’मुफ्तखोरी’ की राजनीति और ‘उत्तराखण्ड’ - TOURIST SANDESH

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रविवार, 22 अगस्त 2021

’मुफ्तखोरी’ की राजनीति और ‘उत्तराखण्ड’

 ’मुफ्तखोरी’ की राजनीति और ‘उत्तराखण्ड’

देव कृष्ण थपलियाल

 खासे चिंतित दिख रहे, पल्ली गॉव के पूर्व ग्राम प्रधान हरपाल फौजी की उम्र अब 80 पार हो चूकीं हैं, उनकी उदासी और बेचेनीं का कारण उनकी बंजर, विरान व उजाड हो चुकीं, खेत-बाडी, गॉव, गलियारे, गाय-भेंस व बकरियों से ठसा-ठसा भरी रहनें वालीं गोठ-गोशालाऐं हैं,  जिसे उन्होंनें फौज में जानें से पहले खुब सींचा था, खुब फल-फूल, व सब्जी-भाजी ऊगाई और खाईं थीं, बताते हैं, कि तब वे अपनें स्वर्गीय माता-पिताजी व बचपन में दादी के साथ के साथ मिलकर इन खेतों में बिताए दिनों की रंगत वे आज भी नहीं भूलते हैं ? उनका स्वस्थ शरीर इस बात की तस्दीक कर रहा है, इन खेत/खलियानों की उपजी फसल से वे आज भी कितनें तन्दूरस्त हैं, भूखे सोंनें की नोबत तो कभी नहीं आईं, बल्कि इस पैदावार से उनके सगे-संमंधियों को भी सहारा मिला ! इतना कहते वे फिर उदास हो जाते हैं ? 

वाकई एक जमानें मे यहॉ के वाशिंदों नें पहाडों को काट-काट कर उपजाऊ जमीनें तैयार कीं उसमें खेती-बाडी और रहनें लायक आवास, जानवरो के लिए गोठ-गोशालाऐं बनाईं,   रात-दिन की मेहनत का परिणाम था कि उन्होंनें कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाये, अपनें स्वाभिमान को नहीं बेचा ? लोग ’रतजगा’ कर अपनें जरूरी कामों निपटाते थे, जंगलों को बचाना, खेत-खलिहानों को खाद-पानी से समृद्व करना उनकी नियति थीं, जिसका परिणाम था, खेत-गॉव इतनें समृद्व, इतनें खुशहाल थे, कि उसकी खुशबू हवा में तैरती थीं, न कोई गंभीर बीमारी, तनाव न कोई बेकारी थीं ? लोग सॉझीं-संस्कृति के तहत आपस में मिलजूल कर अपना जीवन-यापन करते थे ।

 लेकिन आज परिस्थितियॉ तेजी से बदलीं हैं, खासकर 20 साल पहले का यह ’पहाडी इलाका’ आज के ’उत्तराखण्ड’ से बिल्कुल अलग है, राज्य निर्माण के बाद की उपजी परिस्थितियों को देखकर बुर्जूग हरपाल की तरह हर कोई हैरान-परेशान है ? सवाल उठता   है, क्या यही विकास है ? ‘गॉव‘ जिस तेजी से उजडें हैं, उसी तेजी से लोगों की संस्कृति, सभ्यता, रीति-रिवाज, खान-पान और यहॉ तक की विचारों में गिरावट आई है ? ’राजनीति‘ और ’पैसा’ बनानें के खेल में निरन्तर पतन की ओर जा रहे ’राज्य’ को बनानें वाले आश्चर्य में है, कि क्या इसी को विकास कहते हैं ? ‘पलायन‘ के नाम पर तो कई-कई गॉव ’भूतही’ का दर्जा हासिल कर चूके हैं, जो बचे-खुचे गॉव हैं, उनकी लाज भी महज ‘कुछ बुजूर्गों’ के कारण है, तो फिर उस समृद्वि की बात करना ही बेमानी है, जिसकी ’आस’ हरपाल  फौजी जैसे लोग करते हैं ? 

बात करते हैं, राज्य के आम आदमी को निष्क्रिय करनें वाले ’इनर्जी बूस्टर’ की ? वह है, ’राजनीति’। पहले तो पहाड के लोगों को चुनावी राजनीति का हिस्सा बनाकर उनमें   ‘नेतागीरी‘ का चस्का जगाया फिर ‘वोटों‘ की फसल तैयार करनें के लिए जाति, क्षेत्र और धर्म बगीचे बनाये ? आज हालात ये हैं, कि विधायक, मंत्री, मुख्यमंत्री तथा पंचायत के जन प्रतिनिधियों के चुननें के समय पर ’विकास’ अथवा ’विजन’ को न देखकर जाति-बिरादरी को आधार मानते हुऐ ’वोट’ दिये जानें लगे हैं ? बची-खुची कसर, शराब, और पैसा बहाकर पूरी की जाती है। दो दशक में 11 मुख्यमंत्रियों का चयन, इस बात का प्रमाण है, कि राज्य में सब कुछ ठीक नहीं है ? इसीलिए राज्य की राजनीति में अब ’मुफ्त’ की ’राजनीति’ का वाइरस बडी तेजी से फैल रहा है, ताकि चुनाव की वैतरिणी को आसानीं  पार किया जा सके ! मतलब साफ है, लोगों को लालच देकर वोट बटोरा जाय, उन्हें ‘बेचारगी‘ की स्थिति में छोडा जाय ?    

