़ा महत्व है। जिस प्रकार समस्त विश्व में सूर्य ऊर्जा और प्रकाश का एक मात्र कारक है ठीक उसी प्रकार सूर्य का प्रतीक स्वस्तिक मानव संस्कृति में सृजनात्मक शक्तियों का कारक माना जाता है।ऋग्वेद में स्वस्तिक की उपमा चार भुजाओं चार दिशाओं के रूप में की गयी है। पुराणों में स्वस्ति को भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र की संज्ञा भी दी गयी है। स्वस्तिक में शक्ति, प्रगति, प्रेरणा तथा स्थान की सुंदरता का समन्वय है। स्वस्तिक में चतुर्दिक समृद्धि की भावना समाहित है। लोक कल्याण तथा शुभत्व को बढ़ाने के लिए स्वस्तिक ऊर्जामय होकर क्रियाशील होता है। वैदिक संस्कृति में प्रथम पूज्य गणेश जी की संगति भी स्वस्तिक चिन्ह के साथ बैठती है पुराणों में भगवान विष्णु के चार भुजाओं की संगति भी स्वस्तिक के साथ बिठाई गयी है। ऊं को स्वस्तिक के रूप में लिखा जा सकता है। ओम और स्वस्तिक एक दूसरे के प्रायः हैं। वास्तव में ओम व स्वस्तिक मानव सभ्यता के प्राण है।
स्वस्तिक में संम्पूर्ण विश्व के कल्याण की भावना अन्तर्निहित है। वैदिक संस्कृति में कोई भी श्रेष्ठ कार्य करने से पूर्व मंगलाचरण लिखने की परम्परा रही है। परन्तु मंगलाचरण लिखना सभी जनो के लिए सम्भव नहीं था इसी लिए हमारे आदि ऋषियों ने स्वस्तिक चिन्ह की परिकल्पना की, ताकि सभी मंगल कार्य आनन्द दायक संपन्न हो सके। मानक दर्शन के अनुसार स्वस्तिक की आकृति दो प्रकार की होती है-दक्षिणावर्त और वामावर्त। पहली आकृति जिसमें रेखाएं आगे की ओर इंगित करती हुई दहिनी ओर (दक्षिणोन्मुख) हैं। इसे दक्षिणावर्त स्वस्तिक (घडी की सूई की चलने की दिशा में) कहते है। दूसरी आकृति में रेखाएं पीछे की ओर घड़ी के सुई के चलने के विपरीत बाईं ओर मुडती हैं। इसे वामावर्त (वामोन्मुख) स्वस्तिक कहते हैं। दक्षिणावर्त स्वस्तिक शुभता का प्रतीक एवं सौभाग्यवर्द्धक है। जबकि वामावर्त स्वस्तिक अमांगलिक तथा नकारात्मक का प्रतीक है। ओम और स्वस्तिक का सामूहिक प्रयोग नकारात्मक ऊर्जा को शीघ्रता से दूर करता है। ओम और स्वस्तिक से सकारात्मक ऊर्जा का संचार शीघ्रता से होता है। बिग्न-बाधाओं का नाश करने में ओम और स्वास्तिक विशेष रूप से उपयोगी है।
विज्ञान भी अब ओम और स्वस्तिक की महत्ता को स्वीकार करने लगा है। विभिन्न धार्मिक स्थलों पर ऊर्जा का स्तर काफी ऊंचा मापा गया है इस कारण इन स्थलों पर मनः शान्ति का अनुभव होता है। वास्तव में समस्याआें तथा कष्टों से मुक्ति पाने के लिए मन में जब सकारात्मक ऊर्जा का संचार होने लगता है तो हमें जीवन में स्वयं ही मुश्किलों का हल मिलने लगता है। इसी कारण लोग धार्मिक यात्राएं करते हैं। हमारे घरों, मंदिरों तथा पूजा स्थलों में स्वस्तिक के अलावा अन्य मांगलिक चिन्हों में भी इसी प्रकार की सकारात्मक ऊर्जा समाई हुई है।जीवन में सकारात्मक ऊर्जा को बनाये रखने के लिए स्वस्तिक से आत्मसात् करना चाहिए।
-सुभाष चन्द्र नौटियाल
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