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बुधवार, 12 सितंबर 2018

अभियंता दिवस (Engineer's Day)
                                                           -शिवानी पाण्डे
मानव सदैव जिज्ञासु रहा है मानव की जिज्ञासाएं जब सृजनात्मक शक्तियों के रूप में जागृत होकर कुछ नया करने के लिए प्रेरित करती है तो वहां से एक अभियंता का जन्म होता है। मानव जीवन को सरल व सुगम बनाने के लिए जिन अविष्कारों की आवश्यकता है अभियंता अपने प्रयासों द्वारा उसकी पूर्ति करता है। एक कुशल अभियंता सदैव समाज हितैषी होता है और समाज हित में कुछ नया करने के लिए अपनी सृजनात्मक शक्तियों को जागृत करता है। अखिल ब्रह्माण्ड के सर्वप्रथम अभियंता ब्रह्मा जी थे जिन्होंने सृष्टि की रचना की। ब्रह्मा जी के शिष्य भगवान श्री कृष्ण की द्वारिका नगरी को बसाने वाले भगवान विश्वकर्मा थे। भगवान विश्वकर्मा विश्व के पहले अभियंता के रूप में जाने जाते है। जीवन को आधुनिक से आधुनिकतम करने के लिए अभियंताओं का बहुत बड़ी भूमिका रही है। 
विश्व में जितने भी अविष्कार हुए हैं, आग, पहिया से लेकर आधुनिकतम कम्प्यूटर तक किसी ना किसी अभियंता की देन है। यदि भारत के संबंध में बात की जाये तो यहां कई अभियंताओं ने अपने कार्यों से पूरे विश्व में अपना लोहा मनवाया है इन्हीं में से एक थे। मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया जिनके जन्मदिवस को भारत में अभियंता दिवस  (Engineer's Day)
मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया भारत के महान इंजीनियरों में से एक थे जिन्होने आधुनिक भारत की रचना की व भारत को नया रूप दिया। उनका जन्म 15 सितम्बर 1860 को मैसूर रियासत में हुआ था। जो आज कर्नाटक राज्य बन गया है। इनके पिता श्रीनिवास शास्त्री संस्कृत और आयुर्वेदिक चिकित्सक थे। इनकी माता बेंकचाम्मा एक धार्मिक महिला थी। जब विश्वेश्वरैया 15 साल के थे, तब उनके पिता का देहांत हो गया। चिकबल्लापुर से इन्होंने प्राईमरी स्कूल की पढ़ाई पूरी की और आगे की पढ़ाई के लिए बैंगलोर चले गये। 1881 में विश्वेश्वरैया ने मद्रास विश्वविद्यालय के सेंट्रल कॉलेज, बैंगलोर से बीए की परीक्षा पास की। इसके बाद मैसूर सरकार से उन्हें सहायता मिली और उन्होंने पूना के सांइस कॉलेज में इंजीनियरिंग के लिए दाखिला लिया। 1883 में एलसीई और एफसीई एग्जाम में पहला स्थान आया। (ये परीक्षा आज के समय में बीई की तरह है।)
इंजीनियरिंग की परीक्षा पास करने के बाद विश्वेश्वरैया को बॉम्बे सरकार की तरफ से जॉब का ऑफर आया और उन्हें नासिक में असिस्टेंट इंजीनियर के तौर पर काम मिला। एक इंजीनियर के तौर पर उन्होंने बहुत से अद्भुत काम किये। उन्होंने सिंधु नदी से पानी की सप्लाई सुक्कर गांव तक करवाई साथ ही एक नई सिंचाई प्रणाली ‘‘ब्लॉक सिस्टम’’ को शुरू किया। इन्होंने बांध  में इस्पात के दरवाजे लगवाये। ताकि बांध के पानी के प्रभाव को आसानी से रोका जा सके। उन्होंने  मैसूर में कृष्णराज सागर बांध बनाने मे महत्वपूर्ण भूमिका अदा ही है। 1903 में पूणे के खड़कवाला जलाशय में बांध का निर्माण भी विश्वेश्वरैया द्वारा करवाया गया, इसके दरवाजे ऐसे थे जो बाढ़ के दबाव को भी झेल सकते थे। इस बांध की सफलता के बाद ग्वालियर में तिगरा बांध एवं कर्नाटक के मैसूर में कृष्णा राजा सागर का निर्माण किया गया। कावेरी नदी पर बना कृष्णा राज सागर को विश्वेश्वरैया ने अपनी देख-रेख में बनवाया था। इसके बाद इस बांध का उद्घाटन हुआ। उस समय यह पूरे एशिया महाद्वीप का सबसे बड़ा जलाशय था। 
1906-07 में भारत सरकार ने उन्हें जल आपूर्ति और जल निकासी व्यवस्था की पढ़ाई के लिए अदेन (यमन) भेजा। उनके द्वारा बनाये गये प्रोजेक्ट को अदेन में सफलतापूर्वक कार्यान्वित किया गया। हैदराबाद सिटी को बनाने का पूरा श्रेय इंजीनियर विश्वेश्वरैया को ही जाता है। उन्होंने वहां एक बाढ़ सुरक्षा प्रणाली तैयार की, जिसके बाद समस्त भारत में उनका नाम हो गया। उन्होंने समुंद्र कटाव से विशाखापट्नम बंदरगाह की रक्षा के लिए एक प्रणाली विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 
विश्वश्वरैया को मॉर्टन मैसूर स्टेट का पिता कहा जाता था। चीफ इंजीनियर और दीवान के पद पर कार्य करते हुए विश्वेश्वरैया ने मैसूर राज्य को जिन संस्थाओं व योजनाओं का उपहार दिया वे हैं-
मैसूर बैक (1913), मलनाद सुधार योजना (1914), इंजीनियर कॉलेज बंगलौरू (1916), मैसूर विश्विद्यालय और ऊर्जा बनाने के लिए पावर स्टेशन (1918)।
जीवन की एक सदी पूरी करने के बाद भी यह महान व्यक्ति पूरी तरह स्वस्थ थे। वह सुबह शाम सैर पर जाते। वह सदा समय के पाबंद रहे और उसमें जीने का उत्साह सदा बना रहा। वह अपने विचारों में पूर्णरूप से स्वतंत्र थ। जब उन्हें सन् 1955 में भारत रत्न प्रदान किया गया, तो उन्होंने पंडित नेहरू को लिखा- ‘अगर आप यह सोचते हैं कि इस उपाधि से विभूषित करने से र्मैं आपकी सरकार की प्रशंसा करूंगा। तो आपको निराशा ही होगी। मै सत्य ही तह तक पहुचने वाला व्यक्ति हूं।‘
नेहरू ने उनकी बात की प्रशंसा की, उन्होंने विश्वेश्वरैया को आश्वासन दिया कि राष्ट्रीय घटनाओं व विकास पर टिप्पणी करने के लिए वह स्वतंत्र हैं। यह सम्मान उन्हें उनके कार्यों के लिए दिया गया है। इसका मतलब उन्हें चुप कराना नहीं है। 101 वर्ष की आयु में भी वह काम करते रहें। उन्होंने कहा ‘‘जंग लग जाने से बेहतर है, काम करते रहना‘‘। जब तक वह कार्य कर सकते थे, करते रहे। 14 अप्रैल सन् 1962 में भारत ने अपना एक अमूल्य रत्न खो दिया तथा आने वाले अभियंताओं को एक जीने की एक नई राह बता गया। 

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