लहुलुहान होती चिपको की धरती - TOURIST SANDESH

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बुधवार, 6 अप्रैल 2022

लहुलुहान होती चिपको की धरती

 लहुलुहान होती चिपको की धरती

देव कृष्ण थपलियाल


70 के दशक में गौरा देवी के नेतृत्व में जिन जंगलों को बचाने की मुहिम में महिलाओं ने अपनी जान की बाजी लगाकर उन पेडों को चिपक कर बचाया था, जिन्हें राजसत्ता के ठेकेदार और उनके आदमी कुल्हाडी और आरी लेकर काट रहे थे। आन्दोलन की साक्षी तथा चिपको आन्दोलन में गौरा देवी की सहयोगी श्रीमती बाली देवी नें कहा कि जब गॉव के पथरीले रास्तों से ठेकेदार और उनके मजदूर हाथ में कुल्हाडी, आरी लेकर जंगल की ओंर बढ रहे थे, तो महिलाओं ने एकजुट होकर हरे पेडों पर अंग्वाल मारकर (चिपककर) ठेकेदार व उसके लोगों को जंगल से भगानें पर मजबूर कर दिया । इस दौरान महिलाओं नें जंगलों कें संरक्षण का संकल्प लिया था। 26 मार्च 1974 को चमोली जनपद के रैंणी गॉव में गौरा देवी के नेतृत्व में 27 महिलाओं नें जंगलों को कटने से बचानें के लिए चिपको आन्दोलन शुरू किया था । जिसका व्यापक असर उत्तराखण्ड के सभी क्षेत्रों में हुआ था, स्थानीय जनसमुदाय खासकर महिलाओं नें गॉव-गॉव में वनों को बचानें और उनके संरक्षण के लिए बैठकें आयोजित की और सुनिश्चित रणनीतिक तरीके से वनों का संरक्षण किया। जनजागरण और जागरूकता कार्यक्रम जैसे गीत गढवाली गीत, कविता गाकर, सभा-बैठकों तथा केदार घाटी के तरसाली गॉव के दयानंद को शंख ध्वनी बजाकर लोगों को जागरूक करनें का काम सौंपा गया था, के माध्यमों से लोगों वन और प्राकृतिक संपदा के प्रति जागरूक किया । 

चिपका डाल्युं पर न कटण द्यावा,
पहाडों की संपति अब न लुटण 
द्यावा।
मालदार ठेकेदार दूर भगोला ।
छोटा-मोटा उद्योग घर मा लगोगा   

  देश-दुनियॉ के मानचित्र पर  यह आन्दोलन वन और पर्यावरण संरक्षण की दिशा में नजीर के रूप पेश हुआ, तमाम बुद्विजीवियों को यह संदेश गया कि वन व प्रकृति के बिना धरा पर मनुष्य का कोई अस्तित्व ही नहीं है। जिस कारण आज भी राज्य में प्रचुर वन संपदा विद्यमान है।

उत्तराखण्ड का 71 फीसदी क्षेत्र 38,000 वर्ग किलोमीटर वनाच्छादित है। जिसमें वन्य जीव अभयारण्य, संरक्षित दुर्लभ वनस्पति उद्यान घोषित पारिस्थितिकीय संवेदनशील क्षेत्र और ग्लेशियरर्स हिमपोषित गंगा, यमुना और उनकी सहायक नदियों के उद्गम क्षेत्र भी हैं। जो आज वनाग्नि और दूसरे मानव जनित कारणों से क्षतिग्रस्त हो रहें हैं, अथवा मनुष्य की विकास व आधुनिकता की अंधी दौड ने कहीं कुचल कर रख दिया है। चार धाम के लिए निर्मित हो रही ऑल-वेदर-रोड प्रोजेक्ट की आड में हो, चाहे ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल लाइन के निर्माण की बात हो इन सभी निर्माण कार्यों से वन और प्राकृतिक संपदा का जितना नुकसान हुआ है, रेल परियोजना में कई स्थानों पर सुरंग बनानें के लिए बडे-बडे विस्फोट हो रहे हैं, जिससे प्राकृतिक जल स्रोतों सूख रहे हैं, कोट विकासखण्ड के जनासू ग्राम में सुरंग निर्माण कार्य से रामपुर व कांडी गॉव के ग्रामीण भी मुसीबत में है, यह स्थिति कई स्थानों में हैं, उससे ’चिपको आंदोलन‘ की धरती को लहुलुहान हुई है। इसी साल पिछले महीने मार्च में में बदरीनाथ वन प्रभाग के मध्य पिंडर रैंज थराली में तीन दिन से लगातार जंगल जल रहे थे, पीपलकोटि के पास कोडिया के घने जंगल विगत कई दिनों से धधक रहें हैं जिसके चलते आग पूरे जंगल में फैल गईं, जिस कारण अभी भी आसपास के क्षेत्र-जंगलों में अभी भी धुआं फैला हुआ है। तब सरकारी वन विभाग के फील्ड व जीरों ग्राउण्ड पर काम करनें वाले कर्मचारी राजधानी देहरादून, पौडी, तथा गोपेश्वर में सेमिनारों, बैठकों, व प्रशिक्षणों में व्यस्त थे। 2021 में यहॉ 60 हैक्टेयर जंगल जला था तथा वनाग्नि की 81 घटनाएं हुईं थी ।

