मालु-सालु संस्कृति आज की आवश्यकता
मालु-सालु संस्कृति मध्य हिमालयी क्षेत्र उत्तराखण्ड की वह संस्कृति है, जो वैदिक काल से ही इस हिमालयी क्षेत्र में अपना अस्तित्व स्थापित कर चुकी थी। इस संस्कृति में जहां ज्ञान धाराओं का समावेश है वहीं ज्ञान शक्ति और कर्म शक्ति का सुन्दर समन्वय मिलता है। मालु-सालु संस्कृति में जहां त्याग, तपस्या, प्रकृति संरक्षण और प्राकृतिक अवयवों के परिपोषण की भावना छिपी है। वहीं आत्मसंतोष और संसार के दिखावे से दूर सच्चे समाजवाद की भावना भी प्रकृति के मध्य में रहकर प्रकृति के सर्व अवयवों के मध्य में रहकर प्रकृति के सर्व अवयवों का स्वयं के स्वार्थ के लिए दुरूपयेग न कर इनका पर्यावरण को शुद्ध रखने के लिए ही सदुपयोग करना उस युग के ऋषि-मुनियों का नैसर्गिक स्वभाव था। इस संस्कृति को मध्य हिमालयी क्षेत्र में ऋषि पुत्रों ने आगे की पीढ़ी में विस्तारित किया। यही कारण है कि मालु-सालु संस्कृति का प्रकृति संरक्षण का संदेश आज भी शब्दों के रूप में गूंज रहा है, जो सर्व जन हिताय, सर्वजन सुखाय का पक्षधर है। सामूहिक श्रमदान से जहां सामूहिकता एवं सामुदायिकता का सन्देश प्रसारित होता है तो पर्यावरण संरक्षण, जल संरक्षण एवं जैव विविधता संरक्षण से प्रकृति सम्मत जीवन जीने के लिए प्रेरित करती है। वास्तव में प्रकृति से आत्मसात् कर प्रकृति सम्मत जीवन जीने की पद्धति को मालु-सालु संस्कृति कहते हैं। मालु-सालु संस्कृति का मूल सिद्धान्त ‘अधिकतम संरक्षण, न्यूनतम दोहन’ है।
मध्य हिमालयी क्षेत्र उत्तराखण्ड वैदिक ऋषियों का जन्मदाता रहा है, इसलिये यहां के ऋषि आश्रमों की अर्थ व्यवस्था, सामाजिक सभ्यता एवं संस्कृति इसी प्रकृति के उपादानों पर स्थिर हुई है। प्रकृति संरक्षण में ही जीवन का वास्तविक सुख है यही भाव इस संस्कृति का आधार रहा है। यहीं इस प्रकृति सम्मत संस्कृति ने जन्म लिया है, जिसका साहित्य, श्रुति एवं स्मृति के रूप में आज भी जीवित है।
आवश्यकता
आरामप्रस्त जीवन जीने की चाह ने आज के मानव को नितान्त व्यक्तिवादी तथा प्रकृति का अधिकतम दोहनकारी बना दिया है। भौतिक संसाधनों को जुटाने की होड़ में आज का मानव स्वयं का अस्तित्व खो चुका है। बढ़ते औद्योगीकरण ने जहां एक ओर मानव के लिए आरामप्रस्त जीवन की लालसा को चरम तक पहुंचाया है तो दूसरी ओर धरा पर प्रदूषण का दानव निरन्तर पांव पसार रहा है। मानव की व्यक्तिवादी एवं दोहनकारी सोच के कारण हमारा स्वास्थ्य, जलस्रोत, नदियां, वायु, कृषि, जंगल, जैव विविधता तथा प्राकृतिक संसाधन भयावह स्तर तक प्रदूषित हुए हैं। प्रकृति से जीवन जीने के लिए सभी संसाधन हासिल करने के बाद भी आज का मानव सुविधाजनक जीवन जीने की ललक में प्रकृति से घोर खिलवाड़ कर रहा है। वह यह भी भूल गया है कि उसके द्वारा किया जा रहा खिलवाड़ अन्ततः उसके