अभी भी दिल्ली से चलकर आई एक सियासी दल नें 300 यूनिट बीजली फ्री देंनें का वादा किया है, भले अभी समझना मुश्किल है, कि यह कैसे संभव है ? खासकर बीजली कटौती से आम राज्यवासी व्यथित है। सुदूरवर्ती ग्रामीण इलाकों में रात उजाले के लिए लाइट आ जाये तो खुशियॉ मनाईं जातीं हैं, लोग जब बाजार-कस्बों में सरकारी दफ्तरों के लिए अपनें जरूरी कागजातों को बनानें/फोटो कापी करानें के लिए उन्हें यही सूनना पडता है, बीजली न होंनें के कारण कम्प्यूटर, जीरोक्स मशीन, इण्टरनैट कनैक्टीविटी बाधित है, वैसे ही भीषण गर्मी के दिनों में घरों के बेहाल होते हैं ? इसीलिए थोडे से सम्पन्न लोग बीजली से ज्यादा उसके विकल्पों पर भरोसा करनें पर मजबूर है। उस पार्टी का,  शायद ये वादा ज्यादा मुफीद होता कि बीजली कटौती कम अथवा नही की जायेगी ? परन्तु यहॉ तो दूसरे दलों नें भी नहले पर दहले मार कर ज्यादा बीजली ’फ्री’देनें ऐलान कर दिया ? परन्तु इसकी देखा-देखी मुख्य विपक्षी पार्टी कॉग्रेस नें सत्ता में आते ही दो गुनीं बीजली मुफ्त   देंनें का ऐलान किया है, वही सत्तारूढ भाजपा ने ंतो तुरंत ही इसे अमली जामा पहनानें की बात कहीं है ? परन्तु वास्तविक स्थिति ऑकलन पावर कारपोरेशन के खातों-बकायेदारो और उसके ढॉचागत विकास से मालूम पडेगा ? 

सस्ती और ’वोट बैंक‘ की राजनीति का प्रतिफल है, कि जो लोग मेहनत-मजदूरी कर अपनीं रोजी-रोटी के लिए पसीना बहाते थे, उन्हें भी सरकार नें ‘श्रममुक्त‘ कर ’मुफ्तभोगी‘ में राशन-पानी, उनके बच्चों के लिए बजीफे, स्कूल-यूनिफार्म, किताब-कापियॉ, और उनके बैंक खातों में तक अनेक योजनाओं के द्वारा पैसा रिलीज करनें जैसी सुविधाऐं उपलब्ध कराई हैं । एक उम्र के बाद सरकारी रोडवेज की गाडियों में मुफ्त में यात्रा करना, हास्पिटलों में निःशुल्क जॉच दवा वितरण अनेक सरकारी योजनाऐं हैं, बी0पी0एल0 कार्ड धारको को दी जानें वाली सुविधाऐं ऐसी है, कि सम्पन्न आदमी भी इस श्रेणी में आना चाहेगा ? ग्रामीण किसानों के लिए पशुपालन और कृषि को बढावा देंनें के नाम मुफ्त के बडे-बडे बजट के प्रशिक्षण कार्यक्रम, पशुधन, बीज, पौधों एवं चारा, कृषि उपकरणों की व्यवस्था की जा रही है, जो लोग सक्षम हैं, भी उन्हें भी सरकार मदद दे रही है ?

लेकिन सरकार की इन योजना/कार्यक्रमों का लाभ न तो किसी व्यक्ति विशेष को मिला न समाज को नहीं गरीबी हटी, और न किसी बडे लक्ष्य की पूर्ति हो सकी है ? सच्चाई ये है, कि तत्कालिक रूप से किसी को फायदा हुआ हो तो वह है, राजनीतिक पार्टी और नेता  ? आम लोंगों में इससे राज्य में अर्कमण्यता और निष्क्रियता जरूर बढी है, सरकार पर निर्भरता के कारण छोटे-बडे-मझोले उद्यमी, कामगारों के काम ठप हुऐ हैं  ?   

नतीजन उत्तराखण्ड की जलवायु और मिट्टी की उर्वरकता का निरंतर हस, जंगली जानवरों, बंदर, भालू, सुअरों और अन्य जानवरों का मानव बस्तियों में आकर लगातार उत्पात मचाना, आक्रमण करना जारी है, बंजर खेत-जारी है, जिन खेतों व जंगलों को बचानें के लिए यहॉ का मानव संसाधन जुटा रहता था, आज वो नदारद है।

केवल तत्कालिक फायदे से राज्य का भला नहीं होंनें वाला है ? दूरदर्शी योजना बनें,  इसके लिए जरूरी है, धरातल पर सोचा जाय, ऐसी नीतियॉ/योजनाऐं उत्पादित की जांय जिससे समाज में स्वस्थ प्रतियोगिता शुरू हो,  हॉ अगर कहीं कुछ असमर्थता/कठनाईंयॉ हैं तो सरकार को उसका निराकरण जरूर करना चाहिए । परन्तु राज्य के नागरिकों को खासकर पहाडी जनमानस  को किसी अपनीं कृपाओं पर जीनें को मजबूर 


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