पुस्तक समीक्षा
कालड़ी से केदार
लेखक - मुकेश नौटियालमुद्रक - समय साक्ष्य देहरादून
समीक्षक - मदनमोहन कण्डवाल
किताब के शीर्षक से पहले-पहल लगता है कि आदिगुरु के जन्मस्थान से समग्र भारत होते हुये, उनकी ऐतिहासिक यात्रागत बातों का वर्णन यह किताब करेगी, पर यथार्थ मे यह न होता है, बल्कि उस सांस्कृतिक यात्रा को शोधते हुये लेखक 2012-13 और 2018 मे की गई खुद की चौबीस दिवसीय यात्रा के मार्फत, उस महान यात्रा का खाका खींचने मे सफल होता है।
आज तक मुझे तो द्वारीखाल ब्लाक पौडी़ गढ़वाल, उत्तराखंड मे कलोड़ी गाँव मात्र पता था और हमने शँकराचार्य और मण्डन मिश्र की अर्धांगिनी मध्य हुये शास्त्रार्थ के अतिरिक्त, कोई भी कहानी या आख्यान कभी भी कोर्स पाठ्य-पुस्तकों मे न पढा़, ना ही बाद मे। अतः मुझे तो यह किताब इस विषय पर आम पाठक हेतु लिखी गई मील के पत्थर या तीर्थयात्रा की चट्टी सी लगी। और साथ ही गढ़वाली कद्दू फल से तानपूरे की कहानी केरल आधारिक विद्यालयी पाठ्यक्रम मे शामिल होना पर उत्तराखंड आधारिक शिक्षा पाठ्यक्रम मे न होने का विद्रूप भी बहुत चुभा। अगस्त 2019 मे, समय साक्ष्य से छपा, कुल 22 शीर्षकों मे सिमटा यह यात्रा वृतांत लेखक के स्वोक्त आमुख से ऐतिहासिक तथ्यों के संस्थागत दस्तावेज न होने और सन्दर्भगत और प्रचलित तथ्यपरकता भरे होने की बात मे सही उतरता है । साथ ही पूर्णतया यात्रा वृत्तांत न होने की बात को भी सही चरितार्थ करता है। यहाँ डायरी की प्रकाशन की पुनरावृति भी सहज बात है। चौबीस दिनों की आनंद की खोज, एक पागल पथिकीय यह अध्ययन यात्रा मानीखेज तो है ही। किस्सागोई, कथाशिल्प और वार्तालाप कहन शैली मे बुना हुए इस यात्राकथ्य के बाईस शीर्षकों मे से मात्र शीर्षक 1, 3, 4 ,8, 9, 10, 11, 15, 18 से 22 तक ही और एक अन्य शीर्षक जिसमे सेतुबंध रामेश्वर का संदर्भ है, मे ही असल “कालड़ी से केदार“ किताब की सारतत्वता या आत्मा बसती नजर आती है। बाकी सब शीर्षक अप्रासंगिक तो नही हैं पर कलेवर तो है, ढांचागत व्यवस्थाजन्य, बातों से निकली बातें और सरोकारों का दर्जनामा और ये सब आमतया लेखकीय किस्सागोई कुशलता का परिचायक ही माना जायेगा।
हाँ रोचकता जरूर बरकरार है पूरी किताब मे। पाठक एक ही बैठकी मे जरूर पढ़ लेना चाहेगा।
गढ़वाल से जुडे़ सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक वंश- परम्परा से जुडे़ तथ्यों संग बौद्ध सम्प्रदाय विजय यात्रा, (गोरख)नाथ संप्रदाय विस्तार और सनातन धर्म की इस बारह सौ साल पहले की सांस्कृतिक यात्रा को लेखक ने पहले दो -तीन शीर्षकों मे बखूबी कसावट के साथ संजोया है, कोई भी पल बोझिल नही होता पूरे प्रसँगों मे।
महाशीर मछली की गंगा उद्गम् की यात्रा सी या हाथियों के दल सी स्थानांतरित होने की अचूक मार्गयात्रा और उत्तराखंड की चारधाम तीर्थयात्रा शुरु होते ही श्वेतबंध रामेश्वरम् से आते बालाजी को अर्पित, एकतारा लिये युवा सन्यासियों के दल की बारह सौ साल से सतत् बद्रीनाथ यात्रा की अद्भुत आख्यान जैंसी बाते भरी पड़ी हैं इस कथेतर समसरोकारी यात्रा विवरण मे।
फ्यूंली, फूलदेई, वसंत-ताप, राग, चैत्र संक्रांति,चीड़ लघुतर नवफल पराग,बैठकी ब्रजी होली, कौंलमन की वृद्ध दिशा-धियाणी- आओजी प्रसंग,नगाधिराज से फूटती जल- धारायें और जात्रा का आरम्भ, सब कुछ बहुत ही मनोरम आख्यान है लेखक की सधी और कहानीरस पगी कलम से।
लेखक की भुक्तभोगी 2013 की रूद्रप्रयाग से देहरादून यात्रा और उससे उपजी केदारनाथ कहानी के साथ केरल मातृशक्ति संग मद्रासी पल्टन के अनुभव रोचकता भरे हैं। अरुणाचल और सिक्किम बौद्ध मठों मे मातृशक्ति द्वारा तीसरे पुत्र का दान गोम्पाओं को करना भी ऐसी ही परम्परा जैंसा है।
आदि गुरू के हिमालय आने से उपजे परिवर्तन चक्र का सुंदर विश्लेषण और साथ ही मैसूर, बनारगट्टा, लालबाग, होसूर, सालेम और माल्या कर्नाटक संग चेन्नै-अन्ना प्रसंगों ने मन छू लिया। कांचीपुरम तमिलनाडु, भरतनाट्यम, खैरनार, हिंदी विरोध के नेपथ्य की मानसिकता को पढ़ना भी गौरतलब है। मेजर जनरल (रिटायर्ड) भुवन चंद्र खण्डूड़ी का कनूरी बनना भी कम विनोदी नही है।
बत्तीस साल के अल्प जीवन मे आदिगुरु शंकराचार्य की सांस्कृतिक समरसता हेतु की गयी भारत की चतुर्दिक, विराट सश्रम और मानसिक यात्रा की उपलब्धियों को सायास नेपथ्य मे धकेलने का तत्कालीन और स्वतंत्रता प्राप्ति से अद्यतन सत्ताधीशों का इरादतन प्रयोग और प्रयास सफल रहा है, इस बात से पूरी सहमति बनती है। तभी तो इस सनातनी सांस्कृतिक चेतना के अग्रदूत को इतिहास और समग्र समाज मे यथोचित सम्मान और पहचान नही मिली है। सभी पीठों, ध्येयवाक्यों और अपनी सुरक्षा हेतु गठित अखाडों पर इस किताब मे चयनित संरचनागत जानकारी भी मिलती है। पृष्ठ 55 पर आये प्रसंग मे, विद्यासागर नौटियाल जी से इसी बावत (आदिगुरूमहिमा गान) नाराज कतिपय संकुचित वामपंथी और बुद्धिजीवी अब लेखक से भी नाराज हो जायें, तो कोई महती आश्चर्य नही होना चाहिये।
कथेतर साहित्य होते हुये भी सतही तौर पर देखें तो लेखक, केदारनाथ (अपनी पहले 2013-14 की लिखी कहानी) के पुनः मुद्रण का लोभ संवरण नही कर पाये हैं। रही बात उक्त कहानी की समग्रता मे सन्दर्भिक उपायदेयता की, वह पढ़कर ही नये पाठक बता पायेँगे। मुझ से पुराने पाठकों हेतु यह असहजता भरा हो सकता है।
अब कुछ त्रुटियाँ भी देखें। पृष्ठ 19 मे उद्धृत, गढ़वाल मे बावन गढ़ ही थे या ज्यादा थे यह भी रूचिकर विषय स्वयं मे ही। पृष्ठ 22 मे सातवीं पंक्ति मे उपजा, त्रुटि वश अपजा बन गया है।
पृष्ठ 59 मे सन् 1995 से 2012 तक की कालावधि सत्रह साल के बजाय त्रुटिवश, सत्ताईस साल छपी है। वहीं पृष्ठ 85 मे पाण्डियन, त्रुटिवश पाण्डव छपा है।
आज भी शारदा प्रदेश (कश्मीर) की दिशा में कुछ कदम चलने की परंपरा है।विश्व का सबसे पुराना पंचांग (कैलेंडर) सप्तऋषि पंचांग है जो कश्मीर में आज भी कुछ बचे हुए हिन्दू प्रयोग करते हैं
जिसका वर्तमान वर्ष 5094 वां वर्ष है। और शारदा पीठ कश्मीर से ही आदि शंकर, शंकराचार्य बनकर लौटे थे। प्रचलित एक स्तुति हैदृ “नमस्तुते माँ शारदा, कश्मीरपुरवासिनी.”। इसी परिपेक्ष्य मे कालड़ी से केदार , कथेतर यात्रा वृतांत पर कुछ सवाल उठ रहे हैं मेरे मन मे.....
