जल पंचस का सिद्धान्त - TOURIST SANDESH

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मंगलवार, 30 मई 2023

जल पंचस का सिद्धान्त

  जल पंचस का सिद्धान्त (Principle of Jal Panchas)

जल संरक्षण के लिए जल पंचस का सिद्धान्त

सुभाष चन्द्र नौटियाल

आत्म सत्ता का कारक जल की महत्ता को स्वीकार करते हुए हमें जल संरक्षण के लिए निरन्तर प्रयासों की आवश्यकता है। यदि धरा में जल को संरक्षित करने के लिए जल पंचस के सिद्धान्त का पालन किया जाता है तो इसके बेहतर परिणाम आ सकते हैं तथा वर्तमान में जो जल संकट की आहट सुनायी दे रही है, उससे पूर्णरूप से निजात पायी जा सकती है। दैनिक जीवन में जल संरक्षण के लिए यदि हम जल पंचस के सिद्धान्त का पालन करते हैं तो आने वाली पीढ़ी के लिए निश्चित ही जल संरक्षित कर सकते हैं। जल संरक्षण के लिए जल पंचस के पांच प्रमुख सिद्धान्त हैं। इसीलिए इन्हें जल संरक्षण का जल पंचस सिद्धान्त कहते हैं। 

 1. जलादर या जल सम्मान (Jaladar or water respect)
 2. जल मितव्ययिता(water economy)
 3. जलपुनर्पयोगिता (water reuse)
 4. जल संचयन (water harvesting)
 5. जल पुनर्भरण (water recharge)

1. जलादर या जल सम्मान (Jaladar or water respect)

जल के प्रति सम्मान व्यक्त करना ही जलादर या जल सम्मान है। यह जल पंचस का प्रथम सिद्धान्त है।

भारतीय संस्कृति में जल को प्रत्यक्ष आत्मिक तत्व माना गया है, आत्मतत्व जल को सदा सर्वदा पूजनीय माना गया है। आत्मसत्ता का कारक जल समस्त प्राणी मात्र के लिए आत्मशुद्धि तथा आत्मतृप्ति से लेकर आत्ममुक्ति का साधन है। प्रकृति प्रदत्त जल आत्मसन्तुष्टी का महत्वपूर्ण साधन है, मानव के जन्म से पूर्व तथा मृत्यु के बाद भी जल सदैव हितकारी ही है। जल के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। समस्त चराचर जगत में जल की इसी महत्ता के कारण जल का अनादर तथा अपव्यय घोर पाप की श्रेणी में आता है।

जल को दूषित न करके उसके प्रति सम्मान तथा कृतज्ञता की भावना रखना ही वास्तव में जल सम्मान है। ऋग्वेद में सभी का पुष्टिदायक तथा शक्ति प्रदान करने वाले जल को माता के समान पूजनीय माना गया है।

 आपो अस्मान्मातरः शुन्धयन्तु घृतेन नो घृतप्वः पुनन्तु। ऋग्वेद।10।17।10।

(जल हमारी माताएं हैं, ये हमें घृतसमान जल से बलयुक्त एवं पवित्र करें, ऐसे सभी जल जो कहीं भी स्थित है, रक्षणीय है।)

अप्स्वऽन्तरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तये देवा भवत वाजिनः।ऋग्वेद।1।23।19।

(हे! मानवों अमृत समान गुणकारी जल का सदुपयोग, प्रशंसा एवं स्तुतिकारक बनो।)


जल की महत्ता का ज्ञान ही वास्तव में जल का आदर है, जिस दिन हमें जल की महत्ता का आभास हो जायेगा हम निश्चित ही जल का सम्मान करेगें तथा जल को अपव्यय होने से बचा सकते हैं। धरती में जल की कमी नहीं है परन्तु अपव्यय तथा अनादर के कारण प्रकृति का उपहार में दिया गया जल आज हमारे लिए निरन्तर कम होता जा रहा है। हमने जल को उपभोग की वस्तु मात्र समझ लिया है, जबकि जल समस्त प्राणी समुदाय के लिए जीवन का आधार है यह जल मानव के लिए परम् सम्मानीय है। यदि हमें जल का सम्मान करना है तो नदियों, झरनों, जलाशयों, कुवों, तालाबों तथा मूल जल स्रोतों के आस-पास साफ-सफाई तथा स्वच्छता का ध्यान रखना हमारा प्रथम नैतिक कर्तव्य है। जलस्रोतों तथा नदियों में कूड़ा-कटगर, मल-मूत्र का त्याग तथा किसी भी प्रकार का अवशिष्ट पदार्थ डालना जल का अपमान करने के समान है। कम्पनियों से निकले अवशिष्ट पदार्थों को सीधे जलस्रोतों तथा नादियों में विसर्जित करने से जलस्रोत तथा नदियां दूषित हुई हैं, अवशिष्ट पदार्थों को सीधे जल में प्रवाहित करने से मानव ने जल का अनादर ही किया है। इसके कारण जल प्रदूषण की समस्या ने जन्म लिया है। इस प्रकार से जल का अनादर करने से मानव समुदाय को स्वयं को बचाने की आवश्यकता है। मानव समाज को जल के महत्व के प्रति जागरूक करना, जल को किसी भी प्रकार से दूषित न करना तथा जल अपव्ययता से बचाना भी जल सम्मान ही है। स्वयं के आचरण में मन, वचन तथा कर्म से जल संरक्षण का स्थायी भाव लाना भी जल सम्मान ही है। 

प्राकृतिक संसाधन जल को यदि भविष्य की पीढ़ी के लिए संरक्षित करना है तो हमें जल के प्रति सम्मान का भाव को अपने दैनिक कार्य व्यवहार में लाना होगा। तभी जल संरक्षित हो पायेगा तथा जीवन भी तभी सुरक्षित रह पायेगा।

2. जल मितव्ययिता (water economy)

जल का मितव्ययिता के साथ उपयोग करना तथा जल को हर प्रकार के अपव्यय होने से बचाना ही जल मितव्ययिता है। यह जल पंचस का द्वितीय सिद्धान्त है।

