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सोमवार, 1 अक्टूबर 2018

  वीरांगना को नमन हेतु मेरी यात्रा-2
गढकुण्डार किला
अनसूया प्रसाद काला की यात्रा डायरी से 
देवभूमि से प्रस्थान कर मैं कुछ दिन दिल्ली में बिताने के बाद बुन्देल खण्ड की पावन घरती झांसी पहुंचा। वास्तविकता तो यह है मित्रों कि मेरा पुत्र रेलवे में है और वह झांसी में है। अतः मुझे जब भी भ्रमण करने की इच्छा होती है तो दिल्ली या गाँव से निकल पड़ता हूँ। झांसी जैसा कि विदित है कि,यह महारानी लक्ष्मी बाई की बीरता की कहानी अपने में संजोये हुए है। नौ वीं शताब्दि में झांसी खजुराहो के चन्देल राजाओं के अधीन आया। यहां का कृत्रिम जलाशय और वास्तुशिल्पी खण्डहर इसी काल के हैं। चन्देलों के बाद यह खेंगार राजपूतों के पास रहा। इस समय इसका नाम बलंवत नगर था। 14 वीं शताब्दी में बुन्देले राजपूतों ने खेंगार राजपूतों को हरा कर अधिकार कर लिया। 1613 ई0 में ओरछा के बुन्देला राजा बीर सिंह जु देव ने झांसी का किला बनाया। यह किला ऊँची पहाड़ी पर बना है। जिसे बंगरा की पहाडी कहते है। झांसी से ओरछा मात्र 16 कि0मी0 हैं और यहाँ से यह किला धुंधला सा िइखाई देता है। मुसलमानों के हमले होने से ओरछा के राजा बीरसिंह जु देव ने मराठों से मदद मांगी। कुछ कालान्तर में आधा राज्य मराठों को दे दिया। इसमें सम्भव तब बलवंत नगर भी था। मराठा पेषवा जब ओरछा आते तो  ओरछा के राजा अपने निवास से बंगरा पहाड़ी के किले को दिखाकर संबोधित करते कि ‘‘ ओ झाई सी‘‘ दिखाई दे रहा है, वह हमारा किला है। बस! तब से अपभ्रसिंत होकर यह झांसी हो गया।
झांसी का किला अपने में अनेकों सौगात समेटे हुए है। मुख्य तोपची गौसखां और उसकी प्रमिका जो कि खुद एक अच्छी नृतिका और तोपची थी, की मजार, कड़क बिजली च भावानीशंकर तोपें, अपने आप में आगन्तुक को तत्कालीन इतिहास का बोध कराती हैं। मन में सबसे अधिक रोमान्च पैदा करने वाला स्थान किले के अन्दर घोड़ा कूदनी है। जहां से रानी लक्ष्मीबाई अपने पाँच वर्ष के दामोदर राव को पीठ पर बाँध कर घोड़ी पर सवार हो कर कूदी थी। स्थान काफी ऊँचा है। उस वीरांगना की साहस की दाद देने होगी जो इतनी ऊँचाई से बच्चे को पीठ में बाँध कर कूदी थी। उसकी घुड़ सवारी कितनी उच्च कोटि की रही होगी कि संन्तुलन बना कर घोड़ी को किले के प्राचीर से कुदवाकर साफ निकल गई। किले के ही अन्दर षिव मन्दिर, गणेष मन्दिर और कड़क बालाजी मन्दिर है। जहाँ रानी नित्यपूजा करने जाती थी। किले तक पहुँने के लिए चारों तरफ सात दरवाजे हैं। जो वांडेर गेट, दतिया गेट, झानागेट ,सागरगेट, ओरछागेट, नेवागेट, और चाँउगेट के नाम से जाने जाते है। ये द्वार या गेट झांसी शहर से लगभग ढाई-तीन कि0मी0 की दूरी पर हैं। इसका ओरछा गेट सबसे दुर्भाग्यषाली रहा। यहीं से अंग्रेज फौज के लिए गद्दार दुलासिंह ने गेट खोल दिया था। अगर यह गेट न खुलता तो सम्भव है कि इतिहास कुछ और ही होता।
