मकड़जाल भ्रमों का
-कैलाश बहुखण्डी ‘जीवन’
मकड़जाल भ्रमों का,
जो भ्रम अजीबोगरीब
शकल में अकल को
रहे करते बोझिल सदा।
जो सोचा न था,
जो सोचना ही नहीं था चाहता
वो भी श्रृंखलाबद्ध से
रहे होते एकजुट।
मस्तिष्क को
मकड़जाल में अपने रहे कसते,
उन्हीं में रहा खोता-समाता।
प्रतिष्ठा, सुख, समृद्धि
मानों न थे कुछ भी।
था तो बस एक मकड़जाल
भ्रमों का,
जिसमें जकड़े-अकडे़,
घुटते-लुटते,
घिसते-पिसते,
रहा कटता समय।
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