स्व की पहचान से होगा तंत्र मजबूत - TOURIST SANDESH

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रविवार, 22 अगस्त 2021

स्व की पहचान से होगा तंत्र मजबूत

विशेष सम्पादकीय

 स्व की पहचान से होगा तंत्र मजबूत

भारत के महान अध्यात्मिक गुरू स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि, यदि भारत अपनी अध्यात्मिक शक्ति को पहचान ले तो वह पुनः विश्व गुरू बन सकता है। ईसा पूर्व आठवीं सदी में बिखरते सनातन धर्म को पुनः एक जुट करने वाले आदि गुरू शंकराचार्य ने सनातन धर्म की जागृति कर पुनः स्थापित करने के लिए भारत की आध्यात्मिक शक्ति का ही जागरण किया था। आदि गुरू शंकराचार्य ने ना सिर्फ भारत की आध्यात्मिक शक्तियों को जागृत किया बल्कि उन्हें एक सूत्र में बांधने के लिए उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम में सनातनी संस्कृति को परिष्कृत करने के लिए उत्तर के बद्रिकाश्रम में ज्यातिर्पीठ, दक्षिण के रामेश्वरम् में श्रृंगेरीपीठ, पश्चिम के द्वारका में शारदापीठ तथा पूर्व के पुरी में गोवर्धनपीठ की स्थापना की थी। इन्हीं अध्यात्मिक शक्तियों के जागरण के कारण ही भारत विश्व गुरू बन पाया था। भारत में जब-जब आध्यात्मिक शक्तियां कमजोर हुई हैं तब-तब भारत बिखराव, विखण्डन और गुलाम मानसिकता का शिकार हुआ है। यदि भारत को पुनः विश्व गुरू की पदवी हासिल करनी है तो भारत को अपनी अध्यात्मिक शक्तियों को पुनः जाग्रत करना होगा। यदि भारत को अपनी स्वतंत्रता को अखण्ड और अक्षुण्ण रखना है तो उसे स्व की पहचान करनी होगी। बिना स्व की पहचान किये तंत्र मजबूत नहीं किया जा सकता है। भले ही भारत भौगोलिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से विविधता वाला देश है, बोली, भाषा, रीति-रिवाज, पहनावा तथा मौसम में भिन्नता है। यह बात इस देश के लोगों, संस्कृति और मौसम में भी प्रमुखता से दिखाई देती है। हिमालय पर्वत की अनवरत श्रृंखला से ढकी बर्फ की चोटियों से लेकर सुदूर दक्षिण के दूर दराज के पठार समुद्र तटों तक, पश्चिम के रेगिस्तान से पूर्व के नम डेल्टा तक, सूखी गर्मी से लेकर पहाडियों की तराई के मध्य पठार की ठण्डक तक, भारतीय जीवनशैलियां इसके भूगोल की भव्यता स्पष्ट रूप से दर्शाती हैं। एक भारतीय के परिधान, भोजन और आदतें उसके उद्भव के स्थान के अनुसार भले ही अलग-अलग हो सकते हैं। परन्तु सभी भारतीयों में अध्यात्मिक शक्तियों का समान रूप से समावेश है तथा यही अध्यात्मिक शक्ति सभी भारतीयों को आपस में जोड़े रखती है। आध्यत्मिक शक्ति से ही स्व की पहचान हो सकती है तथा स्व की पहचान से ही योग का सम्बन्ध स्थापित होता है। भारतीय संस्कृति अपनी विशाल भौगोलिक स्थिति के समान ही विविधता को धारण करती है। यहां के लोग विविध भाषाएं बोलते हैं, अलग- अलग तरह के कपड़े पहनते हैं, भिन्न भिन्न मतों का पालन करते हैं, अलग-अलग प्रकार का भोजन करते हैं किन्तु उनका स्वभाव एक जैसा होता है। तो चाहे वह कोई खुशी का अवसर हो या कोई दुख का क्षण, लोग पूरे मन से इसमें भाग लेते हैं, एक साथ खुशी या दर्द का अनुभव करते हैं। कोई त्यौहार या आयोजन किसी घर या परिवार के लिए सीमित नहीं है। पूरा जनसमुदाय या आस-पास इस अवसर पर खुशियां मनाने में शामिल होता है, इसी प्रकार एक भारतीय विवाह मेल-जोल का आयोजन है, जिसमें न केवल वर और वधु बल्कि दो परिवारों का भी संगम होता है। चाहे संस्कृति या धर्म का मामला हो सांस्कृतिक मोल-जोल सदैव बना रहता है। इसी प्रकार दुख में भी पड़ोसी और मित्र उस दर्द को कम करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यही भारतीयता की वास्तविक पहचान है। भारत की वैश्विक छवि एक उभरते हुए और प्रगतिशील राष्ट्र की है। सच ही है, भारत में सभी क्षेत्रों में कई सीमाओं को हाल के वर्षों में पार किया है, जैसे कि वाणिज्य, प्रौद्योगिकी और विकास आदि और इसके साथ ही उसने अपनी अन्य रचनात्मक बौद्धिकता का समावेश भी किया है। आपको आश्चर्य होगा कि, यह एक यह वैकल्पिक विज्ञान है, जिसका निरंतर अभ्यास भारत में अनंतकाल से किया जा रहा है। अपनी योगशक्ति के बल पर ही भारत ने विश्व मानव की जटिल से जटिलतम समस्याओं का निराकरण सरलतम ढ़ग से किया है।

वर्त्तमान समय में मानव के जीवन की बढ़ती जटिलताओं के कारण मानव मानसिक रूप से बैचेन, व्यग्र तथा उग्र होता जा है जिसके कारण वह मनः अशान्ति को प्राप्त हो चुका है। भारत के अध्यात्म विज्ञान में विश्व के मानव की इस बैचेनी को शांत करने का आसान उपाय है, जिसे हम ध्यान के नाम से जानते हैं तथा इसके साथ जुड़ी है आध्यात्मिकता। ध्यान और योग भारत तथा भारतीयता आध्यात्मिकता के समानार्थी हैं। ध्यान लगाना योग का सबसे महत्वपूर्ण घटक है, जो कि मानव को मानसिक तथा शारीरिक दोनां रूप से स्वस्थ रखता है। योग में ध्यान का अर्थ सामान्य रूप से मन को अधिक औपचारिक रूप से केन्द्रित करने और स्वयं को एक क्षण में देखने से संदर्भित किया जाता है। योग-ध्यान का निरन्तर अभ्यास ही स्व की पहचान के लिए आवश्यक है।  

भारतीय नागरिकों की सुंदरता उनके साहस, लगन, मेहनत, उद्यमशीलता, विश्वबन्धुत्व की भावना तथा विविध संस्कृतियों के मिश्रण में निहित है जिसकी तुलना एक ऐसे उद्यान से की जा सकती है जहां कई रंगों और वर्णों के फूल हैं, जबकि उनका अपना अस्तित्व बना हुआ है और वे भारत रूपी उद्यान में वसुधैवकुटम्बकम् की सुंदरता बिखेरते हैं। आज भारत की आवश्यकता उसक स्व के पहचान से करने की है ताकि आने वाले समय में भारत सम्पूर्ण विश्व का नेतृत्व कर सके।


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