झांसी भारतीय रेलवे का एक बड़ा मण्डल है। रेलवे की बहुत जगह है जो कि खाली पड़ी रहती है । इस भूमि में रोज हाट बाजार  लगता हैं। इतवार के दिन विशेष रूप से समीपस्थ ग्रामीण अपनी उपज का अनाज और सब्जियां लाकर बेचते और अपनी जरूरत का सौदा खरीदते हैं।  यह ठाकुर बलवन्त सिंह की चाय की दुकान है। दुकान क्या है एक खोखा है जिसके आगे तीन बड़ी-बड़ी सपाट और चौरस पत्थर की मोटी पट्टियां  वर्गाकार रूप में रखी हैं। आगन्तुक इन्हीं पत्थरों पर बैठ कर चाय की चुस्कियों का जायका लेते हैं और आपस में बतियाते हैं। यहां पर अनेकों बुद्धिमान-विचारकों से परिचय होता है। अनेक प्रवचनों की श्रृखलाओं का श्रवण उन के मुखारबिन्दुओं से सुनने को मिलता है। गांजे का प्रसाद वितरित करने वाले चाहे बाबा भटकनाथ हों, रेल में यात्रा करने वाले यात्रियों की जेबों को हल्की करनेवाले जेब कतरे या फिर कब्जा हटवाना हां, सब यहाँ पर बड़े जोरदार शब्दों में अपनी बहादुरी का बखान करते हैं। 
बाबा भटकनाथ का अपना अलग ही रौआब है। उनके शिष्यों की संख्या ही उनके गुणों की विशेषता बता देते हैं। ऐसे ही एक दिन इस ठाकुर टी स्टॉल में मैं बैठा था और रेलवे के चार-पाँच सेवानिवृत महानुभाव भी बैठे थे कि एक दिव्या परिधान पहिने  हाथ में अद्भुत प्रकार का दण्ड लिए , कानों में बड़े बड़े गोल कुण्डल, गले में अनेकों किस्म की मालायें, चेहरे पर वभूती और माथे पर लाल चमकता हुआ लम्बा तिलक और हाथ में पीतल का कमण्डल, तीसर पर जटाजूट ठीक सिर के ऊपर कुछ ऐसा लपेटा हुआ कि सिर पर बोझा ले जाने का डील जैसा, लम्बा ढीला काला बौनानुमा चोला, हाथ में मोटे-मोटे कड़े जिन्हें बाबाजी हाथ में लिये काले  एक-डेढ फुट के डंडे से हाथ मोड़ कर इस प्रकार बजाते हैं कि दूसरे हाथ की आवश्यकता नहीं पड़ती। कुल मिलाकर परिधान ऐसा कि कोई भी आकर्षित व भयभीत हुए बिना नहीं रह सकता।
वहां दिव्यमूर्ति हम पाषाणशिला पर तीनों तरफ से बैठे समय बिता रहे थे कि बाबा जी हमारे बीच में आकर अपने हाथ के डंडे से कंगनों को झंकारते हुए जोर से  बम भोले-हरहर महादेव का उद्घोष करने लगे। सभी सकपका कर बाबा को देखने लगे। बाबाजी ने अपना कमण्डलु आगे कर दिया और बोले-इक्कीस रूपये इसमें चढ़ावा चढ़ा दो बच्चा भोलेनाथ कल्याण करेंगे। 
चाय वाले ठाकुर साहब मुस्करा रहे थे और बाबा जी अपना प्रभावषाली व्यक्तित्व के साथ धर्मदान का सात्विक प्रवचन और ज्ञान की रसधारा बहा रहे थे। साथ में बैठे किसी पर तो बाबा के प्रवचनों का खास प्रभाव नहीं पड़ा। परन्तु मुझ पर उन के प्रवचानों की शब्दावली का अच्छा खासा असर पड़ा और मेरी धार्मिक सहिष्णुता ने उनके कमण्डलु में कथित चढ़ावा चढ़ा दिया। बाबाजी के मुखारबिन्दु से ईश्वरेच्छा से आशीर्वादों की झड़ी लग गई, और मै वहाँ पर बैठे सभी सज्जनों में अतिदानी का भाव मन में रख रहा था। 
