सर्व मंगल कामना के लिए सर्वतोभद्र मण्डल - TOURIST SANDESH

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बुधवार, 5 जुलाई 2023

सर्व मंगल कामना के लिए सर्वतोभद्र मण्डल

 सर्व मंगल कामना के लिए सर्वतोभद्र मण्डल

सुभाष चन्द्र नौटियाल

वेदाचार्य पंडित अनीस खन्तवाल के नेतृत्व  में पंडित नीरज धस्माना तथा पंडित पंकज शैली ने हमारे कोटद्वार स्थित घर पर 19 जून 2023 से 27 जून 2023 तक विशेष पूजापाठ सम्पन्न करवाया। इस विशेष पूजा में सर्वतोभद्र मण्डल की स्थापना की गयी थी। मेरी जिज्ञासा सर्वतोभद्र मण्डल के बारे में जानने की थी। क्यों कि, इससे पूर्व मैंने विशेष पूजापाठ के दौरान अनेक स्थानों पर सर्वतोभद्र मण्डल की स्थापना देखी थी परन्तु इस बार जब विशेष पूजापाठ के दौरान पण्डित जी द्वारा घर पर ही सर्वतोभद्र मण्डल की स्थापना की गयी तो मुझे ऐसा महसूस हुआ कि, सर्वतोभद्र मण्डल के बारे में समझना, जानना चाहिए तथा इस जानकारी को लोकहित में साझा किया जाना चाहिए। इस कोशिश को मुहूर्त्त रूप देने के लिए यह लेख लिखा गया है -
सनातन धर्म, वैदिक संस्कृति भाव प्रधान, आत्मनिष्ठ संस्कृति हैं। इस संस्कृति में मानवीय भावों को महत्व दिया गया है। वैदिक संस्कृति मानवीय भावों को श्रेष्ठता प्रधान करने, आत्मा को परमात्मा से जुड़ने तथा परम् शक्ति से एकाकार करने पर अधिक जोर देती है। योग भी ईश्वरीय शक्ति से जुड़ने का एक माध्यम ही है। इस संस्कृति में वैदिक ऋषियों द्वारा मानवमात्र के कल्याण तथा ईश्वरीय शक्ति से आत्मसात् करने के लिए अनेक उपाय बताये गये हैं। योग, ध्यान, उपासना, जप, तप, यज्ञ, हवन, पूजापाठ आदि अनेक उपायों से ईश्वर का सानिध्य प्राप्त किया जा सकता है। इन उपायों से न सिर्फ ईश्वर का सानिध्य प्राप्त होता है बल्कि हमारे अन्दर सकारात्मक शक्तियां भी जागृत हो जाती हैं तथा हमारे आस-पास की नकारात्मक शक्तियां स्वयं ही दूर होने लगती हैं। यही कल्याणकारी, मंगलदायी सकारात्मक शक्तियां ऊर्जायिमान होकर जीवन की राह को सहज, सुगम तथा सरल बनाती हैं। मानव के अन्दर असीम शक्तियां समायी हुई हैं, इन शक्तियों को जाग्रत करने तथा एकनिष्ठ करते हुए सृजनात्मक कार्यों में लगाने के लिए ही वैदिक संस्कृति में दैनिक, साप्ताहिक, मासिक तथा वार्षिक पूजापाठ सहित अनेक उपाय बताये गये हैं। इन पूजापाठों में विद्वानों ने कुछ ज्यामिति आकृतियों को भी शामिल किया है। इन ज्यामिति आकृतियों में एक आकृति सर्वतोभद्र मण्डल भी है।

क्या है सर्वतोभद्र मण्डल?

सर्वतोभद्र मंडल एक पवित्र ज्यामितीय आकृति है जिसका वैदिक संस्कृति में बहुत महत्व है । यह कोष्ठक वाली एक आकृति है, जिसे सभी ओर से "भद्र" कहा जाता है। यह भद्र सभी दिशाओं में शुभता का प्रतीक है। वास्तव में जो सर्वत्र शुभ हो वही सर्वतोभद्र मण्डल है।
सर्वतोभद्र मण्डल शुभ मांगलिक कार्यों पर बनाये जाने वाली एक ज्यामिति आकृति है। जिसमें सर्वमंगल कामना के लिए अखिल ब्रह्माण्ड को नियन्त्रित करने वाली जगत् हितकारी सृजनात्मक देव शक्तियों की स्थापना कर आवाहन तथा पूजन किया जाता है।

कब बनाया जाता है सर्वतोभद्र मण्डल?

