आत्मसंयम से करें आत्मसात्
सनातन धर्म,वैदिक संस्कृति में त्याग पूर्वक उपभोग पर जोर दिया गया। वर्तमान दौर में जबकि अतिभोगवाद अपने चरम पर है तो इस भौतिकवादी युग में काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय आलस्य तथा अहंकार आदि मनोविकारों का प्राधान्य है। आधुनिक मानव के मन पर इन मनोविकारों ने अधिकार जमा लिया है तथा अवसर पाते ही ये अपना दुष्प्रभाव दिखाने लगते हैं आज धर्म गुरू हों या उच्चाधिकारी आत्मसंयम के अभाव में अपने कार्यों से वर्षों से बनायी प्रतिष्ठा को क्षण भर में खो देते हैं। मनुष्य का जीवन स्वच्छ सुंदर परम पवित्रा नदी के प्रवाह की तरह है मनोविकार उस प्रवाह में बाधायें उत्पन्न कर उसे प्रदूषित कर देते हैं जिसके कारण मानव मन मलिन और निराशापूर्ण हो जाता है वह अविवेकी तथा अतार्किक निर्णय लेने लगता है जिसके कारण वह स्वयं तो गर्त की ओर जाता ही है परन्तु अपने आस-पास के वातावरण को भी प्रदूषित करता है। यदि मानव आत्मसंयमित होकर जीवन की राह में आगे बढ़ता है तो निश्चित रूप से उसे जीवन में सपफलता मिलती है।
गांधी जी ने क्रोध तथा हिंसा के विरू( प्रेम तथा अहिंसा के अस्त्रों का प्रयोग करते हुए जीवन में विजय प्राप्त की। भगवान बु( ने राजसी ठाट-बाट को छोड़कर मोह का त्याग किया तथा जीवन में सत्य की खोज की। वीर शिवाजी ने आत्मबल से अपेन शत्राुओं पर विजय प्राप्त की। जिस मानव में आत्मसंयम कूट-कूट कर भरा हो जीवन में उसकी जीत निश्चित है।
जो व्यक्ति इंद्रियों का दास होता है वह सदैव गुलामी का जीवन जीने के लिए मजबूर होता है। मन का गुलाम कभी भी स्वयं पर विजय प्राप्त नहीं कर सकते हैं। संयमहीन व्यक्ति सदा ही उत्साह शून्य, अधीर अविवेकी तथा क्रोधी होता है। ऐसा व्यक्ति सदैव समाज को दुष्प्रभावित ही करता है। आत्मसंयमी व्यक्तियों के सर्वदा उत्साह, धैर्य तथा विवेक रहता है। विवेकवान व्यक्ति ही सर्वदा समाज उद्वारक होता है, मन ही मानव की सबसे बड़ी शक्ति है। मन के बारे में तभी कहा गया है मन के हारे हार है, मन के जीते जीत, मानव मन के कारण ही हमें मनुज या मनुष्य कहा जाता है। मन की शक्तियों को नियंत्रित करने के लिए निरन्तर अभ्यास की आवश्यकता होती है। निरन्तर अभ्यास से ही आत्मसंयम जागृत होता है। क्योंकि मन बड़ा चंचल होता है तथा मानव की समस्त शक्तियों मन में ही समायी होती हैं। इसीलिए मन निरन्तर क्रियाशील रहता है। मन की शक्तियों को सकारात्मक कार्यों के साथ आत्मसात् करने से ही मन पर विजय प्राप्त की जा सकती है। वास्तव में आत्म-संयमता को ही मन की विजय कहा जाता है। गीता में मन विजय के दो उपाय बताये गये हैं अभ्यास और वैराग्य। मोह मुक्ति के नियमित अभ्यास से जीवन में असीम शक्तियां आ जाती है। मोह माया से विरक्त मानव स्वयं ही वैराग्य का धारण कर लेता है। बाहरी आक्रांताओं ने भारत पर बार-बार आक्रमण किये तथा जीतकर भी भारत को अपना नहीं सके, क्योंकि उनके पास नैतिक बल नहीं था। तन के बल पर हारा शत्राु बार-बार आक्रमण करने का उद्यत होता है, परन्तु मानसिक बल से परास्त शत्राु स्वयं ही यु( भूमि में गिर पड़ता है। आत्मसंयम से आत्मसात् कर स्वयं पर विजय प्राप्त की जा सकती है। इसीलिए हम प्रार्थना करते हैं- हमको मन की शक्ति देना.....। मन विजय करें, दूसरों की जय से पहले खुद की जय करें।
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