मालु-सालु संस्कृति को अपनाने से बचेगा हिमालय - TOURIST SANDESH

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शनिवार, 8 सितंबर 2018

मालु-सालु संस्कृति को अपनाने से बचेगा हिमालय

मालु-सालु संस्कृति को अपनाने से बचेगा हिमालय
(9 सितम्बर हिमालय दिवस पर विशेष)
-सुभाष चन्द्र नौटियाल
उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में समुद्र तक फैला भू-भाग भारतवर्ष के नाम से विख्यात है। इसे महाकाव्य तथा पुराणों में ‘भारतवर्ष ’ या ‘भरत का देश’ कहा जाता है। यहाँ के निवासियों को भारतीय तथा यहाँ की संस्कृति, परम्पराओं, बोली भाषा सांस्कृतिक रीति-रिवाजों को ‘भारती’ के नाम से जाना जाता है। यूनानियों ने भारत को इंडिया तथा मध्यकालीन मुस्लिम इतिहासकारों ने हिन्द थवा हिन्दुस्तान के नाम से सम्बोधित किया है। भारत वर्ष का भाल हिमालय सदैव अध्यात्म का केन्द्र ही नहीं अपितु विश्व में पारिस्थितिकी संतुलन और सम्पूर्ण सृष्टि संचालन के लिए मार्ग दर्शक के रूप में रहा है। इस समय मानवीय भूलों, मानव के लालच तथा मानव द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का निर्दयतापूर्वक उपभोग के कारण समस्त भूमण्डल में असन्तुलन की स्थिति उत्पन्न हो चुकी है। ऐसी स्थिति में जबकि मानव जीवन समस्त प्राणी मात्र के लिए जीवन के अस्तित्व का खतरा उत्पन्न हो चुका है तो एक बार पुनः समस्त मानव की दृष्टि हिमालय की ओर हैं। दरअसल हिमालय का बचाने का अर्थ समस्त मानवीय संस्कृतियों को बचाना भी है। अपसंस्कृति के अनुराग में डूबे आज के मानव के समझ में देर से ही परन्तु अब समझ आने लगा है कि, यदि हिमालय बचेगा तो मानव जीवन बचेगा। जब-जब पृथ्वी पर संकट उत्पन्न हुआ है तब-तब हिमालय ने सुरक्षा का ढाल बनकर मानव जीवन को अमृत्व प्रदान किया है। हिमालयी सरोकारो से आत्मसात् करने वाली मध्य हिमालयी क्षेत्र उत्तराखण्ड की संस्कृति जिसे की मालु-सालु संस्कृति के रूप में भी जाना जाता है। वास्तव हिमालय को बचाने के  लिए इस संस्कृति में कारगर उपाय उपलब्ध हैं यदि आज का वैश्विक मानव मालु-सालु संस्कृति के इन कारगर उपायों से आत्मसात् करता है तो निश्चित रूप से हिमालय सुरक्षित रहेगा तथा साथ ही विश्व की समस्त मानव संस्कृतियां भी सुरक्षित रह पायेंगी।
विश्व बंधुत्व तथा मानवीय कल्याण के लिए इसमें आसान उपाय बताये गये हैं। विश्व में पर्यावरण विशेषज्ञ इस समय पृथ्वी पर हो रहे जलवायु परिवर्तन तथा पृथ्वी के बढ़ते तापमान से चिन्तित है। परन्तु यदि इस संस्कृति के कारगर उपायों का  अपनाया जाता है तो निश्चित रूप से हिमालय सहित समस्त पृथ्वी के जीवधारियों को अमृत्व  प्रदान होगा। मालु-सालु संस्कृति ‘अधिकतम संरक्षण, न्यूनतम दोहन’ के सिद्धांत पर कार्य करती है। यह संस्कृति यजुर्वेद के इस श्लोक से पूर्णरूप से आत्मसात् करती है-
तेन त्यक्तेन  भुञ्जीथाः मा गृधः (यजु।।40/1।।)
(यज्ञरूप प्रभु द्वारा छोड़े गये पदार्थो का उपभोग करो, अधिक का लालच मत करो।)
मालु-सालु संस्कृति इस श्लोक का अक्षर-स-अक्षर पालन करती है। इसीलिए यह प्रकृति सम्मत होते हुए देव संस्कृति कहलायी है। इस संस्कृति का मूल मंत्र स्थानीय जैव विविधता का संरक्षण एवं सह अस्तित्व की भावना है। जल संरक्षण, पर्यावरण संरक्षण, जीवन में श्रमदान का महत्व, आपसी सामंजस्य, सह अस्तित्व की भावना तथा मानवीयता की श्रेष्ठता से लबरेज आत्मियता इस संस्कृति के मूल अवयव रहें हैं। आज जब कि पारिस्थितिकी संतुलन के लिए हिमालय को बचाने की आवश्यकता विश्व के मानव द्वारा महसूस की जाने लगी है तो आवश्यक है कि वह पथ निर्धारित करना होगा जिससे हिमालय सुरक्षित रह सके। इसके लिए विश्व के मानव को प्रकृति से आत्मसात् करने की आवश्यकता है। मालु-सालु संस्कृति में प्रकृति से जुड़ने की अद्भुत कला समाहित है। यदि विश्व का मानव, मानव संस्कृतियों को संरक्षित रखने के लिए हिमालय को बचाने के लिए उठ खड़ा हुआ है तो मालु-सालु संस्कृति से आत्मसात् करने की आवश्यकता है तभी हिमालय सुरक्षित रह पायेगा। 

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