जल मानव की अनिवार्य आवश्यकता है। सतही जल की अल्पमात्रा के बावजूद पीने सहित तमाम घरेलू उपयोग, खेती, औद्योगिक इस्तेमाल और अन्य उपयोग के लिये मनुष्य इसी जल पर निर्भर है। भूजल के अत्यधिक दोहन के कारण यह लगातार कम होता जा रहा है। लुप्त हो जाने से पहले इसे बचा लेने और बचाये रखने की चिंता व्यक्त की जाने लगी है। प्रत्येक स्तर पर नीति, योजना और कार्यक्रमों की रचना तैयार की जा रही है। आज जल मितव्ययिता के लिए सम्यक् मानवीय व्यवहार की आवश्यकता है। न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु जल का उपयोग करना तथा जल को अपव्यय होने से बचाना ही वास्तव में जल मितव्ययिता है।

देश, काल और परिस्थिति के अनुसार जल की उपलब्धता, उपयोग, व्यवहार और समस्यायें बदल जाती हैं। दुनिया के विभिन्न देशों के संदर्भ में यह स्थिति देखने को मिलती है। ग्रामीण, शहरी और वनवासी क्षेत्रों में जल के प्रति भिन्न-भिन्न प्रकार की सोच दिखाई देती है। कहीं पीने के जल की समस्या है, तो कहीं सिंचाई और कहीं औद्योगिक उपयोग के लिये जल की कमी महसूस की जा रही है। प्राकृतिक जलस्रोतों के अनुसार जल की उपलब्धता में काफी विविधता और विषमता है। सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक पक्ष के अलावा जल से जुड़ा अध्यात्मिक और दार्शनिक पक्ष भी है। मौजूदा जल की समस्या के समाधान के लिए जल मितव्ययिता के सिद्धान्त को समझना भी जरूरी है।

जल के प्रति दुर्व्यवहार, अपव्यय और दुरुपयोग तथा लापरवाही का नतीजा है कि विश्व के अधिकांश लोगों को पीने के लिये शुद्ध जल नहीं मिल पा रहा है। भारत सहित विश्व के अनेक क्षेत्रों में जल को लेकर संघर्ष की नौबत है। अनेक स्थानों पर जल को लेकर कानून व्यवस्था की समस्या पैदा हो रही है। छीना झपटी तथा मारामारी जैसे हालात पैदा हो चुके हैं।

जल से सम्बन्धित मानव व्यवहार में परिवर्तन की आवश्यकता है। जल का उपयोग साफ-सफाई, सिंचाई के साथ-साथ औद्योगिक व घरेलू कार्यों के लिये होता है। सिंचाई और औद्योगिक उपयोग को लेकर वर्तमान जल-नीति में परिवर्तन जरूरी है। इसके लिये नीति-निर्माताओं को प्रभावित करना होगा। कम सिंचाई की खेती के लिये किसानों को प्रवृत्त करना होगा। परिस्थितियों के मद्देनजर परम्परागत जैविक खेती की नीति अपनानी होगी। अधिक जल पर निर्भर उद्योगों को हतोत्साहित और जल प्रदूषण को कम करने की तकनीक अपनाने को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। घरेलू जल के उपयोग से सम्बन्धित अनेक निषेधों के प्रति लोगों को न सिर्फ जागरूक करने बल्कि उनके व्यवहार को भी परिवर्तित करना जरूरी है। 

जल संचय, जल के प्रति मितव्ययी व्यवहार, जल बचत और जल शुद्धता के प्रति लोगों को प्रेरित करने और सम्यक व्यवहार के लिये उन्मुख करने का दायित्व प्रत्येक जागरूक नागरिक का है। जल को लेकर आमजन में भयावह संकटकालीन स्थिति का ज्ञान कराने की आवश्यकता है।

पृथ्वी पर जल बहुत है परन्तु पीने योग्य जल कम है। लेकिन इतना भी कम नहीं है कि, जल के लिये पृथ्वी पर प्राणी समुदाय के लिए जल ही न हो। पृथ्वी जिसे जन्म देने की क्षमता रखती है उसके भरण-पोषण तथा जीने के लिए समस्त साधन भी उपलब्ध कराती है परन्तु अव्यवस्था तथा कुछ मानव विशेषों द्वारा अत्यधिक उपयोग या फिजूलखर्ची असन्तुलन पैदा करती है। जल की कमी के लिए भी यही कथन सत्य है। धरती में जल की कमी के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण कारण जल के प्रति मानव व्यवहार ही है। मानव व्यवहार को अन्य कारकों के साथ संचार प्रक्रिया प्रमुखता से निर्धारित करती है। जल से जुड़ी समस्याओं का स्थायी निदान मानव व्यवहार में ही हैं। जल का उपयोग मितव्ययिता के साथ करने के लिए बहुआयामी रणनीति बनाने की आवश्यकता है। व्यापक प्रचार-प्रसार द्वारा नीति-निर्माताओं, मत-निर्माताओं के साथ ही हितग्राहियों और सामान्य जन को भी सम्बन्धित विषय के बारे में आलोचनात्मक और विश्लेषणात्मक योग्यता प्रदान करना होगी। यदि जल समस्या से निजात पाना है तो जल मितव्ययिता के सिद्धान्त का पालन करना होगा।


3. जलपुनर्पयोगिता(water reuse)


जल का पुनः उपयोग करना ही जलपुनर्पयोगिता है। जल को पुनः उपयोग कर जल की समस्या से निजात पायी जा सकती है। जलपुनर्पयोगिता जल पंचस का तृतीय सिद्धान्त है।

जल की मांग और आपूर्ति में दिन प्रति दिन अन्तर आता जा रहा है, मांग बढ़ती जा रही है तथा मांग के अनुरूप आपूर्ति नहीं हो पा रही है ऐसे में जल का पुनः उपयोग ही एक मात्र विकल्प है। यह मनुष्य को पर्याप्त मात्रा में जल उपलब्ध करा सकता है। इसके लिए ऐसी तकनीक का प्रयोग किया जाए, जो औद्योगिक पानी, मलमूत्र पानी, सीवेज के पानी को स्वच्छ पानी में बदल सके ताकि इनका उपयोग बाहरी कार्यों में किया जा सके। 

