फूलदेई : लोकपर्व .
“कौन हो तुम वसंत के दूत,
विरस पतझड़ में अति सुकुमार।
घन तिमिर में चपल की रेख,
तपन में शीतल मंद बयार।”
वाह कितनी सार्थक लग रही हैं हिंदी जगत के मूर्धन्य साहित्यकार जयशंकर प्रसाद जी द्वारा अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक‘कामायनी’ में लिखी गई ये पंक्तियाँ। वास्तव में प्रसाद जी की ये पंक्तियां उत्तराखंड के इस लोकपर्व ‘फूलदेई’ / ‘फूल संक्रान्ति’ त्यौहार की सटीक व्याख्या करती हैं। देवभूमि उत्तराखंड विभिन्न संस्कृतियों को समेटे एक विशाल सभ्यता का नाम है। कई तरह की जाति और जनजातियों के मिश्रण से बना यह राज्य अपने नैसर्गिक रूप में ही अपने त्यौहारों के माध्यम से अपनी सुन्दर सांस्कृतिक धरोहरों को बयाँ करता है। उत्तराखंड में हिन्दू मास की प्रत्येक संक्रान्ति को एक विशेष त्यौहार के साथ मनाया जाता है जो उस माह की विशेषता से जुड़ा होता है। जैसे, फसल को बोने से लेकर काटने पर, स्थानीय ग्राम्य देवताओं की पूजा पर, विवाहिता महिलाओं के मायके से आने और जाने पर अलग-अलग त्यौहारों का खूब प्रचलन है।
इन्हीं में से एक है चैत्र मास के प्रथम दिन से मनाया जाने वाला पर्वतीय अंचल का लोकपर्व त्यौहार फूलदेई! इस त्यौहार का खास तौर पर बच्चों को बहुत इंतजार रहता है। हिंदू कैलेंडर के अनुसार चैत्र मास से ही नवीन वर्ष शुरू होता है।इस संस्कृति का सबसे बड़ा महत्व ये भी देखने को मिलता है कि हिन्दू मान्यता में नवीन वर्ष को ठीक पतझड़ की समाप्ति और बसंत ऋतु के आगमन पर मनाया जाता है। और महीने भर चलने वाला यह लोकपर्व वैशाखी के दिन समाप्त हो जाता है।
यह समय नवीन ऊर्जा के संचार का होता है। खेतों में हरे गेहूँ और पीली सरसों नव वर्ष का स्वागत करते हैं। सर्दियों के मौसम की विदाई के उपरांत पहाड़ की ऊँची चोटियों पर पड़ी बर्फ धीरे-धीरे पिघलने लगती है। वनों में वृक्षों पर नई कोंपल आनी शुरू हो जाती हैं और हर फलदार वृक्ष फूलों से भर जाते हैं। लेकिन उत्तराखंड की पहचान विशेष रूप से खेतों की मुंडेर पर उगने वाले पीले फ्योंली के फूलों और जंगल में खिलने वाले लाल बुराँस के फूलों से की जा सकती है। ये दोनों फूल इतने खूबसूरत होते हैं कि कई लोक गीतों में प्रेमी और प्रेमिका के सौंदर्य की तुलना इनसे की जाती है। चारों ओर पहाड़ के जंगल, गाँवों में आड़ू, सेब, खुमानी, पोलम, मेलू के पेड़ों के रंग बिरंगे सफेद फूलों से बसंत के इस मौसम को बासंती बना देते है।
जंगलों से फूल चुनकर लाते बसंत के दूत ‘रिंगाल’ की टोकरियां जिनमें फूल लाए जाते हैं बन फुलोंटी घर की देहरी पर फूल
प्रकृति देवी की उपासना का प्रतीक है फूल संक्रान्ति हिन्दू वेद और उपनिषदों में प्रकृति को देवी के रूप में पूजनीय बताया गया है। जिसका प्रमुख उद्देश्य निश्चित रूप से मानव को प्रकृति के साथ आत्मीयता बढ़ाना और उसका संरक्षण करना है। फूलदेई त्यौहार में गाँव के बच्चे सुबह उठकर जंगलों में जाकर रंगीन फूल चुनकर लाते हैं और सूर्योदय से पहले उन्हें अपने घर के पूजा-स्थान, देहरी और चूल्हे को चढ़ाते हैं। साथ ही बच्चे सुबह घर-घर जाकर घरों और मंदिरों की देहरी पर रंगबिरंगे फूल, चावल आदि बिखेरते हैं। पलायन जैसी समस्या झेल रहा हमारा उत्तराखंड राज्य आज अपनी हर संस्कृति से न जाने क्यों विमुख होता जा रहा है। समय के साथ हर बड़े रीति-रिवाज, त्यौहार और परम्पराएँ बहुत सीमित होकर रह गई हैं।कुल मिलाकर यहाँ पर यह कहना समीचीन होगा कि, हम सभी को मिलकर अपनी सांस्कृतिक पहचान को बनाये रखने हेतु भगीरथ प्रयास करने होंगे।
आइये हम सब एकजुट होकर बाँस की लकड़ियों से बनी टोकरी में रंगीन फूल रखकर सतरंगी बयार का पदार्पण करने की कोशिश करते हैं, तभी हमारे उत्तराखंड के नौनिहाल भी इस त्यौहार की प्रासंगिकता के बारे में जान सकेंगे और इसका लुफ्त अपने घर के बड़ों के सानिध्य में रहकर बहुत ही बेहतरीन अंदाज में ले सकेंगे।
संग्रह एवं प्रस्तुति-- राजीव थापलियाल
सहायक अध्यापक (गणित) राजकीय आदर्श प्राथमिक विद्यालय सुखरौ देवी कोटद्वार पौड़ी गढ़वाल उत्तराखंड
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें