आत्मसत्ता का कारक जल - TOURIST SANDESH

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बुधवार, 31 मई 2023

आत्मसत्ता का कारक जल

 आत्मसत्ता का कारक जल

(लिखने के प्रेरक स्रोत)

सुभाष चन्द्र नौटियाल


भारतीय संस्कृति प्रकृति पूजक संस्कृति रही है। माना जाता है कि, यद् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे (जो पिण्ड में है वही  ब्रह्माण्ड में है या जिन तत्वों से मिलकर शरीर की रचना हुई है उन्हीं तत्वों से मिलकर  ब्रह्माण्ड की रचना भी हुई है। या जो  ब्रह्माण्ड में है वही शरीर में मौजूद है।) हमारा शरीर पंच तत्वों (पृथ्वी, वायु, अग्नि, जल तथा आकाश) से मिलकर बना है। यही पंचतत्व मिलकर वायुमण्डल का निर्माण भी करते हैं। इन पंच तत्वों के प्रति भारतीय संस्कृति में सदैव कृतज्ञता का भाव रहा है। यही कृतज्ञता का भाव प्रत्येक भारतीय के मन में इन तत्वों के प्रति स्वच्छता, सम्मान तथा संरक्षण का भाव उत्पन्न करता है। ईश्वर के प्रति असीम श्रद्धा का भाव रखने वाली इस संस्कृति में संसार की प्रत्येक वस्तु के कण-कण में ईश्वर का वास होने के कारण त्यागपूर्वक उपभोग भारतीय संस्कृति का आधार रहा है। 


ऊॅँ ईशावास्यमिदम् सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत।

तेनत्येक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम।।यजुर्वेद।।40।।1।।

( इस सृष्टि में जो कुछ भी जड़-चेतना है, वह सब ईश्वर का ही है, उसी के अधिकार में है। केवल उसके द्वारा सौंपे गये का ही उपयोग करो, अधिक का लालच मत करो; क्योंकि ’यह धन किसका है?’ अर्थात् किसी का नहीं, केवल ईश्वर का है।)

यही कारण है कि, हमारी दैनिक पूजा पद्धति में हमारे ऋषि-मुनियों ने आवश्यक रूप से इन पंच तत्वों को शामिल किया है। वर्तमान समय में मानवीय भूलों तथा मानव की अति दोहनकारी आसुरी प्रवृत्ति ने पंचतत्वों को दूषित कर दिया है। मानव की अतिमहत्वकांक्षा ने राक्षसी वृत्ति का रूप धर कर समस्त वायुमण्डल को प्रदूषित कर स्वयं के लिए ही विचित्र स्थिति पैदा कर दी है। वायुमण्डलीय इन विकारों से मुक्त होने के लिए आज पुनः भारतीय संस्कृति के मूल तत्व को समझने की आवश्यकता है।

 पंच तत्वों में जल तत्व भी प्रधान तत्व है। जल की महत्ता का गहन ज्ञान हमारे ऋषि-मुनियों तथा पूर्वजों को था, चारों वेदों में जल की महत्ता तथा उपयोगिता का गुणगान अनेक मंत्रों में जल का स्तुतिगान करके जल की महत्ता का बखान किया गया है। यही कारण है कि, प्रकृतिप्रदत्त जल के प्रति हमारे पूर्वजों का सदैव आत्मीयता का भाव रहा है। हमारे ऋषि-मुनियों ने जल को जीवन का आधार माना तथा आमजन को जल संरक्षण के प्रति जाग्रत करने के लिए अनिवार्य रूप से दैनिक पूजा पद्धति में शामिल किया। उन्होंने जल ही जीवन है की उक्ति का अक्षर-स-अक्षर पालन किया तथा दैनिक जीवन में जल की महत्ता को समझते हुए जल संरक्षण के लिए सभी उपाय किये। वैदिक संस्कृति में जल को सम्मानीय तथा परम् पूजनीय मानने के बाद भी वर्तमान समय में हम जलस्रोतों को दूषित करने में अग्रणी रहे हैं। यही कारण है कि, आज हम न सिर्फ जल की कमी से जूझ रहे हैं बल्कि दूषित जल को पीने के लिए भी मजबूर हैं। जल की उपलब्धता दिन-प्रतिदिन बद से बदत्तर होती जा रही है। भावी पीढ़ी के लिए जल की उपलब्धता सुरक्षित रखने के लिए शीघ्र ही जल संरक्षण के लिए गहन उपाय किये जाने की आवश्यकता है। भारतीय संस्कृति में वर्णित जल की महत्ता को समझते हुए उसके अनुरूप मानव व्यवहार किये जाने की आवश्यकता है तभी आने वाली पीढ़ी के लिए जल सुरक्षित रह सकता है। 