अपशिष्ट जल (Wastewater)  को उपचारित करने के प्रक्रम को अपशिष्ट जलोपचार (Wastewater treatment) कहते हैं। अपशिष्ट जल उस जल को कहते हैं जो अब उस काम में नहीं आ सकता जो इसके ठीक पहले इससे किया गया है। अपशिष्ट जल का उपचार करने के बाद प्राप्त जल का पुनः उपयोग किया जा सकता है या उसे बहुत कम पर्यावरणीय क्षति के बहिस्रावित कर दिया जा सकता है जिससे वह पुनः जल चक्र में मिल जाता है। उपचारित करने का मतलब अपशिष्ट जल से अशुद्धियों को निकालना है। उपचार की कुछ विधियाँ साधारण जल और अपशिष्ट जल दोनों के उपचार में काम आतीं हैं। अपशिष्ट जल का उपचार करने वाले संयंत्र को ’अपशिष्ट जलोपचार संयंत्र (wastewater treatment plant) कहते हैं।

ग्रे वॉटर तो हर रोज हर घर से निकलता है। ऑस्ट्रेलिया में लगभग शतप्रतिशत ग्रे वॉटर पुनः उपयोग हो जाता है। यदि भारत सहित अन्य देशों में भी ग्रे वॉटर को लेकर जागरूक हो जाए तो काफी हद तक समाधान हो सकता है। आज हमारे महत्वपूर्ण जल संसाधनों के उपयोग को अनुकूलित करने के लिए जल पुनर्चक्रण और जल पुनः उपयोग पर ध्यान देने की आवश्यकता है। यदि हम जल की पुनर्पयोगिता बढ़ाते हैं तो मौजूदा जल संकट पर काफी हद तक नियन्त्रण किया जा सकता है। 

4. जल संचयन (water harvesting)

 वर्षा जल का संचय करना ही जल संचयन कहलाता है, यह जल पंचस का चतुर्थ सिद्धान्त है। कहा भी गया है जल संचय, जीवन संचय 

अथर्ववेद में वर्षा जल को कल्याणकारी बताया गया है।

शिवा नः सन्तु वार्षिकी।।अथर्ववेद।1।6।4।

(हमारे लिए जल कल्याणकारी हो।)

यजुर्वेद में जल को प्रदूषण मुक्त रखने तथा व्यर्थ नष्ट करने की सख्त मनायी पर जोर दिया गया है।

मा आपो हिंसींः।।यजुर्वेद।6।22।

(जल को नष्ट मत करो, हानि मत पहुंचाओं।)

अथर्ववेद में सदैव शुद्ध वर्षा होने की कामना की गयी है।

शं नो देवीरभिष्टये आपो भवन्तु पीतये।

शं योरभिस्रवन्तु नः।।1।6।1।

(दिव्यमान गुणवाले जल हमारी अभीष्ट सिद्धि, पीने तथा रक्षार्थ सुखदायक हों, हमारे रोग की शान्ति और अभय हेतु चारों ओर से बरसे।)

 

वर्षा जल संचयन क्या है?

वर्षा जल संचयन को वर्षा जल संग्रहण प्रणाली के रूप में भी जाना जाता हैं। यह वह तकनीक है जो मानव उपयोग के लिए वर्षा जल को एकत्रित और संग्रहीत करती हैं।

छोटे पैमाने पर, वर्षा जल संचयन प्रणाली वर्षा जल को संग्रहित करने के लिए साधारण वर्षा बैरल का उपयोग करती है जबकि बड़े पैमाने पर संग्रहित करने के लिए, भारी पंपों, बड़े टैंकों और परिशोधित तकनीकी (Refining Techniques)  का उपयोग किया जाता हैं।

यह एक लंबे समय तक चलने वाली और नवीनीकरणीय प्रक्रिया है जो भविष्य की जरूरतों के लिए पानी के संरक्षण में मदद करती है। आज जल संकट एक गंभीर चिंता का विषय है। वर्षा जल संचयन की प्रक्रिया जल संरक्षण का एक सुविधाजनक तरीका हैं।

वर्षा जल संचयन के प्रकार

वर्षा जल संचयन के दो मुख्य प्रकार हैं।


1. सतही जल संचयन

सतही जल संचयन आमतौर पर शहरी क्षेत्रों में देखा जाता है क्योंकि सीमेंट, कंक्रीट, कांच जैसी बहुत सारी सपाट सतहें होती हैं जिनसे पानी बह सकता है। स्टोर किए गए पानी को उपयोग से पहले इसे बजरी, रेत और चारकोल के माध्यम से फ़िल्टर किया जा सकता हैं।


2. रूफटॉप रेन वाटर हार्वेस्टिंग

रूफटॉप रेन वाटर हार्वेस्टिंग को शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में देखा जा सकता है क्योंकि अधिकांश घरों में फ्लैट छतें होंती हैं। छत पर जमा किए गए पानी को पाइप की सहायता से टैंक में संग्रहित कर  उपयोग किया जा सकता हैं।  

वर्षा जल का संचयन कैसे किया जाता है?

वर्षा जल संचयन के प्रयोग में आने वाले तकनीकी के घटक 

1. कैचमेंट :- इसका उपयोग वर्षा जल को इकट्ठा करने और संग्रहीत करने के लिए किया जाता हैं।

2. कन्वेयंस सिस्टम : इसका उपयोग कैचमेंट से एकत्रित पानी को किसी क्षेत्र में ट्रांसफर करने के लिए किया जाता हैं।

3. फ्लश :- इसका उपयोग बारिश के पानी को बाहर निकालने के लिए किया जाता हैं।

4. फिल्टर :- इसका उपयोग स्टोर किए गए वर्षा जल को छानने और उसमें मौजूद प्रदूषकों को दूर करने के लिए किया जाता है। फ़िल्टर्ड पानी को जमा करने के लिए टैंक का उपयोग किया जाता हैं।

वर्षा जल संचयन की मात्रा को प्रभावित करने वाले कारक

जल संचयन की मात्रा कई कारकों पर निर्भर करती है 

पर्यावरण का प्रभाव

छत के प्रकार और इसकी ढलान

ज्लग्रहण की विशेषताएं

तकनीकी की उपलब्धता

भंडारण टैंकों की क्षमता

वर्षा की मात्रा और गुणवत्ता

वर्षा जल संचयन में उपयोग की गयी तकनीकी


वर्षा जल संचयन प्रणाली के महत्वपूर्ण घटक

वर्षा जल संचयन प्रणाली में विभिन्न चरण के अनुसर उनके घटकों को क्रमबद्ध किया गया है। किसी भी ‘वर्षा जल संचयन‘ या ‘वर्षा जल संग्रहण(Rain Water Harvesting) की डिज़ाइन निम्न कारकों पर निर्भर करती है, जैसे- उस क्षेत्र की जलवायु, औसत वार्षिक वर्षा, उपलब्ध वार्षिक जल तथा उस स्थान पर जल का कितना उपभोग है या उसकी कितनी आवश्यकता है।