सभी शुभ मांगलिक कार्यों में सर्वतोभद्र मण्डल की स्थापना की जा सकती है। यज्ञ यागादिक कर्म, मांगलिक पूजा महोत्सवों, प्रतिष्ठा कर्म, आदि शुभकर्मों में विभिन्न मंडलों के साथ सर्वतोभद्र मंडल प्रमुखता से बनाया जाता है

क्यों स्थापना की जाती है सर्वतोभद्र मण्डल की?

शुभ मंगल कार्यों में सर्व मंगल कामना तथा कार्य की अभीष्ट सिद्धी के लिए सर्वतोभद्र मण्डल की स्थापना की जाती है। अत्यन्त शुभता के प्रतीक इस मण्डल में सर्व देवों की शक्ति अन्तर्निहित मानी जाती है। इन देव शक्तियों का आवाहन तथा पूजन कर घर की सकारात्मक ऊर्जा बढ़ाने तथा नकारात्मक ऊर्जा को हटाने के लिए ही सर्वतोभद्र मण्डल स्थापित किया जाता है।

सर्वतोभद्र मण्डल में कितने देवों की स्थापना की जाती है?

सर्वतोभद्र मण्डल के 324 कोष्ठकों में 57 देवताओं की स्थापना की जाती है।

किन देवताओं की स्थापना की जाती है?

प्रधान देवता- मध्य में सर्वतोभद्र मण्डल के प्रधान देवता की स्थापना की जाती है।
1. ब्रह्मा 2. सोम 3. ईशान 4. इन्द्र 5. अग्नि 6. यम 7. निर्ऋति 8. वरुण 9. वायु 10. अष्टवसु 11. एकादश रुद्र 12. द्वादश आदित्य 13. अश्विद्वय 14. सपैतृक-विश्वेदेव
15. सप्तयक्ष- मणिभद्र, सिद्धार्थ, सूर्यतेजा, सुमना, नन्दन, मणिमन्त और चन्द्रप्रभ। ये सभी देवता यजमान का कल्याण करने वाले बताये गये हैं।
16. अष्टकुलनाग
17. गन्धर्वाप्सरस - गन्धर्व $ अप्सरा देवता की एक जाति का नाम गंधर्व है। दक्ष सूता प्राधा ने प्रजापति कश्यप के द्वारा अग्रलिखित दस देव गंधर्व को उत्पन्न किया था- सिद्ध, पूर्ण, बर्हि, पूर्णायु, ब्रह्मचारी, रतिगुण, सुपर्ण, विश्वावसु, भानु और सुचन्द्र। अप्सरा- कुछ अप्सरायें समुद्र मंथन के अवसर पर जल से निकली थीं। जल से निकलने के कारण इन्हें अप्सरा कहा जाता है एवं कुछ अप्सरायें कश्यप प्रजापति की पत्नी प्रधा से उत्पन्न हुई हैं। अलम्बुशा, मिश्रकेशी, विद्युत्पर्णा, तिलोत्तमा, अरुणा, रक्षिता, रम्भा, मनोरमा, केशिनी, सुबाहु, सुरता, सुरजा और सुप्रिया हैं।
18. स्कंद 19. नन्दी 20 शूल
21. महाकाल - ये सभी देवताओं में श्रेष्ठ महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग के रूप में स्वयंभू रूप से अवतीर्ण हैं।
22. दक्षादि सप्तगण - भगवान शंकर के मुख्य गण कीर्तिमुख, श्रृंगी, भृंगी, रिटि, बाण तथा चण्डीश ये सात मुख्य गण हैं।
23. दुर्गा 24. विष्णु 25. स्वधा 26. मृत्यु रोग 27. गणपति 28. अप्  29. मरुदगण
30 पृथ्वी
31. गंगादि नंदी- यज्ञ यागादिक कर्म में देव कर्म प्राप्ति की योग्यता प्राप्त करने हेतु शुद्धता एवं पवित्रता हेतु गंगादि नदियों का आवाहन किया जाता है। सप्तगंगा में प्रमुख हैं- गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु और कावेरी।
32. सप्तसागर 33. मेरु 34. गदा 35. त्रिशूल 36. वज्र 37. शक्ति 38. दण्ड 39. खड्ग 40. पाश
41. अंकुश- ये अष्ट आयुष देव स्वरूप है और मानव के कल्याण के लिए विविध देवताओं के हाथों में आयुध के रूप में सुशोभित होते हैं। उत्तर, ईशान, पूर्व आदि आठ दिशाओं के सोम, ईशान, इन्द्रादि अधिष्ठाता देव हैं ये अष्ट आयुध।
सप्तर्षि
42. गौतम 43. भारद्वाज 44. विश्वामित्र 45. कश्यप 46. जमदग्नि 47. वसिष्ठ
48. अत्रि
49. अरुन्धती- महाशक्ति अरुन्धती सौम्य स्वरूपा होकर वंदनीया है। पहले ये ब्रह्मा की मानस पुत्री थीं। सोलह संस्कारों में प्रमुख विवाह के अवसर पर कन्याओं को इनका दर्शन कराया जाता है।
50. ऐन्द्री 51. कौमारी 52. ब्राह्मी 53. वाराही 54. चामुण्डा 55. वैष्णवी
56. माहेश्वरी तथा
57. वैनायकी - देवस्थान, यज्ञभाग की रक्षा हेतु अष्ट मातृकाओं का प्रार्दुभाव हुआ। भद्र मंडल परिधि में इन माताओं की स्थापना का विधान है।