पहला सवाल- कश्मीर, श्रीनगर मे शंकराचार्य पहाडी़ पर बना मंदिर क्या आदि शंकराचार्य ने नही बनाया था? यदि हाँ तो बद्रीनाथ आगमन से केदारनाथ परगमन मध्य कंहीं उन्होंने कश्मीर यात्रा भी तो न की या उपरोक्त मंदिर उनके आगे की पीढी़ के शंकराचार्यों द्वारा निर्मित हुआ?
दूसरा सवाल- जन श्रुति है कि जब शंकराचार्य की माताजी के महाप्रयाण पर अंतिम संस्कार हेतु सहायता मांगने पर भी कोई आगे नही आया तो शंकराचार्य ने अंतिम संस्कार अपने आँगन मे किया और उनके श्रापवश आज भी वह विशेष जाति अपने प्रियजनों का अंतिम संस्कार आँगन मे ही करती है। यह तथ्य लेखक न पकड़ पाये शायद अपने स्थानीय लोगों के साक्षात्कारों मे।
तीसरे सवाल से पहले तथ्य देखते हैं। शास्त्रों मे वेदों मे सप्तऋषि वशिष्ठ, विश्वमित्र, कण्व, अत्रि, भारद्वाज, वामदेव और शौनक हैं तो पुराणों मे वेदों के पहले दो नाम तो समान हैं पर (क्रतु)केतु, पुलह, पुलत्स्य, अंगिरा और मरीचि ने बाकी पांच को हटा दिया है। मन्वन्तर मे भी वेदों से वशिष्ठ,विश्वमित्र, भारद्वाज, अत्रि समान नाम हैं पर वेदों के बाकी तीन नाम कश्यप, जमदग्नि और गौतम जुड़ गये हैं। जो पुराणों के दो नाम अत्रि, वशिष्ठ छोड़कर बिल्कुल ही भिन्न हैं। अगर ऐंसा है तो सातवें तारे के साथ धुँधला तारा हर बार एक ही ऋषिस्त्री विशेष शायद मरीचि भगिनि अरूंधती ही है या वह भी बदलती रही है? (अगर ऋषि विशेष उस ग्रंथ के सप्त ऋषियों मे शामिल नही हैं।) इसी तरह आधुनिक या ब्रिटिश पद्धति प्रदत्त मानचित्र अध्ययन तथा विकीपीडिया मे सप्त- ऋषियों के नाम क्रतु(Dubhe), पुलह (Mirak), पुलत्स्य (Phecda), अत्रि(Megez), अंगिरस (Alioth), वशिष्ठ (Mizar) और मरीचि (Alkaid) हैं हैं। जो पुराणों के समान ही हैं।
अब तीसरा सवाल यह है कि... मुकेश जी की इस किताब मे गिनाये गये सप्तऋषियों मे मरीचि, अंगिरा, अत्रि, भृगु, अगत्स्य, वशिष्ठ और मनु मे से वशिष्ठ, मरीचि, अत्रि और अंगिरा पुराणों से समान हैं पर अगत्य, मनु और भृगु नये हैं जो वेदो या मन्वन्तर मे भी नही गिनाये गये है। मनु नाम तो बहुत ही अनूठा और सर्वमान्य न होगा शायद। तो इस बात के निराकरण हेतु, शायद लेखक को अपने संदर्भ ग्रन्थ का जिकर भी करना चाहिये।