1. उपलब्ध वार्षिक जल की गणना(Calculation of available annual water)  वर्षा जल संचयन की रचना निर्धारित करने में औसत वार्षिक वर्षा का प्रतिरूप तथा उपलब्ध वार्षिक जल महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उन स्थानों पर जहां औसत वार्षिक वर्षा बहुत अधिक है, वहां इस तकनीक की आवश्यकता नहीं पड़ती है, वहीं इसके विपरीत उन स्थानों पर जहां औसत वार्षिक वर्षा बहुत कम होती है, आर्थिक दृष्टिकोण से वहां भी बहुत बड़े पैमाने पर इन रचनाओं की योजना उचित नहीं है। इस स्थिति में उपलब्ध वार्षिक जल की मात्रा के अनुसार ही वर्षा जल संचयन की रचना की जाती है तथा इसकी गणना निम्नलिखित समीकरण द्वारा की जाती है ।

उपलब्ध वार्षिक जल=औसत वार्षिक वर्षा* रन ऑफ गुणांक* जलग्रहण क्षेत्र का क्षेत्रफल

2. जलग्रहण क्षेत्र (Catchment area) % वर्षा जल संचयन प्रणाली में जलग्रहण क्षेत्र वह स्थान होता है, जो बारिश के जल को सीधे प्राप्त करता है और इस संचयन प्रणाली को जल प्रदान करता है । यह या तो घरों, विद्यालयों, कार्यालयों, व किसी भी इमारत की छत हो सकती हैं या खुला मैदान या बागीचा हो सकता है। यह इस प्रणाली का एक महत्वपूर्ण घटक है क्योंकि संग्रह जल की मात्रा व गुणवत्ता दोनों ही जलग्रहण क्षेत्र के क्षेत्रफल तथा बनावट पर निर्भर करता है । मुख्यतः चिकनी व एकसमान सतह वाला जलग्रहण क्षेत्र श्रेष्ठ होता है, इसलिए जलग्रहण क्षेत्र के डिजाइन में, धातु की चादरें, सिरेमिक टाइलें, रॉक स्लेट और फेरो सीमेंट आदि का प्रयोग किया जाता है। वर्तमान में गैल्वनाइजिंग स्टील की चादरें, उपयोग में लाई जा रही हैं क्योंकि जस्ता यौगिकों के साथ कोटिंग हुई गैल्वेनाइज्ड स्टील की चादरों को जंग से बचाती है ।

3. उपयुक्त स्थानः सामान्यतः वर्षाजल संग्रहण कहीं भी किया जा सकता है, परन्तु इसके लिये वे स्थल सर्वथा उपयुक्त होते हैं जहाँ पर जल का बहाव तेज होता है और वर्षाजल शीघ्रता से बह जाता है। इस प्रकार वर्षाजल संग्रहण निम्नलिखित स्थानों के लिए सर्वथा उपयुक्त होता हैः-

कम भूजल वाले स्थल,

दूषित भूजल वाले स्थल/प्रदूषित जल वाले स्थल,

पर्वतीय/विषम जल वाले स्थल,

सूखा या बाढ़ प्रभावित स्थल,

अधिक खनिज व खारा पानी वाले स्थल

वे स्थान जहाँ पानी व बिजली महंगी है

वर्षा जल संचयन के तरीके (Method of Rainwater Harvesting)

वर्षा जल संचयन करने के बहुत से तरीके हैं। इनमें से कुछ तरीके वर्षा जल का संचयन करने में बहुत ही कारगर साबित हुए हैं। संचयन किए हुए वर्षा जल को हम घरेलू उपयोग में ला सकते हैं और कुछ तरीकों से बचाए हुए पानी का हम औद्योगिक क्षेत्रो में भी उपयोग कर सकते हैं।


छत के पानी का एकत्रीकरण (Roof Top Water Harvesting)  वर्षा जल संचयन या वर्षा जल संग्रहण की इस प्रणाली में घर, विद्यालयों व कार्यालयों के छतों पर गिरने वाले वर्षा जल को एल्युमिनियम, आयरन या कंक्रीट की बनी टंकियों में एकत्रित कर घरेलू प्रयोग में लाया जाता है या भूजल रिचार्ज संरचना से जोड़ कर भूजल स्तर को बढ़ाने में प्रयोग किया जाता है। यह पानी स्वच्छ होता है, जो थोड़ा बहुत ब्लीचिंग पाउडर मिलाने के बाद पूर्ण तरीके से उपयोग में लाया जा सकता है। जलग्रहण क्षेत्र के किनारों के एक तरफ़ ढाल पर नाली का निर्माण किया जाता है जो जलग्रहण क्षेत्र में इकट्ठे हुए जल को जाली से होते हुए संग्रहण टंकी (Storage tank)  तक पहुँचाने का कार्य करती है। ये नालिया अर्धगोलाकार, आयताकार या किसी भी आकार की हो सकती हैं। प्रायः ये नालियां गैल्वेनाइज्ड आयरन शीट (जीआई) या पॉलीविनाइल क्लोराइड (पीवीसी) PVC की बनी होती हैं। किन्ही किन्ही स्थानों पर बांस या सुपारी के तनों को ऊर्ध्वाधर काट कर नाली का आकार दिया जाता है। वर्षा की तीव्रता, परिमाण, और जलग्रहण क्षेत्र के क्षेत्रफल के अनुरूप ही, वर्षा जल को बाहर निकालने के लिए नालियों के व्यास का निर्धारण करते हैं। कुछ वर्षा जल संचयन तकनीकों में, पानी में उपस्थित प्रदूषकों, मुख्यतः सस्पेंडेड सोलीड्स को हटाने के लिए फिल्टर्स का भी प्रयोग किया जाता है।