वर्तमान समय में संस्कृति प्रधान देश भारत भी जबरदस्त जल संकट से जूझ रहा है, यही जल संकट आत्मसत्ता का कारक जल को लिखने की प्रेरणा दे रहा है।

जलपूजक इस देश में वर्तमान में - 

1. लगभग 60 करोड़ लोग जल संकट से जूझ रहे हैं।


2. प्रतिवर्ष लगभग 2.0 लाख लोग साफ पीने के पानी के अभाव में जान गंवा देते हैं।


3. भारत के लगभग 70 प्रतिशत पेयजल स्रोत दूषित हो चुके हैं।


4. भारत के 21 बड़े शहरों में भूजल लगभग समाप्ति की ओर है।


5. देश में प्रतिव्यक्ति जल की उपलब्धता भी निरन्तर घट रही है। साल 2001 में प्रतिव्यक्ति जल की उपलब्धता 1,816 घनमीटर थी जो की वर्ष 2011 में घटकर 1,545 घनमीटर तथा 2021 में 1,486 घनमीटर रह गयी है। अनुमान है कि, वर्ष 2031 तक 1,367 घनमीटर ही रह जायेगी।


6. वर्ष 2018 की नीति आयोग की रिर्पोट के अनुसार 122 प्रमुख देशों की पेयजल स्वच्छता गुणांक में भारत का 120वां स्थान है।


7. विश्व की 18 फीसद जनसंख्या भारत में निवास करती है, जबकि देश में मात्र 4 फीसद जलस्रोतों का पानी ही उपयोग के लिए उपयुक्त है।


8. देश-दुनिया में हजारों लघु एवं छोटे जलस्रोत विलुप्त हो चुके हैं या विलुप्ति के कगार पर हैं।


9. एक शोध के अनुसार 1990 के बाद दुनिया की प्रमुख झीलों से हर साल 215 खरब लीटर पानी कम हो रहा है। दुनिया के बड़े जलाशय तथा झीलें तेजी से सिकुड़ रही हैं। ऐसे में आने वाले समय में भयावह जल संकट की स्थिति पैदा हो सकती है।


10. वर्ष 2018 नीति आयोग की रिर्पोट के अनुसार हिमालयी राज्यों के 60 प्रतिशत मूल जलस्रोत सूख चुके हैं या सूखने के कगार पर हैं।

आज आवश्यकता है कि, भारतीय संस्कृति के आत्मतत्व जल से आत्मसात् करते हुए जल संरक्षण के सभी सम्भावित उपाय करने होगें ताकि भविष्य की पीढ़ी के लिए स्वच्छ, साफ-सुरक्षित जल प्राप्त हो सके।  

