आजादी के मायने
सुभाष चन्द्र नौटियाल
अभी हाल ही में कर्नाटक की राज्य सरकार को गिराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले एक विधायक ने भारत में सबसे मंहगी कार खरीदी है। क्या एक जनप्रतिनिधि के लिए अपनी निष्ठा को बेचकर मंहगी कार खरीदना ही आजादी के मायने हैं ? क्या स्वतंत्र भारत में अब एक जनप्रतिनिधि के लिए आजादी के यही मायने रह गये हैं कि, अपनी निष्ठा को गिरवी रख कर अपने लिए भोग- विलासिता का सामान जुटाना ? क्या अब सिर्फ हमारी आजादी के यही मायने रह गये हैं कि, येन-केन-प्रकारेण अपने लिए भौतिक सुख-सुविधाऐं जुटाना? हम भारतीयों को भूल जाने की आदत है। इसी का लाभ चतुर व्यापारी, स्वार्थी राजनीतिज्ञ तथा विदेशी कम्पनियां अक्सर उठाती रही हैं। यही भूल हमारी बार-बार गुलामी का कारण भी रहा है परन्तु आज भी हम उसी ढर्रे पर चल रहे हैं। भले ही आज शिक्षा का प्रसार हुआ हो परन्तु अज्ञानता का साया अभी दूर होना बाकी रह गया है। अभी ज्यादा वक्त नहीं हुआ है जब वर्ष 2011 में देश में व्याप्त भ्रष्टाचार को मिटाने तथा शीर्ष पदों पर बैठे व्यक्तियों के भ्रष्टाचार पर निगरानी रखने तथा दोषी पाये जाने पर दण्डित करने के लिए जनलोकपाल कानून लाने के लिए अन्ना आन्दोलन हुआ था। यह आन्दोलन इतना व्यापक एंव विस्तृत था कि, उस समय देश का हर व्यक्ति स्वंय को अन्ना महसूस करने लगा था। भ्रष्टाचार मिटाने की इस आपाधापी में अनेक युवाओं ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था, उन्हें लग रहा था कि, देश का मिजाज बदल रहा है तथा देश में नई आजादी के लिए जागृति आ रही है। देश नई करवट ले रहा है और आजादी के मायने बदल रहे हैं। अब जबकि अन्ना आन्दोलन हुए आठ साल व्यतीत हो चुके हैं तो यह बात पुख्ता हो चली है कि, ना तो आजादी के मायने बदले और ना ही देश में अभी तक स्वतंत्रता के प्रति जागृति आ पायी है। देश आज भी वास्तविक स्वतंत्रता के लिए जूझ रहा है। आज आजादी के मायने कर्त्तव्यपरायणता से नहीं बल्कि बलात्पूर्वक देश के सन्साधनों पर कब्जा करने से निकाला जा रहा है। जहां एक ओर देश में व्याप्त भ्रष्टाचार में बढेत्तरी हुई है तो दूसरी ओर जनलोकपाल का मुद्दा राष्ट्रीय पटल पर सिरे से गायब है। अब ना तो यह मुद्दा राष्ट्रीय मीडिया की टी. आर. पी. बढ़ाने में सहायक है और ना ही यह नेताओं के लिए चुनाव जिताऊ रह गया है। वैसे तो प्रत्येक व्यक्ति के लिए आजादी के अलग-अलग मायने हो सकते हैं परन्तु वर्त्तमान में देश को सबसे ज्यादा जिस आजादी की आवश्यकता महसूस हो रही है वह है नैतिक एंव चरित्रिक पतन से आजादी। नैतिक एंव चरित्रिक पतन के कारण ही देश में उन्माद तथा आर्थिक असमानता बढ़ी है। सिद्धांतविहीन राजनीति तथा सदाचारविहीन व्यापार ने देश में भय, भूख, भ्रष्टाचार, युवाओं में उन्माद तथा बेरोजगारी को जन्म दिया है।