बांध/लघु बांध (Small Scale Dam)% बांधों के माध्यम से भी वर्षा के जल को बहुत ही बड़े पैमाने में रोका जाता है जिसे गर्मी के महीनों में या पानी की कमी होने पर कृषि, बिजली उत्पादन और नालियों के माध्यम से घरेलू उपयोग में भी प्रयोग में लाया जाता है। लघु बांध या “चेकडैम“ मिट्टी, पत्थर या सीमेंट-रोड़ी का बना हुआ एक ऐसा अवरोध होता है, जिसे किसी भी झरने या नाले के जल प्रवाह की आड़ी दिशा में बनाया जाता है। लघु बांध का प्रमुख उद्देश्य बारिश के अतिरिक्त जल को बांधना होता है, जिससे कि यह पानी बरसात के समय या उसके बाद भी प्रयोग में आ सके और इससे भूजल का स्तर भी बढ़ता रहे। जल संरक्षण के मामले में बांध बहुत उपयोगी साबित हुए हैं इसलिए भारत में कई बांधों का निर्माण किया गया है और साथ ही नए बांध भी बनाए जा रहे हैं।

जल संग्रह जलाशय (Water Collection Reservoirs) % जमीन पर किसी संरचना का निर्माण कर, जिसमें जल को एकत्र किया जा सके, जल संग्रह जलाशय कहलाता है। इस प्रक्रिया में बारिश के पानी को तालाबों और छोटे- छोटे पानी के स्रोतों में जमा किया जाता है। इस तरीके से जमा किए हुए जल को ज्यादातर कृषि के कार्यों में लगाया जाता है क्योंकि यह जल वर्तमान परिदृश्य में समान्यतः दूषित होता है। इन संरचनाओ में बंड (Bund)  व ट्रेंच (Trench)  महत्वपूर्ण हैं ।

भूमिगत टैंक (Underground Tanks):  भूमिगत टैंक भी वर्षा जल संचयन करने का एक उत्तम तरीका है जिसके माध्यम से हम भूमि के अंदर पानी को संरक्षित रख सकते हैं। इस प्रक्रिया में वर्षा जल को एक भूमिगत गड्ढे में संग्रह किया जाता है जिससे भूमिगत जल की मात्रा बढ़ जाती है। साधारण रूप से भूमि के ऊपर बहने वाला जल सूर्य की गर्मी या आधिक तापमान के कारण भाप बन कर उड़ जाता है और हम उसे उपयोग में नहीं ला पाते हैं, परंतु इस तरीके में हम ज्यादा से ज्यादा पानी को मिट्टी के अंदर बचा कर रख पाते हैं। यह तरीका बहुत ही मददगार साबित हुआ है, क्योंकि मिट्टी के अंदर का पानी आसानी से नहीं सूखता है और लंबे समय तक पंप के माध्यम से हम उसका उपयोग कर सकते हैं।

वर्षा जल संचयन प्रणाली में दूषित पदार्थों

प्रायः वर्षा जल रासायनिक दूषित पदाथो से मुक्त होता है, अगर छत ठीक से स्थापित हो तथा उसे नियमित रूप से साफ किया जाता हो। आमतौर पर पूरी तरह प्रदूषण मुक्त एक छत बनाना मुश्किल है, परन्तु छत और नालियों की नियमित सफाई, सूक्ष्मजीवों की मात्रा को काफ़ी हद तक कम कर देता है। वायुमंडलीय गैसों के वर्षाजल में घुलने के कारण उसका pHk थोड़ा अम्लीय (6 से कम) होता है, जिसके लिए आधा टेबल चम्मच बेकिंग सोडा को प्रति 2000 लीटर में मिलाया जाता है जिससे वर्षा जल का pH ≈ 7 हो जाता है। वर्षाजल कभी कभी बैक्टीरिया, वायरस, प्रोटोजोआ व अन्य हानिकारक सूक्ष्म जीवों से भी दूषित होता है, जिसको क्लोरीन डोसिंग, अल्ट्रा वायलेट (यूवी) शोधन, ओजोन उपचार आदि विधियों से शोधन किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त एकत्रित पानी को कम से कम 5 मिनट तक उबालकर भी पीने के उपयोग में लाया जा सकता है।

वर्षा जल संचयन के उद्देश्य

वर्षा जल संचयन के प्रमुख उद्देश्य हैं -

पानी की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए।

सूखे मौसम के लिए।

भूमिगत जल को रिचार्ज करके जल स्तर को ऊपर उठाने के लिए।

भूमिगत जल प्रदूषण को कम करने के लिए।

बाढ़ और कटाव को कम करने के लिए।

सड़कों पर पानी भरने से बचाने के लिए।


वर्षा जल संचयन के लाभ 

वर्तमान समय में गंभीर जल संकट की स्थिति में नगरीय एवं ग्रामीण क्षेत्रों में ‘रेन-वाटर हार्वेस्टिंग‘ समान रूप से उपयोगी हैं तथा गहराते जल संकट से मुक्ति पाने का एक प्रमाणित माध्यम हैं। इस तकनीक के बहुत से प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष लाभ हैं-

1. बनाए रखने में आसान :- वर्षा जल संचयन हमें ऊर्जा संसाधन का कुशलतापूर्वक उपयोग करने की अनुमति देता है। आजकल, ऐसा करना महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि पीने का पानी आसानी से नवीकरणीय नहीं होता है।

2. पानी के बिल कम करना :- वर्षा जल संचयन प्रणाली की प्रक्रिया द्वारा स्टोर किए गए पानी का उपयोग कई अन्य कार्यों के लिए भी किया जा सकता है। कई घरेलू और छोटे व्यवसायों के लिए, वर्षा जल संचयन बिलों को कम करने में मदद करता है। वर्षा जल संग्रहण के द्वारा जलापूर्ति न्यूनतम लागत में संभव हो जाती है।

3. सिंचाई के लिए उपयुक्त :- वर्षा जल शुद्ध और हानिकारक रासायनिक मुक्त होता है। जो इसे सिंंचाई और बागवानी के लिए उपयोगी बनाता है।

4. भूजल पर मांग कम करता है :- जैसे-जैसे जनसंख्या में वृद्धि हो रही है, पानी की मांग भी दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। कई हाउसिंग टाउनशिप, कॉलोनियां और बड़े पैमाने के उद्योग अपनी दैनिक पानी की जरूरतों को पूरा करने के लिए भूजल का उपयोग कर रहे हैं। भूजल की इस कमी से निपटने के लिए वर्षा जल संचयन की आवश्यकता है।