आत्मसत्ता का कारक जल

 अनादिकाल से वैदिक संस्कृति में ईश्वरीय प्रदत्त प्राकृतिक संसाधनों के प्रति कृतज्ञता, श्रद्धा, आत्मीयता, सम्मान तथा संवेदनशीलता का भाव रहा है। निम्नतम आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु श्रद्धा तथा ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण भाव से त्यागपूर्वक उपभोग ही संस्कृति का मूल आधार रहा है। वैदिक संस्कृति में पंचमहाभूतों (आकाश यानि आत्मतत्व, पृथ्वी यानि मृदा या भौतिक शरीर, वायु यानि प्राणवायुतत्व, अग्नि यानि जीवनी शक्ति, जल यानि पुष्टिकारक) से मिलकर शरीर का निर्माण हुआ है। इन पंचमहाभूतों को दैनिक दिनचर्या में पूजनीय बनाने के लिए मानव धर्म का अनिवार्य अंग माना गया है। वैदिक संस्कृति में पंचमहाभूतों को चिरस्थायी बनाने तथा सृष्टिचक्र को निर्विवाद चलाने के लिए अनूठा दर्शन रहा है। यदि हम वैदिक नियमों के अनुरूप चलते हैं तो निश्चित ही पंचमहाभूत न सिर्फ प्रदूषण से मुक्त रहेगें बल्कि प्रकृति का स्वयं ही संरक्षण एवं संवर्द्धन भी होगा। पंचमहाभूतों में जल एक अनिवार्य महत्वपूर्ण भूत है। इस पृथ्वी में प्रकृति प्रदत्त जल, जीवनाधार, प्राणरक्षक, पुष्टिदायक तथा सुखकारक है। जल जीवन है इसीलिए वैदिक संस्कृति में जल को आत्मसत्ता का कारक माना गया है। जल की महत्ता को वैदिक संस्कृति में ईश्वरीय अंश मानते हुए नारायण स्वरूप माना गया है। मनुस्मृति में प्रथम अध्याय के दसवें मंत्र में कहा गया है -


आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः।

ता यदस्यायनं पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः।।

(जल तथा जीवों का नाम नारा है, वे सृष्टि के पालक भगवान विष्णु का अयन अर्थात् निवास स्थान है, इसलिए सब जीवों में व्यापक परमात्मा का नाम नारायण है।)

आत्मा को परमात्मा से जोड़ने के लिए जल आत्मशुद्धिकरण से लेकर आत्मतृप्ति तथा मोक्ष का साधन है यानि कि, मानव के जन्म लेने से पूर्व से लेकर मृत्यु के बाद तक भी जल का महत्व है। सृष्टि की उत्तपति भी जल में ही मानी गयी है, जिसे आधुनिक विज्ञान भी स्वीकार करता है। स्नान, ध्यान तथा ज्ञान में जल का महत्व है। जल से ही अन्न की उत्तपति होती है, अन्न ही शरीर की वृद्धि में सहायक है। अतः जल पुष्टिकारक है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की धारणा में भी जल का महत्व है। हमारे शरीर में 70 प्रतिशत जल की मात्रा है। बिना जल के चराचर जगत में जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। जल की इसी महत्ता को स्वीकार करते हुए हमारे ऋषि-मुनियों ने जल से आत्मसात् करते हुए वैदिक संस्कृति की दैनिक से लेकर सभी प्रकार की पूजा पद्धतियों में जल को अनिवार्य रूप से शामिल किया है। जीवनाधार जल से सर्वप्रथम तन, मन, आत्मा तथा स्थान का शुद्धिकरण किया जाता है। मन, वचन, कर्म से शुद्ध होने तथा संकल्प शक्ति को जाग्रत करने का आधार भी जल ही है। संकल्प शक्ति को जाग्रत करके संकल्प से सिद्धि प्राप्त करने का साधन भी जल ही है।

सर्वप्रथम आत्मशुद्धि तथा शरीरशुद्धि के लिए जल से स्नान अनिवार्य माना गया है। इसमें सभी प्रमुख नदियों का आवाहन किया जाता है -

गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वति। 

नर्मदे सिन्धु कावेरी जलऽस्मिन्सन्निधिं कुरु।।

जल से स्थान तथा शरीर शुद्धि मंत्र-

ऊॅँ अपवित्रः पवित्रो वासर्वावस्थां गताऽपि वा।

यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स वाह्यभ्यंतर शुचिः।।


 वैदिक संस्कृति में कार्यसिद्धि के लिए संकल्प से पूर्व जल से आचमन किया जाता है तथा संकल्प से सिद्धि तक जल का महत्व है। 

