संस्कृति को प्रकृति से जोड़ने की आवश्यकता - TOURIST SANDESH

रविवार, 22 अक्टूबर 2023

संस्कृति को प्रकृति से जोड़ने की आवश्यकता

  संस्कृति को प्रकृति से जोड़ने की आवश्यकता

सुभाष चन्द्र नौटियाल 

वर्तमान समय में जलवायु परिर्वतन के आसन्न खतरे विश्व के मानव के सम्मुख सबसे बड़ी चुनौती दे रहे हैं। जिस प्रकार से पर्यावरण प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन के खतरे बढ़ रहे हैं। उसे देखते हुए यह भी आशंका व्यक्त की जाने लगी है कि, भविष्य में धरती पर जीवन रह पायेगा या नहीं। मानव की बढ़ती दोहनवादी प्रवृत्ति, लालसा, विलासिता, उपनिवेशिक मानसिकता तथा शासन व्यवस्था ने मानव विकास की जिस परिभाषा को गढ़ा है, वह प्रकृति का अधिकतम दोहन करते हुए विलासिता पूर्ण जीवन का रास्ता खोलती है। अन्ततः यह रास्ता महाविनास की ओर जाता है। अत्याधुनिक विकासरूपी लालसा की इस व्यवस्था ने प्रकृति के प्रति कृतज्ञता के भाव को नष्ट करते हुए जल, मृदा, वायु प्रदूषण तथा सामाजिक विखण्डन को जन्म दिया है। विकासात्मक की लालसा लिए हुए मानव की व्यक्तिवादी सोच ने मानव समाज में जहर घोल कर सामाजिक व्यवस्था तथा संस्कृति के मूल स्वरूप का नष्ट करने का कार्य किया है। इस व्यवस्था से अति विलासितापूर्ण जीवन शैली के लिए प्रकृति का अधिकतम दोहन करते हुए व्यक्तिवादी सोच को जन्म देकर सामाजिक ताने-बाने को नष्ट करने का कुत्सित प्रयास जारी है। आज मानव समाज में उपस्थित यही आसुरी वृत्तिक सोच तथा मानसिकता पर्यावरण संरक्षणवादी हमारी मूल संस्कृति को पुरातन, पिछड़ी तथा दकियानूसी बताने में कोई गुरेज नहीं करती है। आधुनिकता के नाम पर दोहनकारी इस प्रवृत्ति ने प्रकृति चक्र को बाधित कर प्रकृति तथा संस्कृति दोनों को नष्ट करने का प्रयास किया है। आर्थिक संसाधनों पर कब्जे की होड़ के लिए जल, जंगल, जमीन के संरक्षक मूलनिवासियों को पिछड़ी सोच का अधिवासी मान कर उनके अधिकारों पर डाका डाला जा रहा है तथा प्रकृति के अधिकतम संसाधनों का उपभोग विलासितापूर्ण जीवन के लिए किया जा रहा है। ऐसी घोर उपभोगतावादी सोच से मुक्त होकर आज संस्कृति को प्रकृति से जोड़ने की आवश्यकता है। वास्तव में यदि देखा जाय तो आज प्रकृति उन्ही क्षेत्रों में प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध है जहां पर मानव संस्कृति का प्रकृति के साथ आपसी सांमजस्य स्थापित है। हिमालयी क्षेत्र की संस्कृति इस में आर्दश मानी जा सकती है। यहां पर संस्कृति का प्रकृति के साथ सीधा सम्बन्ध स्थापित है। हिमालयी ग्राम संस्कृति में प्रकृति को प्रधान देवता मानते हुए सर्वथा पूजनीय माना गया है। इस संस्कृति में प्रकृति के सृजन में महत्वपूर्ण अवयवों मृदा, जल, वायु, अग्नि, आत्मिक तत्व आकाश की पूजा का विधिवत् विधान सांस्कृतिक तत्व का अनिवार्य अंग माना गया है। हमारे ऋषि-मुनियों ने सभी प्राणियों में सह-अस्तित्व की भावना को बल प्रधान करने के लिए प्रकृति में मौजूद विभिन्न तत्वों को देव स्वरूप मानकर दैनिक, साप्ताहिक, मासिक तथा वार्षिक पूजा के साथ-साथ ऋतु परिवर्तन के अवसर पर विशेष पूजा की परम्परा रही है। 

‘माता भूमिः पुत्रों अहं पृथिव्याः’ अर्थात् पृथ्वी हमारी माता है तथा हम सभी प्राणी धरा की सन्तान हैं। अर्थववेद के इस मंत्र में संस्कृति को प्रकृति से जोड़ने का भाव पुष्ट होता है। इस संस्कृति में पशु-पक्षियों, वृक्षों, पेड़-पौधों तथा पर्यावरण के घटकों को विशेष पूजनीय माना गया है। दूब घास सहित पीपल, शमी, तुलसी, वट आदि को पवित्र मानते हुए पूजनीय माना गया है। समुद्र, नदियों, जलधाराओं, झरनों, कुवों, तालाबों, को इस संस्कृति में परम पूजनीय माना गया है।

मानव की विकृत उपनिवेशिक प्रवृत्ति तथा औपनिवेशिक शासन व्यवस्था ने प्रकृति संरक्षणवादी बोली-भाषा तथा संस्कृति को हेय दृष्टि से देखने की प्रवृत्ति ने संस्कृति को प्रकृति से जोड़ने वाली सांस्कृतिक व्यवस्था को तहस-नहस कर नष्ट करने का प्रयास किया है। प्रकृति का अंधाधुन्ध दोहनकारी मानव की प्रवृत्ति ने वर्तमान समय में सांस्कृतिक मान्यताओं को ध्वस्त कर महाविनास का रास्ता खोल दिया है। विकास के नाम पर अति विलासिता पूर्ण जीवन जीने की चाह ने संसाधनों को जुटाने के लिए जो होड़ मानवों में शुरू हुई है, इसी सोच ने हमारी सदियों से चली आ रही प्रकृति संरक्षण के लिए बनायी गयी सांस्कृतिक व्यवस्था को नष्ट कर आसुरी प्रवृत्ति को जन्म दिया है। 

भारत सरकार सहित विश्व के देशों की अनेक सरकारों द्वारा तथा वैश्विक स्तर पर समय- समय पर पर्यावरण संरक्षण के लिए अनेक नीतियां बनायी गयी परन्तु उन नीतियों से बहुत अधिक सफलता प्राप्त नहीं हो पायी है, इस असफलता का मुख्य कारण संस्कृति के मूल तत्व से पर्यावरण संरक्षण की नीतियों को न जोड़ना है। यदि हम वास्तव में पर्यावरण संरक्षण के प्रति गम्भीर हैं तो दोहनकारी आसुरी प्रवृत्ति से मुक्त होकर नीतियों को भारतीय संस्कृति के मूल तत्व से जोडने की आवश्यकता है। तभी हम पर्यावरण संरक्षण के वास्तविक लक्ष्यों को हासिल कर सकते हैं।  


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