नये चाँद पर कशमकश - TOURIST SANDESH

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रविवार, 9 जुलाई 2023

नये चाँद पर कशमकश

 व्यंग्य

नये चाँद पर कशमकश

सुभाष चन्द्र नौटियाल

फोटो- जागेश्वर जोशी

जब से धरती के वैज्ञानिकों ने नया चाँद खोजा है तब से घर का चाँद हमें निरन्तर प्रश्नवाचक मुद्रा से देख रहा है तो पड़ोसी चाँद देखते ही शर्मा रहा है। भले ही नये चाँद खोजने में हमारा कोई योगदान नहीं है फिर भी सवालों के घेरे में हमें बेवजह ही घसीटा जा रहा है। शायद इसी को कहते हैं, करे कोई और भरे कोई। उधर रामू काका तथा जीतू भैजी भी संशय के भंवर में गोता लगा रहे हैं तो भुला बीरू कड़ी से कड़ी जोड़ रहा है तथा देवकी भौजाई अपने ही अन्दाज़ में छानबीन में जुटी है। चैता चच्ची, कुन्ती फूफु ताने मार रही हैं तो दिल्ली वाली दीदी हमें लेचर देकर नीति का पाठ पढ़ा रही है। भद्दवा मामा, मंगशीरू दिदा जहाँ रोज फोन पर क्लास लगा रहे हैं तो जेठ्ठा काका, बैसाखू फूफाजी तथा आषाढ़ू बोड़ाजी अपने अनुभव की दुहाई दे रहे हैं तो सौणी काकी, माघी बोड़ी, पुषी मामी, फागुणी मौसी अपने ही अन्दाज में संस्कारों तथा संस्कृति की बात बता रहे हैं। हम समझ नहीं पा रहे हैं यह सब क्या और क्यों हो रहा है? नीति की सारी बातें हमारे सिर के ऊपर से होती हुई बांऊडरी पार कर रही हैं, हम किंकर्तव्यविमूढ़ होकर निढाल सी हुए जा रहे हैं। हमारी समझ से परे हो रहा है कि, आखिर नीति का पाठ हमें क्यों पढ़ाया जा रहा है? जबकि नया चांद तो धरती के वैज्ञानिकों ने खोजा है। हमें अभी तक इस चांद की जानकारी ही नहीं है। 

 सुना है ईद का चाँद तो कभी-कभी ही नज़र आता है, फिर भी देखने के लिए नज़र तो जमानी ही पड़ती है। वैसे तो चाँद हमसे दूरी बनाये हुए है और हम चाँद से, फिर भी चाँद तो चाँद ही है, चाँदनी तो चाँद से ही सम्भव है तथा चांदनी रात का अपना अलग ही महत्व है। तभी तो चाँद की चांदनी से मोहित होकर अनेक साहित्यकारों ने श्रृंगार रस से परिपूर्ण श्रेष्ठ साहित्य कृतियों की रचना की है। हम चाँद से हैं तथा चाँद हमसे है फिर भी नये चाँद पर कशमकश तो बनी हुई है। इस नये चांद को कैसे और किस प्रकार एडजस्ट किया जा सकता है, यही उधेड़बुन है, यही कशमकश है कि, यदि नये चांद को स्थान देते हैं तो पुराने चांद का क्या होगा? नये चांद की रोशनी में पुराने चांद की चांदनी को श्रृंगार सृजित कैसे किया जा सकता है? 

इधर नये चांद तथा पुराने चांद पर कशमकश चल ही रहा है तो उधर एक वर्ग घर के चांद से इतना दुःखी है कि, अपनी सुरक्षा की गुहार लगा रहा है। नये चांद से तो वे बेखबर ही हैं। हम चांद, चांद ही खेलते रह गये हैं और कुछ लोग हैं कि, मंगल पर कालोनी बसा कर आसरा लेने के लिए निकल पड़े हैं। हमारी बल्द बुद्धि आज भी कठियाबाड़ी घोड़े की तरह टाॅप से मिट्टी खुरचकर आपस में ही उलझकर रहते हुए हाथ मलते ही रह गयी है। 

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