आचमन मंत्र

ओम अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा।।

( हे अमृत के दाता जल! मैं जान गया हूं कि, तुम ही विश्व तथा मेरा मूल आधार हो। इसी भाव को मैं निरन्तर पुष्ट करते हुए, मैं इस पवित्र जल से आचमन करता हूं।)

ओम अमृतापिधानमसि स्वाहा।।

( हे मोक्ष के दाता! मैं जान गया हूं कि, आपकी आज्ञाओं के पालन में ही मेरा कल्याण है। मैं इस पवित्र जल का पुनः आचमन कर आपकी आज्ञानुसार चलने का संकल्प लेता हूं।)

ओम सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रीयतां स्वाहा।।

( हे ज्ञान के दाता! मैं पवित्र जल को तीसरी बार आचमन करके संकल्पित होता हूं, मैं निरन्तर ज्ञान को पुष्ट करूंगा, सदा सत्य के मार्ग पर चलता हुआ ही धन, यश, कीर्ति का स्वामी बनूंगा। यह पवित्र अमृतरूपी जल मेरी वाणी तथा संकल्पों को सिद्ध करें, आप सदा मेरे सहायक रहें।)

पुनः कार्यसिद्धि के लिए स्वास्तिक वाचन के बाद हाथ में जल लेकर संकल्प लिया जाता है। संकल्प से कार्यसिद्धि के लिए जल कलश की स्थापना की जाती है। वैदिक संस्कृति में सभी शुभ कार्यों मेंं जल पात्र जिसे घट या कलश की संज्ञा दी जाती है, की स्थापना का विधान हैं। माना जाता है कि, कलश के मुख में विष्णुजी, कण्ठ में रुद्र, मूल में ब्रह्मा और कलश के मध्य में सभी मातृशक्तियां निवास करती हैं। इस जल कलश में सभी जगत् का सृजन करने वाली श्रेष्ठ जगत् हितकारी देव शक्तियां अन्तर्निहित होती हैं। कलश स्थापना का अर्थ अखिल ब्रह्मांड में उपस्थित सृजनात्मक शक्तितत्त्व का घट अर्थात कलश में आवाहन कर उसे सक्रिय करना है। सृजनात्मक शक्तितत्व की उपस्थिति के कारण वास्तु में उपस्थित नकारात्मक दुःखदायक तरंगे नष्ट हो जाती हैं तथा सकारात्मक तरगें जाग्रत होकर घर के वातावरण को शुद्ध तथा शान्ति स्थापित  करते हुए सकारात्मकता में वृद्धि करती हैं। जल कलश स्थापना का भाव वास्तव में श्रेष्ठ मानवीय भावों को जाग्रत करते हुए देवत्व को प्राप्त करने के लिए आदर्श सूक्ष्म स्थानीय वातावरण (micro climate zone) तैयार करने में सहायक सिद्ध होता है।  


कलशस्य मुखे विष्णु: कंठे रुद्र: समाश्रित:। मूले तत्र स्थितो ब्रह्मा में मातृगण: स्मृता:।। कुक्षौ तु सागरा: सर्वे सप्तद्वीपा वसुंधरा। ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेद: सामवेदो ह्यथवर्ण:।। अंगच्छ सहिता: सर्वे कलशं तु समाश्रिता:। अत्र गायत्री सावित्री शांतिपृष्टिकरी तथा। आयांतु मम शांत्यर्थ्य दुर्रितक्षयकार:।। सर्वे समुद्रा: सरितस्तीर्थानि जलदा नदा:। आयांतु मम शांत्यर्थ्य दुर्रितक्षयकार:।।

कलश भारतीय संस्कृति का अग्रगण्य प्रतीक है इसलिए तो महत्वपूर्ण सभी शुभ कार्यों में पुण्याहवाचन जल कलश की साक्षी में तथा सान्निध्य में होता है।

