जलस्रोतों को संरक्षण की दरकार

उत्तराखण्ड विश्व का वाटर टैंक माना जाता है परन्तु पिछले कुछ समय से जिस प्रकार विकास के नाम पर इस क्षेत्र में विनास लीला का मंचन किया जा रहा है इससे इस क्षेत्र में अधिकतर मूल जल स्रोत सूखने के कगार पर हैं। इसकी आशंका पर्यावरणविद, विशेषज्ञ तथा वैज्ञानिक काफी समय पहले से महसूस कर रहे थे परन्तु गलत सरकारी नीतियों के कारण उसकी लगातार अनदेखी की जा रही है। निरन्तर सूखते जलस्रोतों का यह ऐसा मसला है, जिससे हर कोई प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता है। भले राज्य में सूखते जलस्रोतों की भयावह स्थिति किसी से छिपी नहीं है फिर राज्य तथा केन्द्र सरकार द्वारा अनेक ऐसी योजनाओं को इस क्षेत्र में संचालित किया जा रहा है जिस के कारण निरन्तर जलस्रोत सूख रहे हैं। राज्य तथा केन्द्र सरकार के अनेक योजनाऐं सूखते जल स्रोतों के लिए आग में घी डालने जैसा कार्य कार रहे है। जलस्रोतों की स्थिति को लेकर नीति आयोग की इस वर्ष जुलाई में आयी रिपोर्ट इसकी बानगी भर है। जिसमें स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि, हिमालयी क्षेत्रों में बीते वर्षो में जल स्रोतों के जलस्तर में लगभग 60 फीसद की गिरावट आ चुकी है। उत्तराखण्ड में पिछले डेढ़ सौ वर्षों में लगभग 300 सौ से अधिक जल स्रोत सूख चुके हैं। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि हिमालयी क्षेत्रों में 60 फीसद लोग पेयजल तथा अन्य आवश्यकताओं के लिए इन जल स्रोतों पर ही निर्भर हैं। ऐसे में जैव-विविधता संरक्षण तथा स्थानीय जन के लिए जलापूर्ति के उद्देश्य से इन जल स्रोतों को पुनतर्जीवित करने की नितांत आवश्यकता हैं। राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में सूखते जलस्रोतों का असर अब स्पष्ट नजर आने लगा है। तमाम पेयजल योजनाओं में जल सम्भरण क्षेत्रों से जल सम्भवण न हो पाने के कारण मूलजल स्रोत जल विहीन हो चुके हैं इसके कारण अनेक गांवों में जलापूर्ति बाधित हो चुकी है। इसलिए जल स्रोतों को संरक्षण के लिए गम्भीर प्रयास किये जाने की आवश्यकता है।
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