बाबा चाय वाले ठाकुर जी से-भक्त ये बताओ कि शिवजी का प्रसाद कहाँ मिलेगा। मैं तो समझ नहीं पाया परन्तु अनुभवों के धनी ठाकुर साहब ताड़ गए कि बात गांजे की हो रही है।
षिवजी की बूटी की बात कर रहे हो महाराज आप ? ठाकुर ने पूछा।
बाबा- हाँ........हाँ । वही।
चाय के छप्पर से 50 गज की दूरी पर बाबा भटकनाथ अपने अस्थावान षिष्यों से घिरे हुऐ उन्हें षिवबूटी का आनन्द दिला रहे हैं। 
चाय वाले बलवन्त सिंह विनम्रभाव से  कहते है.... हाँ... क्यों नहीं। बाबा भटकनाथ की ओर इषारा करते हुए। ओ देखो! सामने बाबा भटकनाथ बैठे  हैं। वही बाबाओं की सेवा करते हैं। खाना-पीना ठहरना- सब बन्दोबस्त है वहाँ। 
बाबा ने अपनी दिव्यदृष्टि बाबा भटकनाथ जी के धूना और आसन पर गड़ाई। बाबा के ने़त्रों में आषा की चमक की किरणें और होठों पर मुस्कान खिल उठी।  हर-हर महादेव और बम-भोले के उद्घोष के साथ भोले भक्त बाबा के कदम भटकनाथ जी की ओर बढ़ गये। हम सब की नजरें बाबा भोले भक्त को जाते हुए देख रही थी। ठाकुर बलवन्त सिंह जी को इस हाट बाजार में चाय बेचते तीस साल हो गए हैं। इस हाट बाजार की कोई बात ऐसी नहीं है जो बलवन्त सिंह से छुपी हो। उम्र के हिसाब से पिचत्तर बसन्त देख चुके हैं ठाकुर साहब। शरीर का डीलडौल ऐसा कि लगता है अपने जमाने के पहलवान रहे हों। जैसे ही बाबाजी ने भटकनाथ जी की ओर कदम बढाए, ठाकुर बलवन्त सिंह के होठों पर रहस्य पूर्ण मुस्कान थी। 
बाबा भटकनाथ का स्थान अधिक दूर नहीं है। हर क्रिया-कलाप ठाकुर के चाय के खोखे से दिखाई और ध्यान लगाकर सुनने से हर बोलचाल या बातचित्त सुनाई देती है। भोले बाबा उद्घोष करते वहाँ पर पहुँच ही गए। हम देख रहे थे कि........... बड़े सम्मान से वहां पर बाबा का स्वागत हुआ। 
बाबा भोलेभक्त ने वहाँ पर पहुँच कर जय षंकर और जय श्रीराम का उच्चारण किया। इस बार बमभोले हरहर महादेव का स्थान जय षंकर और जय श्रीराम ने ले लिया था। आओ महाराज प्रणाम । कहाँ से भ्रमण हुआ? बाबा भटकनाथ ने कहा। 
भोलेभक्त भी अतुलित ज्ञान लिए हुऐ थे। बोले- रमता जोगी बहता पानी को मत पूछो कहां से आए कहां जाना। वैसे मैं नेपाल से बाबा पषुपति नाथजी के दर्षन करके मथुरा होते हुए आज रामराजा के दर्षन के लिए झांसी आया हूँ। 
भटकनाथ बाबा का जो ठिकाना है वह हाटबाजार में खोखों की दुकानों की लाइन में ही एक किनारे पर है। यह भी एक लोहे का खोखा बना है। खोखा अधिक ऊँचा नहीं है। इसका फर्स जमीन से ही सटा है। भटकनाथ जी खोके के अन्दर टाट पट्टी बिछा कर एक टांग को मोड़ कर दूसरी टांग को मुड़े पाँव की जाँघ पर रख कर बैठे है। लम्बी स्वेताम्बर दाढी और केष, सांवला बदन, उर्धङ्ग मे कुर्ता, धोती लपेट कर पहने हैं। मांथे पर रामानुजी तिलक, गले में माला और लाल रंग का गमछा और लपेटे बैठे है। सामने के दो दाँत टूटे हुए हैं।

...................... जारी!

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