दिव्य जल का अंगों पर अभिषेक करके रक्षा के लिए प्रार्थना की जाती है। कलश में सकारात्मक, सृजनात्मक देव शक्तियों का आवाहन तथा प्रार्थना के बाद वह कलश केवल कलश नहीं रहता, अपितु उसमें पिंड ब्रह्मांड की व्यापकता समाहित हो जाती है। इसलिए कलश की स्थापना के दौरान मंत्रों के जप का विधान बताया गया है। 

ईशान कोण में जल की स्थापना की जाती है, वास्तु विशेषज्ञ बताते हैं कि घर के ईशान कोण में जल की स्थापना करने से वहां हमेशा सुख, शांति और समृद्धि बनी रहती है। अत: मंगल कलश के रूप में जल की स्थापना की जाती है। विशेषज्ञों के अनुसार घर का ईशान कोण हमेशा खाली होना चाहिए तथा जल से भरे पात्र मंगल कलश की स्थापना घर के ईशान कोण में होनी चाहिए। 

माना जाता है कि, शुभ कार्यों में मंगल कलश जल की स्थापना से घर का वातावरण शुद्ध तथा सकारात्मकता का आगमन होता है। वास्तु के अनुसार मंगल कलश में तांबे के पात्र में जल भरा रहता है जिससे विद्युत चुम्बकीय ऊर्जा उत्पन्न होती है। नारियल में भी जल भरा रहा है। दोनों के सम्मिलन से ब्रह्माण्डीय ऊर्जा के जैसा वातावरण निर्मित होता है जो वातावरण को दिव्य बनाती है। इसमें जो कच्चा सूत बांधा जाता है वह ऊर्जा को बांधे रखकर वर्तुलाकर वलय बनाता है। इस तरह यह एक प्रकार से सकारात्मक और शांतिदायक ऊर्जा का निर्माण करता है। 

देवताओं को प्रसन्न करने के लिए जल स्तुति तथा जल अर्पण किया जाता है। भगवान विष्णु, शिव तथा अन्य सभी देवताओं की स्तुति भी जल अर्पण करने पर ही पूर्ण मानी जाती है। वैदिक संस्कृति में सूर्य को प्रत्यक्ष देव माना गया है तथा प्रातः काल प्रतिदिन भगवान सूर्य नारायण को जल अर्पित किया जाता है। माना जाता है कि, सूर्य को प्रतिदिन अर्घ्य देने से आत्मशुद्धि, आरोग्यता तथा बलवृद्धि होती है। इसी प्रकार चन्द्रमा को भी जल अर्घ्य दिया जाता है। चन्द्रमा को मन का कारक माना गया है। चन्द्रमा को जल अर्पण से मन की शीतलता आती है तथा मन की व्यग्रता, बेचैनी तथा उग्रता पर नियंत्रण होता है।

वैदिक ज्योतिष के अनुसार जल केवल व्यक्ति के जीवन का आधार ही नहीं होता है बल्कि व्यक्ति की भावनाओं, क्षमताओं और आध्यात्मिकता को निर्धारित करने के लिए भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। ऐसे में यदि व्यक्ति के अंदर जल तत्व की कमी होने लगे तो इससे आलस्य, तनाव, उग्रता, व्यग्रता तथा बेचैनी उत्पन्न होने लगती है। वैज्ञानिक भी जीवन में स्वस्थ रहने के लिए 5 से 6 लीटर प्रतिदिन जल पीने की सलाह देते हैं। जल के प्रति सम्मान सहित जल तत्व को मजबूत करने के लिए नियमित जल सेवन करने के उपाय ज्योतिष शास्त्र में भी बताए गये हैं। उन्हें करने से व्यक्ति के जीवन में स्थिरता और समृद्धि पुनः लौट आती है। यही कारण है कि, वैदिक संस्कृति में जीवनदायी गुणकारी जल को आत्मसत्ता का कारक माना गया है।

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