स्वयं के लिए ही घातक है। विकास के नाम पर विश्व का मानव विनाश लीला का मंचन कर रहा है। स्वयं को अत्याधुनिक मानने वाला आज का मानव प्रकृति के प्रति उदासीन हो चला है। वह अपने अधिकारों के प्रति तो सजग है परन्तु कर्तव्य के प्रति निरन्तर उदासीन होता चला जा रहा है। मानव की सुविधाभोगी चाह तथा कर्तव्य के प्रति उदासीनता ने प्राकृतिक संसाधनों का निर्ममतापूर्वक दोहन किया है।
आरामदायक, सुविधाजनक जीवन जीने के असीमित लोभ के कारण प्राकृतिक संसाधन, जल स्रोत, भूजल, नदी, वायु, जमीन सभी पर्यावरण अवयव भयावह स्तर तक प्रदूषित हुए हैं। पर्यावरण के दूषित होने के कारण आज स्वयं मानव का अस्तित्व ही संकट मेंं पड़ गया है। अत्याधिक प्रकृति का दोहन के कारण अनेक प्रजातियांं (जीव तथा वनस्पति) पर अस्तित्व का संकट आन खड़ा हुआ है। इस आपाधापी में कुछ जीव तथा वनस्पति की प्रजातियां लुप्तप्रायः हो चुकी है तो कई प्रजातियां जो कि हमारे पारिस्थितिकी तंत्र के संतुलन में प्रभावी भूमिका का निर्वहन करते हैं आज विलुप्ति के कगार पर हैं। जहां एक ओर खेती से अधिक से अधिक पैदावार लेने के लिए अत्याधिक रसायनिक खादों के उपयोग से भूमि की उर्वरा शक्ति बुरी तरह प्रभावित हुई है तो उत्पादित फसलों ने मानव स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डाला है। हमारी अलाभकारी औद्योगिक एवं पर्यटन नीति के दुष्परिणाम स्वरूप वनीय क्षेत्र निरंतर सिकुड़ रहा है। धरती का बढ़ता तापमान आज मानव के लिए चिन्ता का सबब है तो पीने के लिए स्वच्छ जल तथा सांस लेने के लिए शुद्ध वायु आज के मानव के लिए चुनौती बनता जा रहा है तो अब आवश्यक हो चला है कि हम जीवन जीने की ऐसी पद्धति को अपनायें जो प्रकति सम्मत हो, जहां प्रकृति का संरक्षण एवं सम्वर्द्धन हो, जैविक खेती हो, सामूहिकता एवं सामुदायिकता हो, आपसी सौहार्द हो, जैव विविधता का संरक्षण हो, विश्व बन्धुता की भावना हो, जल एवं पर्यावरण संरक्षण हो। मानव जीवन तभी सुरक्षित रह सकता है जब प्रकृति और मानव के बीच बेहत्तर समन्वय हो। यह सब गुण प्रकृति सम्मत मालु-सालु संस्कृति में मूल रूप में मौजूद हैं इसलिए मालु-सालु संस्कृति आज के मानव की आवश्यकता है।
मालु-सालु संस्कृति के अवयव
प्रकृति से आत्मसात ही मालु-सालु संस्कृति का मूल मन्त्र है। प्रकृति का ‘अधिकतम संरक्षण, न्यूनतम दोहन’ इस संस्कृति का आधार है। मालु-सालु संस्कृति यजुर्वेद के इस मन्त्र से आत्मसात करती है-
तेन त्यक्तेन भुज्जीथाः माः गृधः ।। ईशोपनिषद ।। 40।।1।।
(यज्ञ रूप प्रभु (प्रकृति चक्र) द्वारा छोड़े गये पदार्थों का उपभोग करो, अधिक का लालच मत करो।)वास्तव में प्रकृति सम्मत जीवन जीने की पद्धति को ही मालु-सालु संस्कृति कहते हैं। इसके तीन मुख्य अवयव हैं।

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