कैसे और कब शुरू हुई शुभ कार्यों में सर्वतोभद्र मण्डल की स्थापना की परम्परा?

सर्वतोभद्र मण्डल की शुरुआत कब, कहाँ तथा कैसे हुई इसके बारे में कोई निश्चित मत नहीं है परन्तु कुछ जानकारों का मानना है कि, भारत के प्रसिद्ध खगोलविद् तथा ज्योतिषाचार्य आर्यभट्ट ने विभिन्न प्रकार की ज्यामिति आकृतियों की रचना कर उसे पूजा पद्धति में शामिल करवाया था। जबकि वैदिक संस्कृति के जानकार डाॅ श्रीविलास बुडाकोटी का मानना है कि, आधुनिक पूजा पद्धति के जन्मदाता आदिगुरु शंकराचार्य हैं।

कैसे स्थापित किया जाता है सर्वतोभद्र मण्डल?

सर्वप्रथम मंडल निर्माण हेतु एक चकोर रेखाकृति बनायी जाती है। इस चकोर रेखा में दक्षिण से उत्तर तथा पश्चिम से पूर्व की ओर बराबर-बराबर दो रेखाएं खींचने का विधान है। इस प्रकार सर्वतोभद्र मंडल में 19 खड़ी एवं 19 आड़ी लाइनों से कुल मिलाकर 324 चकोर बनते हैं। इनमें चारों कोनों पर (एक कोने में तीन) 12 खण्डेन्दु (सफेद), 20 कृष्ण शृंखला (काली, एक कोने में पांच), 88 वल्ली (हरे, कृष्ण श्रृंखला के दांयी तथा बांयी ओर 11-11 कोष्ठक), 72 भद्र (लाल, एक दिशा में नौ), 96 वापी (सफेद, एक दिशा में 24), 20 परिधि (पीला,  एक दिशा में पांच) तथा 16 मध्य (लाल, एक दिशा में चार) के कोष्ठक होते हैं। इन कोष्ठकों में इन्द्रादि देवताओं, मातृशक्तियों तथा अरुन्धति सहित सप्तऋषि आदि का स्थापन एवं पूजन किया जाता है। भद्र मंडल के बाहर तीन परिधियां होती हैं जिनमें सफेद सप्तगुण की, लाल रजो गुण की और काली तमो गुण की प्रतीक है। खण्डेन्दु: तीन-तीन कोष्ठकों का एक-एक खण्डेन्दु चारों कोनों पर बनाया जाता है।
पूरे भद्र मंडल में खण्डेन्दु में 12 कोष्ठक होते हैं। ईशान कोण से प्रारंभ कर प्रत्येक कोण में तीन-तीन कोष्ठकों का एक-एक खण्डेन्दु बनाया जाता है, जिसमें सफेद रंग की आकृति देने हेतु चावल का प्रयोग किया जाता है। कृष्ण शृंखला: पांच-पांच कोष्ठकों की एक-एक कृष्ण श्रृंखला में कुल 20 कोष्ठक होते हैं। वल्ली: खण्डेन्दु के बगल वाले कोष्ठक के नीचे दो कोष्ठकों में हरे रंग का प्रयोग किया जाता है। कृष्ण शृंखला के दायीं एवं बायीं ओर (ग्यारह-ग्यारह) चारों कोनों में कुल 88 वल्लियां तैयार की जाती हैं। भद्र: वल्ली से सटे चारों कोनों एवं आठों दिशाओं में नौ-नौ कोष्ठकों का एक-एक भद्र होता है जो लाल रंग के धान्य से भरा जाता है। आठ भद्रों में कुल 72 कोष्ठक बनाये जाते हैं। वापी: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण चारों दिशाओं में 24-24 कोष्ठकों की एक-एक वापी तैयार कर उसमें सफेद रंग के धान्य का प्रयोग किया जाता है। चार वापियों में 96 कोष्ठक होते हैं। मध्य: भद्र मण्डल के शेष बचे 16 कोष्ठकों को मध्य कहा जाता है जिसका वास्तुशास्त्रीय महत्व है। मध्य में कर्णिकायुक्त अष्टदल कमल बनाया जाता है जिसमें लाल रंग के धान्य का प्रयोग किया जाता है। इसी अष्टदल कमल में यज्ञ कर्म के प्रधान देवता की स्थापना कर उनकी विविध पूजा उपचारों से पूजा-अर्चना की जाती है।
परिधि: परिधि में 20 कोष्ठक होते हैं। बाह्य परिधि: बाह्य परिधि में 3 परिधियां सत्व, रजो और तमो गुण की होती हैं।

