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शनिवार, 22 दिसंबर 2018

उत्तराखण्ड की लोक संस्कृति

   -सुभाष चन्द्र नौटियाल

प्राकृतिक विविधता, हिमालय का अद्वितीय सौन्दर्य, श्रृंगार एवं वीर रस प्रधान उच्च मानवीय आदर्शों के साथ परिश्रम एवं पवित्रता उत्तराखण्ड की लोक संस्कृति की विशिष्ट पहचान रही है। गंगा-यमुना सहित अनेकों-अनेक नदियों का उद्गम स्थल तथा सनातनी संस्कृति का केन्द्र बिन्दु होने के कारण यहां की लोक संस्कृति में परोपकार की भावना अन्तर्निहित है। यहां की लोक संस्कृति में विविध भू-दृश्य की विविधता के दर्शन दृष्टिगोचर होते हैं। उत्तराखण्ड की प्राचीन सांस्कृतिक परम्पराऐं मुख्य रूप से प्रकृति के संरक्षण केन्द्रित रही हैं। जल संरक्षण, वन तथा वनीय जीवों के संरक्षण का परम्परागत ज्ञान यहां की लोक संस्कृति को विश्व में श्रेष्ठता प्रदान करती हैं। मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत तथा प्रकृति संरक्षक परम्पराओं से मिलकर यहां की लोक संस्कृति का निर्माण हुआ है। गहरी मानवीय संवेदनाओं तथा प्रकृति के साथ आत्मसात् करने के कारण ही यहां की संस्कृति को ‘देव संस्कृति’ कहा जाता है। 
संगीत, नृत्य एवं कला यहां की संस्कृति को हिमालय से जोड़ती हैं। असंख्य मानवीय भावनाओं को प्रदर्शित करने वाली उत्तराखण्ड की नृत्य शैली, जीवन और मानव के अस्तित्व से जुड़ी है। लांग, भैला, नृत्य, हुड़का बोल, झोरा-चांचरी, झुमैलो, चौंफुला, छोलिया, पांडव नृत्य आदि यहां की प्रसिद्ध नृत्य शैली रही हैं।
संगीत यहां की लोक संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है विवाह मांगलिक अवसरों पर गाये जाने वाले मांगलिक गीत मांगल, बसन्त ऋतु के आगमन पर गाये जाने वाले बसन्ती गीत (फाग), नायक नायिका के विरह-वियोग में गाये जाने वाले खुदेड़ गीत, गुरू,मातृ तथा पितृ भक्ति पर समर्पित गीत, देवी-देवताओं को समर्पित गीत, पर्व-त्यौहारों पर गाये जाने वाले तथा विभिन्न स्थानीय मेलों में गाये जाने वाले लोकप्रिय गीत एवं संगीत यहां की लोक संस्कृति को विशिष्टता प्रदान करता है।
पहाड़ी चित्रकला शैली का उपयोग सुन्दर चित्रकारी भित्ति चित्र घरों और मंदिरों को सजाने के लिए इस्तेमाल किये जाते हैं। गढ़वाली तथा कुमाउंनी कला प्रकृति के संरक्षण के लिए समर्पित तथा प्रकृति से घनिष्टता के लिए जानी जाती है। अंगड़ी, त्यूंखा(उनी शॉल), बांस तथा रिंगाल की टोकरी, मोड़ा, चटाई आदि अन्य दस्तकारी के लिए उत्तराखण्ड की विश्वस्तरीय पहचान रही है। इन दस्तकारियों में कई दस्तकारियाँ लुप्त प्राय हो चुकी हैं चीणा, कौदा(मंडुवा), झंगोरा, कौणी, गहत, उड़द, सूंटा (लोबिया), काले तथा हरे भट्ट, रयांस, राजमा जैसे अनाज उत्तराखण्ड को एक विशेष पहचान दिलाते हैं। फाणु-भात, भट्टोणी, चौंस्वाणी, रोट-अरसा, कौदे की रोट्टी, स्वाला, घुघतिया आदि इस लोक संस्कृति की पहचान रही है। अल्मोड़ा की बाल मिठाई तथा टिहरी की सिगोंरी की धमक पूरे विश्व है।
कस्तुरा मृग, बाघ, घुरड़, काखड़, हाथी आदि हजारों वनीय प्रजातियां यहां की लोक महत्व के अभिन्न अंग रहे हैं। देवदार, बांज, बुंरास, काफल, हिसर, किगोड़ा आदि वनीय प्रजातियां यहां की लोक संस्कृति के अंग है। सामूहिकता एवं सामुदायिकता उत्तराखण्ड की लोक संस्कृति में समाहित है। सर्वे भवन्तु सुखिनः का संदेश यहां की पर्वतमालाओं में सदैव गुंजायमान होता है।  कंकर-कंकर में शंकर की उक्ति यहां चरितार्थ होती है। चारधाम (गंगोत्रा, यमनोत्री, केदारनाथ, बद्रीनाथ) के अतिरिक्त यहां लाखों मंदिर तथा आस्था के केन्द्र स्थापित हैं। देवभूमि में सनातनी संस्कृति के सम्वाहक देव निवास करते हैं तभी तो प्रकृति के संरक्षक वृक्षों की रक्षा के प्रति कितने संवेदशील रहे हैं इसकी एक झलक इस लोक गीत में मिल जाती है-

छैलू बैठि पर, पत्ती नि तोड़ीपत्ती तोड़िली, फोंकी नी तोड़ीफौंकी तोड़ली, ढुंगी नि ढोलिमेरी मा जी कू, दुध चड्यूं चमेरा बाबा कि चौंरी चिणि चमेरा भैजी को पाणी डाल्यूं चको छै बटोयी, डाली का छैल


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