6. संग्रहित वर्षा जल का उपयोग अन्य कार्यो में भी किया जाता है :- संग्रहित वर्षा जल का उपयोग कई अन्य कार्यों के लिए भी किया जा सकता है जिसमें शौचालय की सफाई, कपड़े धोना, पौधों को पानी देना, वाहनों को धोना आदि शामिल हैं।

7. पीने के लिए वर्षा जल :- साधारण घरेलू तकनीक और कुछ डिवाइस के साथ वर्षा जल को संग्रहित किया जा सकता है और पीने के उद्देश्यों के लिए उपयोग किया जा सकता है।

8. आत्मनिर्भरता भाव-वर्षा जल संग्रहण के द्वारा भूजल/सरकार द्वारा जलापूर्ति पर निर्भरता कम हो जाती है तथा गिरते भूजल स्तर को ऊपर उठाया जा सकता है। वर्षा जल संग्रहण से जहाँ जलस्रोत नहीं हैं वहाँ पर भी कृषि कार्य सम्भव हो जाता है तथा जल के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता आ जाती है व अन्य स्रोतों पर निर्भरता कम हो जाती है।

9. शुद्ध जल-वर्षा जल संग्रहण से प्राप्त जल हर प्रकार के घातक लवणों आदि से मुक्त होता है और इस तरह से इससे हमे उच्च गुणवत्ता एवं रसायनमुक्त शुद्ध जल की प्राप्ति होती है।

10. भू-कटाव में कमी-वर्षा जल संग्रहण के द्वारा बाढ़ के वेग पर नियंत्रण से मृदा अपरदन कम से कम किया जा सकता है।

वर्षा जल संग्रहण, जल के मुख्य स्रोत का काम करता है तथा इसके द्वारा सभी जीवों को समुचित मात्रा में जल उपलब्ध कराया जा सकता है। ज़मीन के अन्दर संग्रहीत जल का वाष्पीकरण नहीं होता है अतः भूजल के समाप्त होने की सम्भावना कम ही रहती है।

वर्षा जल संचयन आमजन के लिए किस प्रकार उपयोगी हैं -

वर्षा जल संचयन को बांधों से बेहतर विकल्प के रूप में लिया जा सकता हैं।

(1). वर्षा जल संचयन बड़े बांधों से बेहतर है, इस तरीके को अपनाने के लिए स्थानीय लोगों को एक जगह से दूसरी जगह नहीं जाना पड़ता है।

(2). यह वनस्पतियों और जीवों में पर्यावरणीय समस्याओं का कारण भी नहीं बनता है।

(3). बरसात के मौसम में, बांधों से अतिरिक्त पानी छोड़ा जाता है, जो बाढ़ की स्थिति पैदा करता है, लेकिन वर्षा जल संचयन में ऐसा नहीं होता है।

(4). आमजनों तथा स्थानीय लोगों को बड़े बांधों से लाभ नहीं होता है, इसका लाभ जमींदारों, पूंजीपतियों, बड़े किसानों, उद्योगपतियों और शहरी लोगो को मिलता है।

(5). जल संचयन प्रणाली में आम लोग संग्रहित किए गए जल का उपयोग व्यक्तिगत हित में निजी कार्यों हेतु और कृषि क्षेत्रों में करते हैं। और साथ ही जमा किए गए पानी का उपयोग पानी की गुणवत्ता को ध्यान में रखते हुए घरेलू उपयोग के लिए कर सकते हैं। 

वर्षा जल को रोकना ही जल संचय का बड़ा उपक्रम हो सकता है। इसके लिये छोटी-बड़ी जल संरचनायें बड़े पैमाने पर निर्मित की जायें, यह परिस्थितियों की मांग है। जल का संचय, स्थानीय उपयोग और आवश्यकता के अनुपात में होना जरूरी है। सुदूर क्षेत्रों से परिवहन के कारण जल बड़ी मात्रा में बर्बाद होता है। जल के आवागमन या परिवहन को कम करके स्थानीय जल प्रबन्धन पर जोर दिया जाना आवाश्यक है। वर्षा जल संचयन के लिए आमजन के हितार्थ सरलतम तकनीकी का विकास किया जाना चाहिए।


5. जल पुनर्भरण (water recharge)

भू-जल के स्तर को बढ़ाने के लिए किये गये प्रयास जल पुनर्भरण के तहत् आते हैं। जल पुनर्भरण जल पंचस का पांचवां सिद्धान्त है। वैसे तो भूजल प्राकृतिक रूप से स्वयं ही रिचार्ज होता रहता है परन्तु बढ़ते प्रदूषण तथा अति दोहन ने इसकी राह में भी रोड़े अटका दिये हैं। आज आवश्यकता है कि, भू-जल स्तर को बढ़ाने के उपाय ढू़ंढ़े जाएं। ताकि, जल की बढ़ी हुई मांग को पूरा किया जा सके और आने वाली पीढ़ी के लिए भी जल संरक्षित रह सके।

आज दुनिया में उपलब्ध जल स्रोतों से प्राप्त जानकारी के अनुसार पृथ्वी पर विद्यमान जल में से लगभग 97.2ः जल खारे पानी के रुप में समुद्रों में है और शेष 2.8ः मीठा जल पृथ्वी पर अन्य स्रोतों के रुप में उपलब्ध है। पृथ्वी पर विद्यमान शुद्ध जल में से 68.7ः जल बर्फ के रुप में हिमनदों एवं हिमखंडों पर, 30.1ः जल पृथ्वी के भीतर भूमिगत जल के रुप में, 0.3ः जल सतही जल के रुप में और 0.9ः जल अन्य रुपो में पृथ्वी पर विद्यमान है। सतह पर उपलब्ध जल का 87ः जल झीलों, तालाबों आदि में, 11ः मृदा नमी, आद्रता आदि के रुप में और शेष 2ः जल नदियों में विद्यमान है।