 उत्तराखण्ड के जंगलों में लगनें वाली इन वनाग्नियों से ग्लेशियरों को खतरा पैदा हो गया है। भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय नें 2020 में रिर्पोट में कहा था, कि खेतों के अपशिष्टों को जलाने और जंगलों की आग से ग्लेशियरों को खतरा पैदा हो रहा है। तापमान बढने ंसे केदारनाथ-बदरीनाथ जैसे स्थानों में गर्मी बढनें लगी है, जबकि ये तीर्थस्थल ऐसे थे जहॉ मई-जून में भी शीत का प्रभाव रहता है । वाडिया संस्थान के पूर्व वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ0 डी0पी0 डोभाल का कहना है कि केदारनाथ में जमा बर्फ के प्राकृतिक रूप से पिघलनें का समय मई आखिरी तक रहता है। मशीनों के चलनें से होने वाली आवाज और निकलनें वाले धुॅए से गर्मी बढ रही है। जिस कारण वहॉ बर्फ तेजी से पिघल रही है। धामों में अधिकांश बर्फ पिघल चुकी है ,जबकि अभी यात्रा सीजन के लिए एक माह का समय बचा है। स्थानीय लोग बताते हैं, कि यात्रा काल में कई-कई दिनों तक बर्फ रहती थीं जो तीर्थयात्रियों के लिए भी आकर्षण का केंद्र हुआ करती थीं । विगत वर्ष 07 फरवरी 2021 को को ऋषिगंगा के उद्गम स्थल से ग्लेशियर टूटने से नदी में बाढ़ आ गईं थी। जिसमें ’चिपको’ की जन्मभूमि ‘रैंणी गॉव‘ व जंगल भूस्खलन की जद में आ गया था। निचले हिस्से में आज भी गॉव के 16 परिवार पुर्नवास की मांग कर रहे हैं।   

यही हाल पूरे राज्य का है। एक अनुमान के अनुसार साल 2000 में उत्तराखण्ड के राज्य बनने  के बाद लगभग 50,000 पचास हजार हैक्टेयर वन भूमि वनाग्नियों की भेंट चढ चुका है। चिपको ऑदोलन की महज 48 वीं वर्षगॉठ पर हमने चिपको आन्दोलन को तो स्मरण रखा परन्तु उसके उद्देश्यों की विस्मृत कर दिया ? ‘चिपको’ की जन्म दायिनी भूमि रैंणी के जंगलों में पिछले दिनों कई पेडों को क्षति पहुॅचाईं गई, जब स्थानीय महिलाऐं और लोग सूचना पर वहॉ पहुॅचे तो 15-20 पेडों को वन तस्करों ने खोखला किया हुआ था,  लकडी के टुकडों को काटकर जमीन में छुपाया था, बताया जा रहा है  इन टुकडों से फैंसी कटोरे-गिलास तस्करी की जाती है, जिसे बडी कीमत पर बेचा जाता है। वहीं कई पर्यटक स्थलों के आसपास अपनीं व्यावसायिक गतिविधियों को चलाने के लिए प्रकृति और वनसंपदा के साथ जमकर ‘खेल‘ किया जा रहा है, कोटद्वार निवासी एक व्यक्ति ने हाईकोर्ट में जनहित याचिका के माध्यम से अल्मोडा के विनसर क्षेत्र में बन रहे व्यावसयिक केंद्रों के बारे में शिकायत की है, विनसर वन्य जीव अभयारण्य अल्मोडा में बिना सरकार और पीसीबी की अनुमति के बिना बनाये जा रहे है, कुछ लोग सरकारी अधिकारियों के साथ मिलकर प्रतिबंधित क्षेत्र विनसर वन्य जीव अभयारण्य अल्मोडा में होटल, रिजार्टों, व रेस्टोंरेंट जैसे व्यावसायिक गतिविधियॉ संचालित कर रहे हैं।  

चिपको आन्दोलन की स्वर्ण जयन्ती के सुअवसर पर सरकार, नीति-निर्धारकों, पर्यावरणविदों आम बुद्विजीवियों के साथ बचे-खुचे वनजीवियों को पुनः विचार करना होगा, कि चिपको आंदोलन की सार्थकता से ही व्यक्ति, देश और समाज स्वस्थ, सुखी व उन्नत बन सकता है। ‘चिपको‘ के संदेश को देश व्यापी बनाने के लिए समवेत प्रयासों की जरूरत है।

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