यदि इतिहास के पन्ने पलटें तो आजादी से पूर्व आजादी के जो मायने हुआ करते थे वे अब गौण हो चुके हैं। बदले समय के साथ आजादी के मायने भी बदल चुके हैं। असल में जिस अर्थ एंव भाव के साथ हमारे स्वतंत्रता के वीरों ने आजादी की लड़ाई लड़ी थी तथा आजादी की जो परिभाषा स्वतंत्रता के दीवानों ने तय की थी वर्त्तमान समय में हम उससे भटक चुके हैं। लोकतन्त्र के आधार स्तम्भों की कुव्यवस्था ने उसे विद्रप बना दिया है। देश में आजादी से पूर्व आजादी पाने की दीवानगी थी, उन्हें स्वंय के मिटने का भय न था। आजादी की दीवानगी इस कदर थी कि, बड़े से बड़े जुल्म-ए-सितम भी आजादी के दीवानों के कदम न रोक सके। आजादी के दीवाने आजादी की मंजिल की ओर बढ़ते ही चले गये। देश आजाद हुआ परन्तु आजादी के मायने बदल गये। यदि देश का नेतृत्व कर रहे लोगों में समाज में व्याप्त गरीबी, भय, भूख, भ्रष्टाचार , बेरोजगारी, अज्ञानता, अन्धविश्वास तथा नैतिकपतन की गुलामी से आजाद करने की सोच विकसित हुई होती तो शायद देश में आजादी के मायने कुछ और ही होते तथा इन 73 सालों में देश अपनी वैभवता को पुनः प्राप्त कर सकता था। परन्तु ऐसा कुछ भी सम्भव न हो सका।
15 अगस्त 1947 को जब देश आजाद हुआ था तो भारत पूर्ण रूप से विदेशी कर्ज से मुक्त था। उपनिवेशवादी देश ब्रिटेन पर उसका 16.62 करोड़ रूपये का कर्ज था। एक रूपये के बराबर एक डॉलर था, जबकि आज एक डॉलर 70 रूपये को पार कर चुका है। क्या मुद्रा ह्रास से देश में आर्थिक समृद्धि आती है ? आज जबकि हम स्वतंत्र देश के नागरिक हैं तो देश पर दिसम्बर 2018 तक कुल विदेशी कर्ज 516.4 विलियन डॉलर तक पंहुच चुका है जो साल-दर-साल बढ़ता चला गया। कर्ज की गति निरन्तर बढ़ रही है, देश की आने वाली पीढ़ियां कर्जदार होती जा रही हैं और देश में आर्थिक समृद्धि का डंका पीटा जा रहा है। आने वाली नस्लों को कर्जदार बनाकर क्या आर्थिक समृद्धि हासिल की जा सकती है ? जबकि देश में पैदा होने वाली हर सन्तान को विदेशी कर्जदार बनाया जा रहा है। मंहगाई पर सरकार का नियंत्रण नहीं है। पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था चरमाराई हुई है। आर्थिक गुलामी की हम देहलीज पर खड़े हैं और मानसिक गुलामी के जाल में धंसे हुए हैं। युवाओं में निरन्तर उन्माद भरता जा रहा है, देश धर्मभीरूता की ओर अग्रसर है, उन्मादी भीड़ स्वंय ही दण्ड देने पर उतारू है। क्या वास्तव में हमारी आजादी के यही मायने रह गये हैं ? देश के आमजन न्याय के मन्दिर की चौखट पर न्याय की आस में टकटकी लगाये देख रहे हैं कि, आखिर कब न्याय होगा। परन्तु न्याय की आस में तारीख पर तारीख और तारीख पर तारीख की स्वरलहरियों से कान ऊब चुके हैं। देश का प्रमुख मीडियावर्ग चाटुकार बनकर चारण-भाट की भूमिका में चाटुकारिता में व्यस्थ है तो देश का आमजन भ्रमित और आशंकित जीवन जीने के लिए मजबूर है। क्या हमारी आजादी के यही मायने हैं?
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