 भू-जल पुनर्भरण

भारत में जल पुनर्भरण और प्रबन्धन का इतिहास सदियों पुराना है जिसके प्रमाण सर्वप्रथम सिंधु घाटी में पाए गए थे। तब से आज तक देश के विभिन्न क्षेत्रो में आवश्यकता के अनुरूप जल पुनर्भरण और प्रबन्धन को अपनाया जाता रहा है। भारतीय संस्कृति में जल को आत्म तत्व के रूप में स्वीकार किया गया है। यही कारण है कि, भारत में प्रकृति प्रदत्त जल को सदैव सम्मानीय तथा पूजनीय माना गया है। जल संरक्षण के लिए भारत में क्षेत्र की आश्यकता के अनुसार परम्परागत व्यवस्थाओं ने जन्म लिया तथा यही व्यवस्था उस क्षेत्र विशेष की सांस्कृतिक धरोहर बन गयी। यही पारम्परिक व्यवस्थाएँ उस क्षेत्र की पारिस्थितिकी और संस्कृति की विशिष्ट देन होती है, जिनमें उनका विकास उस क्षेत्र की आवश्यक्ताओं के अनुसार होता है। ये परंपरागत व्यवस्थाएँ न केवल काल की कसौटी पर खरी उतरी हैं, बल्कि उन्होंने स्थानीय जरूरतों को भी पर्यावरण में तालमेल रखते हुए पूरा किया है। हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड में जल संचयन तथा जल पुनर्भरण के लिए खाल-चाल की व्यवस्था रही है। यही कारण है कि, यहां आज भी कई स्थानों के पीछे खाल शब्द का उपयोग होता है। जैसे- जयहरीखाल, दूधारूखाल, बुबाखाल आदि। आधुनिक व्यवस्थाएँ जहाँ पर्यावरण का दोहन करती हैं, इसके विपरीत प्राचीन व्यवस्थाएँ पारिस्थितिकीय संरक्षण पर जोर देती है। वर्तमान में अति दोहनकारी आधुनिक व्यवस्थाओं ने हमारी सांस्कृतिक विरासत को लील लिया। जिसके कारण जल संकट जैसी आफत हमारे सम्मुख मुहं बाये खड़े है। जबकि इसका समाधान हमारी सांस्कृतिक विरासत में छिपा हुआ है। आज आवश्यकता है पुनः उन व्यवस्थाओं को अपनाने की।

भूमिगत जल के पुनर्भरण की आसान, उपयोगी और सस्ती तकनीको से देश के किसान अंजान नहीं हैं बल्कि उन्हें प्रोत्साहन की जरूरत है। किसानो को सांस्कृतिक विरासत के बारे में बताया जाए कि जहाँ पानी बरसकर भूमि पर गिरे उसे यथासंभव वहीं रोका जाए। ढाल के विपरीत जुताई तथा खेतों की मेड़बंदी से पानी रुकता है। खेतों के किनारे फलदार वृक्ष लगाना चाहिए। छोटे-बड़े सभी कृषि क्षेत्रों पर क्षेत्रफल के हिसाब से तालाब बनाना जरूरी है। ग्राम स्तर पर बड़े तालाबों का निर्माण गाँव के लिये जल उपलब्ध कराता है, साथ ही भू-गर्भ जलस्तर को बढ़ाता है। देश की मानसूनी वर्षा का लगभग 75 फीसदी जल भूमि जल के पुनर्भरण के लिये उपलब्ध है, देश के विभिन्न पारिस्थितिकीय क्षेत्रों के अनुसार लगभग 3 करोड़ हेक्टेयर मीटर जल का संग्रहण किया जा सकता है। रासायनिक खेती के बजाय परम्परागत जैविक खेती अपनाकर कृषि में जल का अपव्यय रोका जा सकता है।

 वाहिकाओं, नालियों एवं अन्य स्रोतों से आने वाले वर्षा जल को शुष्क जलवाही स्तर के पुनर्भरण के लिए सीधे इन संरचनाओं में पहुँचाया जा सकता हैं। शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में छतों पर इकठ्ठा होने वाले जल को संरक्षित कर इस तकनीक में पुनर्भरण के लिए उपयोग किया जा सकता हैं।

भू-जल पुनर्भरण एक जलीय वैज्ञानिक प्रक्रिया है। जहां पानी सतही जल से भू-जल में नीचे की ओर जाता है। पुनर्भरण प्राथमिक विधि है। जिसके द्वारा जल जलभृत में प्रवेश करता है। यह प्रक्रिया आमतौर पर पौधों की जड़ों के नीचे वडोज जोन में होती है और इसे अक्सर जल स्तर की सतह पर प्रवाह के रूप में व्यक्त किया जाता है। भूजल पुनर्भरण में जल स्तर से दूर संतृप्त क्षेत्र में जाने वाला जल भी शामिल है। पुनर्भरण स्वाभाविक रूप से (जल चक्र के माध्यम से) और मानवजनित प्रक्रियाओं (कृत्रिम भूजल पुनर्भरण) के माध्यम से होता है। जहां वर्षा जल और या पुनः प्राप्त पानी को उपसतह पर भेज दिया जाता है। भू-जल पुनर्भरण में जल चक्र का विशेष भूमिका अदा करता है। भूमि की सतह पर उपस्थित पानी वाष्पीकरण द्वारा एवं वनस्पतियों पर उपस्थित पानी वाष्पोत्सर्जन की प्रक्रिया से वातावरण में पहुंच जाता है। यही पानी क्षोभमण्डल में बादल के रूप में मौजूद होता है। संघनन होने पर यही पानी वर्षा के रूप में पुनः धरती पर गिरता है, और कई माध्यमों से मिट्टी में समाहित होकर निस्यंदन ओर रिसाव होने से भूमिगत जल स्तर तक पहुंचता है। जिससे भूजल स्तर में वृद्धि होता है। यह सम्पूर्ण प्रक्रिया भू-जल पुनर्भरण कहलाती है। वैसे तो भू-जल पुनर्भरण प्राकृतिक रूप से सम्पन्न होने वाली प्रक्रिया है परन्तु वर्तमान में मानवजनित अनेक कृत्रिम पुनर्भरण वैज्ञानिक विधियां भी मौजूद हैं। कृत्रिम पुनर्भरण विधि में भूजल के स्तर में वृद्धि करने के लिए सतही जल के अपवाह में सुधार किया जाता है। इसमें प्रमुख हैं -

कृत्रिम पुनर्भरण तकनीकें :

प्रत्यक्ष सतह तकनीक : इनमें बाढ़, बेसिन या टपकन टैंक, जलधारा वृद्धि, नाला और खांचा प्रणाली, अति सिंचाई आदि शामिल हैं।