खण्डेन्दु- तीन-तीन पुंज कोष्ठकों का खण्डेन्दु चारों कोनों पर बनाया जाता है।सर्वतोभद्र मंडल में खण्डेन्दु में 12 पुंज कोष्ठक होते हैं। ईशान कोण से प्रारंभ कर प्रत्येक कोण में तीन-तीन कोष्ठकों का एक-एक खण्डेन्दु बनाया जाता है।
जिसमें सफेद रंग की आकृति देने हेतु चावल का प्रयोग किया जाता है। अन्य रंगों के लिए रंगे हुए चावल का।

कृष्ण श्रृंखला- पांच-पांच कोष्ठकों की एक-एक कृष्ण श्रृंखला में कुल 20 पुंज कोष्ठक होते हैं।

वल्ली- खण्डेन्दु के बगल वाले कोष्ठक के नीचे दो कोष्ठकों में हरे रंग का प्रयोग किया जाता है। कृष्ण शृंखला के दायीं एवं बायीं (ग्यारह-ग्यारह) ओर चारों ओर कुल 88 पुंज वल्लियां तैयार की जाती हैं।

भद्र - वल्ली से सटे चारों कोनों एवं आठों दिशाओं में नौ-नौ पुंज कोष्ठकों का एक-एक भद्र होता है जो लाल रंग के चावल से भरा जाता है। आठ भद्रों में कुल 72 पुंज कोष्ठक बनाये जाते हैं।

वापी- पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण चारों दिशाओं में 24-24 पुंज कोष्ठकों की एक-एक वापी तैयार कर उसमें सफेद रंग के चावल का प्रयोग किया जाता है। चार वापियों में 96 पुंज कोष्ठक होते हैं।

मध्य- सर्वतोभद्र मण्डल के शेष बचे 16 कोष्ठकों को मध्य कहा जाता है जिसका वास्तुशास्त्रीय महत्व है। मध्य में कर्णिकायुक्त अष्टदल कमल बनाया जाता है जिसमें लाल रंग के चावल का प्रयोग किया जाता है। इसी अष्टदल कमल में यज्ञ कर्म के प्रधान देवता की स्थापना कर उनकी विविध पूजा उपचारों से पूजा-अर्चना की जाती है।

परिधि- परिधि में 20 पुंज कोष्ठक होते हैं।

बाहरी परिधि- बाहरी परिधि में 3 परिधियां सतो, रजो और तमो गुण की होती हैं। सर्वतोभद्र मंडल के सम्पूर्ण देवता-सर्वतोभद्र मंडल के 324 पुंज कोष्ठकों में निम्नलिखित 57 देवताओं की आवाहन किया जाता है।


देव शक्तियों की वैदिक मंत्रों से आवाहन, प्रतिष्ठा तथा पूजा-अर्चना की जाती है। इन देव शक्तियों के आवाहन, प्रतिष्ठा तथा पूजन से घर के अन्दर तथा आस-पास लोक कल्याणकारी सृजनात्मक शक्तियां जाग्रत होती हैं तथा इसके प्रभाव से नकारात्मक शक्तियां स्वमेव ही दूर होने लगती हैं। इससे साधक, उपासक एवं पूजक का सर्वविध कल्याण एवं मंगल होता है तथा जीवन में परम् आनन्द की प्राप्ति होती है। 

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