लोक संस्कृति के मूलाधार
योगेश पांथरी
लोक अभिक्रम में गीतों के महत्व को समझते हुए पर्वतीय क्षेत्रा के साथ गढ़वाल के पारम्परिक लोकगीतों में नारी प्रधानता मिलती है। कारण यह भी रहा है कि उन्हें पुरूषों से अधिक कष्ट और श्रम करना पड़ता है। विवाह के समय से ही बिछोह सहना, भौगोलिक दूरी, साधन हीनता ये सारी बाते गीतों में मुखरित होती है। उसके मानस की यथार्थ अनुभूतियों को वाणी देती रही है। यहां के प्राकृतिक सौन्दर्य का वातावरण उसकी स्मृतियों में बिछोह की पीड़ा भरता रहा है पिफर भी कभी वह इस असुख में सुख ढूंढ लेती है। पहले माता पिता से बिछोह पिफर पति परदेश आजीविका के लिए जाने का बिछोह संवादहीनता से सब सहने को दुख ही तो रहे है। अब इस शिक्षा और संचार के युग में केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। हो सकता है सुदूरवर्ती अंचलों में यह कुछ कुछ अब भी देखने को मिले।
लोक संस्कृति के अर्न्तगत लोकगीत एवं नृत्य का अन्य तरह से भी वर्गीकरण किया गया है, यहां मैं अपने विचार से तीन प्रमुख भागों में करना चाहता हूँ पहला भाग बोल, वे लोकगीत जो बिना किसी बाद्य यंत्रा के या अंग प्रदर्शन के गाये जाते हैं। वे एक या समूह मैं खड़े होकर या चलते हुए गाये जाते हैं, इसमें केवल बोल और अर्थ को समझकर प्रभावित हुआ जाना है या आनन्द लिया जाता है, संस्कार मांगल गीत जन्मोत्सव, चूड़ाकर्म, यज्ञोपवीत और विवाह।
दूसरे वर्ग में खुदेड़ गीत आते हैं। ये बोल याने शब्दों के साथ हाव-भाव संकेत वाले गीत होते हैं, ये गीत धुन के साथ हाथ पांव एवं साथ चलते हैं, वार्ता भी होती है जिनमें थड्या, चौपफला गीत प्रमुख है, हाव भाव अभिनय वाद्य यन्त्रों के साथ गाया जाता है।
तीसरे भाग में लोकगीत नृत्य अभिनय के साथ वाद्य यन्त्रों के साथ गाये जाते हैं ये सामूहिक रूप से जनमानस को प्रभावित करने के साथ अन्य से अधिक सक्षम होते हैं इनके भी जोड़े होते हैं जो हारमोनियम, ढ़ोलक, सिणाई, हुड़की, और ढ़ोल दमाउफ और अब तो कई साज आने लगे हैं, जागर भी गीत विद्या का सशक्त माध्यम है।
इस प्रकार संवेदना अनुभूति और समय गीतों को जनमन में खास स्थान देते हैं, संस्कारों की उपयोगिता जब तक जीवन में रहेगी संस्कारी गीतों का संरक्षण होता रहेगा। )तुएं अपना प्रभाव देती रहेंगी, आस्था से जुड़ा मन होने से भक्ति अनुरक्ति के गीत गाये जाते रहेंगे श्रम गीतां का लोक जीवन से समन्ध बना रहेगा। सामाजिक कुरीतियाँ सामाजिक घटना के लोक मन को प्रभावित करेंगी। आवश्यकता के अनुसार बदलाव भी आता रहेगा। लेकिन संवेदना का शाश्वत रूप माँ और धरती माँ ने जिसे वाणी दी वह लोक अभिक्रम में प्राण तत्व की तरह रहेगा।
लोक शब्द की समय समय पर विद्वानों ने स्थिति एवं अध्ययन के आधार पर व्याख्या की है और संस्कृति संस्कार की ही रूपान्तर मानी गई है हिन्दी के प्रसि( विद्वान डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार लोक शब्द का अर्थ जनपद ग्राम या शहर नहीं बल्कि नगरों ग्रामों में पफेली वह समूची जनता है जिसके व्यवहारिक ज्ञान का आधार पोथियां नहीं, सुंसस्कृत समझे जाने वालों से अधिक सरल और अकृत्रित जीवन जीने के अभ्यस्त होते हैं भारत समाज में स्थान विशेष की संस्कृति अथवा यहां के सांस्कृतिक पर्यावरण को अभिव्यक्त करने के लिए प्रयुक्त किया जा रहा है।
वास्तव में पर्वों, त्यौहारों पर संस्कृति के रूप में प्रकट होते हैं ये ही पारम्परिक तरीके से लोकप्रियता पाते रहे हैं विवेचना के आधार पर ध्यान किया जाय तो लोक संस्कृति का मुख्य आधार मां और धरती मां है। दूध के बोल और माटी की उफर्जा में कभी उमंग स्नेह की अविरल धारा बहती है तो कभी स्मृति करूणा विषाद प्रतिरोध के भावों की अभिव्यक्ति होती है। इन्हें वाणी देने के लिए आदिकाल से ही संवेदनशील और सुकोमल मन प्रकृति की सुकुमारता, झरनों, नदियों के बहते जल की ध्वनियां पपीहे की पीह-पीह कोयल की कूहू-कूहू, घुघती की घुर्र-घुर्र और भवरों आदि का गुन-गुनाना वातावरण देता रहा है बल्कि स्वतः ही यह वातावरण काल यात्रा में नदी के प्रवाह की तरह समय सभ्यता के घाटों से गुजरता हुआ वर्तमान में अपने स्वरूप को देता है। संस्कार और संस्कृति दोनों में एक रूपता श्रुति के आधार पर बनती चली गई।
आगे नई सभ्यता के नाम पर एक विशेष वर्ग ने जहां इसे छोड़ने या बदलने की कोशिश की वही सरल आस्थावान और अबोध वर्ग ने किसी न किसी प्रकार अपने में सुरक्षित रखने का प्रयास किया, यही कारण है कि परम्परागत समाज में पौराणिक गीत-संगीत कथा-वार्ताओं द्वारा पता लगता है कि उनके आदर्श परस्पर व्यवहार उनके विचार उनकी आस्थाओं पर कितना बड़ा प्रभाव डालते रहे हैं। तभी तो लोक गीत संगीत कथा वार्ताएं हमारे प्राण हैं। बल्कि यह कहना अधिक सही होगा कि अधिकत्तर जनश्रुति के आधार पर ही अब तक सुरक्षित रहते आये हैं। बल्कि कई लोप भी होते जा रहे हैं तथा इनके प्रयोग और विशु(ता को रख पाना एक बड़ा प्रश्न बनता जा रहा है।
किसी ने कहा भी है कि लोकगीत सभी के सुंदर होते हैं पर हिमालय के केन्द्र में प्रकृति के तरह अतिसुन्दर हैं इनमें यहां की हर ऋतु की झांकी देखने में आती है इनके संरक्षण की महत्ती आवश्यकता बनती है। स्वराज्य का संस्कृति से घनिष्ट सम्बन्ध रहता है। स्वराज्य तभी सार्थक होगा जब अपनी संस्कृति की अभिव्यक्ति होगी संस्कृति में संस्कारों की उपादेयता को भी समझा गया है। सुसंस्कृत समाज ही श्रेष्ठ समाज माना गया है।
लोकगीत संस्कृति की एक विधा है लोकगीतों में लय शब्दों से आगे होती है और अधिकता प्रारम्भिक बोल सारे गीत की प्रभाव को गुंजायमान करते हैं।
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