प्रत्यक्ष उप - सतह तकनीकी : ये अंतः लक्ष्य (इंजेक्शन) कुएं या पुनर्भरण कुएं, पुनर्भरण गड्ढा और चाप, खोदे गए कुएं का पुनर्भरण, बोरहोल फ़्लडिंग, प्राकृतिक नए जलमार्ग, गुहाओं को जल से भरना आदि शामिल हैं।

सतही - उप -सतही तकनीकी।

विज्ञान तकनीकें : सतही जल जागरण से फिर से भरना, जलभृत में सुधार करना आदि शामिल हैं।


औद्योगिक क्षेत्र में जल प्रबंधन

आधुनिक युग में उद्योगों का विस्तार किसी भी राष्ट्र के विकास के लिये बहुत आवश्यक है। उद्योगों के समुचित विस्तार एवं विकास से किसी भी राष्ट्र की राष्ट्रीय ही नहीं अपितु अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक स्थिति में मजबूती आती है और सामजिक स्तर पर लोगो को बड़े पैमाने पर रोजगार मिलता है, जिससे उनके जीवन स्तर में सुधार आता हैं। अधिकांश उद्योगों में बहुत अधिक मात्रा में पानी कि आवश्यकता होती है इसलिये आधुनिकीकरण के युग में अधिकांश उद्योग जल की उपलब्धता के कारण नदियों, झीलों एवं सागरों के किनारे लगाए जाते हैं। उद्योगो मे बहुत बड़ी मात्रा में पानी का उपयोग होना बड़ी समस्या नहीं है अपितु इन उद्योगो से विभिन्न रसायनो से युक्त प्रदूषित जल का शोधन किये बिना विसर्जित करना बहुत बड़ी समस्या है। आज देश के कई भागो में उद्योगो के द्वारा उपयोग किये जा रहे जल के मुकाबले कई गुना ज्यादा पानी इनसे विसर्जित किये जा रहे प्रदूषित जल के कारण बर्बाद हो रहा है। देश के कई क्षेत्रो में साफ पानी के स्रोत प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है, लेकिन उद्योगो के द्वारा विसर्जित किये जा रहे प्रदूषित जल के कारण इन स्रोतो का पानी उपयोग करने के लायक नहीं रहा जिसके कारण इन क्षेत्रों में भी जल संकट पैदा हो गया है। सरकारी एवं गैरसरकारी स्तर पर संस्थाओं द्वारा इन क्षेत्रो के जल स्रोतो को साफ करने एवं उपयोग करने लायक बनाने के लिये भरसक प्रायस किये जा रहे है, जिसके बहुत ही सकारात्मक परिणाम प्राप्त हुए है, लेकिन इस क्षेत्र में अभी जल प्रबंधन के लिये बहुत कार्य करने की आवश्यकता हैं।

इस समस्या से निपटने के लिए जल प्रबंधन के साथ-साथ भूजल संचयन एवं पुनर्भरण पर भी विशेष ध्यान देने कि आवश्यकता है। भूजल संचयन एवं पुनर्भरण के लिए क्षेत्र के अनुरूप प्राकृतिक अथवा कृत्रिम तकनीकों को अपनाया जा सकता है। कृषि क्षेत्र, आवासीय क्षेत्र एवं औधोगिक क्षेत्र में भी जल प्रबंधन के लिए विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है जहाँ हमारे जल स्रोतों का सबसे अधिक दोहन किया जाता है। भूजल संचयन एवं प्रबंधन के लिए क्षेत्रानुसार छोटे बाँध या नाला बाँध, कुओं, कुण्डों एवं हाथ पंपों का पुनर्भरण, वाहिका फैलाव, अंतःस्त्रवण कुण्ड आदि तकनीको को अपना कर समस्या के निवारण की कोशिश की जानी चाहिये। वैसे भूजल संचयन एवं प्रबंधन के लिए काफी प्रयास किये जा रहे है, हाल ही में भारत सरकार ने इस समस्या के हल के लिए जल शक्ति अभियान के नाम से हर गाँव हर घर में सन 2024 तक जल पहुंचाने का लक्ष्य रखा गया है। इस अभियान के अंतर्गत देश के अतिप्रभावित जिलों का चयन कर क्षेत्रीय, राज्य एवं केंद्रीय अधिकारियों एवं वैज्ञानिकों साथ लेकर कार्य शुरू किया गया है। वैसे पहले से ही इस समस्या के हल के लिए सरकारी एवं गैरसरकारी संगठनो व क्षेत्र के मूल निवासियों के सहयोग से कई तरह के प्रयास किये जा रहे है, और बहुत से क्षेत्रों में इसके सकारात्मक परिणाम भी प्राप्त हुए है, लेकिन अभी भूजल संचयन, पुनर्भरण एवं प्रबंधन के क्षेत्र में युद्ध स्तर पर कार्य करने की आवश्यकता है।

समय आ गया है कि, हम जल पंचस के सिद्धान्तों के बारे में गम्भीरता से विचार करें तथा जल पंचस के सिद्धान्तों की पहुंच घर-घर तक वैश्विक स्तर पर हो। ताकि वैश्विक मानव अधिक से अधिक उन उपायों को दैनिक जीवन अपनाएं जिससे भावी पीढ़ियों के लिए जल संरक्षित हो सके। जल की एक-एक बूंद को सहेजने की आवश्यकता है। हम वर्षा जल अधिक-से-अधिक बचाने की कोशिश करें। जल पंचस (जलादर, जल मितव्ययिता, जल पुनर्पयोग, जल संचयन, जल पुनर्भरण) प्रत्येक मानव के कार्य व्यवहार में आये क्योंकि जल का कोई विकल्प नहीं है, इसकी एक-एक बूँद अमृत है। इन्हें सहेजना बहुत ही आवश्यक है। यदि आज जल नहीं सहेजा गया तो आगे चलकर स्थिति भयावह हो सकती है। जल पंचस से जल संरक्षण की राह आसान हो सकती है, बस एकबार इसे स्थायी रूप से दैनिक कार्यव्यवहार में लाने की आवश्यकता है।

आओ! हम सब मिलकर जल संरक्षण के लिए जल पंचस के सिद्धान्तों से आत्मसात् करें।


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