जल संरक्षण हमारी परम्परा - TOURIST SANDESH

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मंगलवार, 28 जून 2022

जल संरक्षण हमारी परम्परा

 

जल संरक्षण हमारी परम्परा


सुभाष चन्द्र नौटियाल



 





उत्तराखण्ड
प्राकृतिक सौंदर्य की दृष्टि से भारत का ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व का महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं। यहां की देव संस्कृति धरती के कण-कण में देवत्व का एहसास कराती है। सनातनी संस्कृति के वाहक, हिमालय के रमणीक वादियों में कल-कल-छल-छल बहती जल धाराओं का मधुर संगीत यहां की लोक संस्कृति में समाया हुआ है। परोपकारी इन जल धाराओं को सहजने तथा लोक महत्व के कारण यहां की देव संस्कृति में परम्परागत लोकनीति का पार्दुभाव हुआ, यही परम्परायें सदियों से मानव की पीढ़ी-दर-पीढ़ी आने वाली भविष्य की पीढ़ियों में अग्रसारित होती गयी। इन परम्परागत लोकनीतियों का दुखद पहलू यह रहा कि, भारत में बाजारवाद के प्रसार के साथ ही लोक महत्व की परम्परागत लोकनीतियों का धीरे-धीरे लोप होता चला गया। शेष जो बचा है वह अपसंस्कृति का जहर जिसे आज हम सब गटकने के लिए तैयार बैठे हैं। भले ही परिणाम जो हो परन्तु अपसंस्कृति का यही जहर आज हमारे मन-मस्तिष्क पर इस कदर हावी हो चुका है कि हम लोक महत्व की परम्परागत रीति-नीतियों को भूल चुके हैं। अपसंस्कृति का यही जहर जब पिफजाओं में तैरने लगा तो मूल जल स्रोतों के लिए बनायी गयी परम्परागत लोकनीति की साफ-साफ अनदेखी होने लगी। इसी अनदेखी तथा नासमझी के कारण जल के मूल स्रोत या तो सूख गये या दूषित हो गये। उत्तराखण्ड जिसे कि विश्व का मीठे पानी का वाटर टैंक के नाम से जाना जाता है, उसका जल भी अपसंस्कृति की चपेट में आकर दूषित हो गया।
 जल संरक्षण उत्तराखण्ड के ग्रामीणों की परम्परा का एक अहम भाग रहा है। जल संरक्षण की इन्हीं परम्पराओं को उत्तराखण्ड की लोक संस्कृति में समाहित करते हुए इसके लिए सदियों पूर्व लोकनीति बनायी गयी थी। जिसका पालन करना प्रत्येक ग्रामवासी के लिए अनिवार्य था। वर्तमान में हमारे रहन-सहन रीति-रिवाजों में आये बदलाव के कारण यही लोकनीति हमारे जीवन से गायब हो चुकी है या मात्र औपचारिकता भर रह गयी है। वर्तमान में यही जल संकट का मुख्य कारण है। पहले उत्तराखण्ड के ग्रामीण क्षेत्रों में कम से कम साल में एक बार अनिवार्य रूप से सामूहिक तौर पर ग्रामीण जल स्रोतों की साफ-सफाई करते थे तथा जल स्रोतों का संरक्षण प्रत्येक ग्रामवासी की जिम्मेदारी में स्वयं ही समाहित था। गांव में प्रत्येक नवविवाहिता का गृह प्रवेश तभी पूर्ण माना जाता था जब वह जल स्रोत की विधिवत् पूजा-अर्चना करती थी। वास्तव में यह परम्परा सिर्फ नव विवाहिता को जल स्रोतों से परिचित करना था बल्कि उसे जल संरक्षण की जिम्मेदारी से रूबरू कराना भी था। चाल-खालों को देखभाल पूरे मनोयोग से की जाती थी। चाल-खाल के संरक्षण एवं संवर्धन में जनभागीदारी तन-मन धन से की जाती थी। लेकिन सुविधा भोग हेतु पलायन के दंश ने हमारी परम्परागत लोकनीतियों को ग्रहण लगा दिया है। आज आवश्यकता है कि लोगों को हमारी संस्कृति में समाहित जल संरक्षण परम्परागत लोकनीति के महत्व को जन-जन तक प्रचारित-प्रसारित किया जाए।
 इस लोकनीति को अपनाने से ना सिर्फ प्राकृतिक जल स्रोतों का संरक्षण होगा बल्कि परम्पराओं का पुनः जीवित करने से मौजूदा जल संकट स्वयं ही समाप्त हो जायेगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि राज्य सरकार तथा उत्तराखण्ड निवासी, प्रवासी अपनी मूल संस्कृति में समाहित परम्परागत लोकनीतियों को आत्मसात् करते हुए मौजूदा जल संकट से ना सिर्फ निजात पायेंगे बल्कि एक साफ-स्वच्छ, स्वस्थ, निश्छल जीवन भी पायेंगें।

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