होसूर, ईरोड़, पलानी, कोयम्बटूर, कृष्णागिरी और चोल, पाण्डियन और पल्लवों से पोषित दक्षिणदेश मे तमिलों का कन्नड़, मलयाली लोगों सा मिलनसार न होना मेरे लिये जरा असहज सा, हाँ उन जैंसे मिलनसार न लगते पहले मिलने पर। क्योंकि तीन साल का चेन्नई प्रवास और कई बार संस्कृति संबंधित पूरा दक्षिणदेश भ्रमण इस तथ्य से मुझे असहमत करता है। हो सकता है कि अचानक गये कोई भी यात्री या लेखक के छह साल मे तेरह और ग्यारह दिवसीय अवकाशिक अंतराल मे किये भ्रमण और बातों मे कतिपय यह आशंका पाली जा सकती है । पर यह पूर्णतया सच नही है। अगर तमिल लोग यह जानते है कि आप उनकी अस्मिता, संस्कृति को समझते है, सराहते हैं उनके जैंसा मिलनसार और मृदुस्वभावी और सहायता करने वाला अन्यत्र न मिलेगा, यह मेरा मत है। हाँ, लेखक की छानबीन और धारणाओं का पुख्ता होना भी क्षेत्र विशेष और साँख्यिकीय सैम्पल और संयोगवश सम्भव हो सकता है। उनका कहना भी तथ्यगत ही होगा। हिन्दी और तमिल या उत्तर दक्षिणदेश भाषा परस्पर सीखने की बात साँस्कृतिक एकता हेतु जरूरी है, सहमति है और कई अन्य सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतेतर बातें इतनी कम अल्पावधि प्रवास मे दर्ज नही हो सकती हैं, फिर भी ये चौब्बीस दिन मे लिखे वो शीर्षक, जहाँ आदि गुरु या केरल, केदार नही है, अपने आप मे अलग विषय समेटे होने के बाद भी दिनेश कर्नाटक के “दक्षिण भारत मे सोलह दिन“ के बाद की कड़ी मे आगे, पहला मील का पत्थर जरुर है। अगली कालड़ी से केदार की पुर्नऐतिहासिक ओर अकादमिक यात्रा का आप्शन अभी भी खुला है। और अगत्स्य ऋषि की उत्तर से दक्षिणदिश की विंध्याचल पारकर यात्रा करना और कन्याकुमारी से पहले तिरूवन्नवैली के पास पापनाशिनी नदी तट पर शिव मंदिर बनाकर कभी वापस न लौटना या विवेकानंद की कन्याकुमारी ध्यानसाधना या पुद्दुचेरी मे स्वामी अरविन्दो आश्रम का विवरण भी तो उकेरा जा सकता है। (जैंसा लेखक की आमुखीय भूमिका मे भी स्पष्ट होता है।)...
किताब के आखिरी पांच शीर्षक, जो केरल और आदि गुरु के जीवन के मर्मस्थलों को घेरे है, उनकी शीर्षकोचित्तता और मर्मप्रद प्रसंगो हेतु लेखक को आभार। यद्यपि बहुत कुछ.... मसलन केरलीय मोहिनीअट्टम संग लोक और नारियल पेडो़ं की समरसता छूट जाना अखरता है पर कोच्चि, कोजिकोडे और कई अन्य प्रसंग मसलन कलाम, जुकेरबर्ग, एप्पल के स्टीव जाबऔर ऋषिकेश, कैंचीधाम, शबरीमाला संग, आदि विद्रोही बासवेश्वरा धरती से, द्रविड़ और पेरियार, आलुवा नदी विवर्तन पर मकर संक्रांति तर्पण और मछुआरे के चप्पलों से सद्दाम की बातें और केरल की शुरूआती शैक्षणिक उपलब्धतायें......बहुत कुछ इस कथेतर पर कथारस भरे यात्रा विवरण मे......। अन्ना और पंचवटी से पांच चाचाओं से बातों का प्रयोग भी अनूठा है।
शीर्षक - कालड़ी से केदार तक (117पृष्ठ और 150 रूपये मात्र)।
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