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बुधवार, 24 अक्टूबर 2018

वीरांगना को नमन हेतु मेरी यात्रा-2
गढकुण्डार किला
अनसूया प्रसाद काला की यात्रा डायरी से 
भोलेभक्त के स्वागत में बाबा भटकनाथ स्वयं  अन्दर से बाहर आ गए और अपना आसन भोलेभक्त को दे दिया। भोलेभक्त बाबा ने भी अपना कमण्डल, हस्तदण्ड, नीचे रख दिये। बाबा भटकनाथ ने तुरन्त चेलों को चिलम बनाने का आदेष दिया। यह बात अलग है कि शिष्यों के बीच में दो चिलमें पहले से ही सेवा में लगी हुई थी। चिलमों की यहाँ पर कोई कमी नहीं है। दस पाँच चेले हर वक्त उन की छत्रछाया में रहते है। आदेष का पालन हुआ।  आगन्तुक बाबाजी को शुद्ध षिवबूटी की चिलम बनाई गई और श्रद्धा के साथ अर्पण हुई। दो चिलम लगातार बाबाजी को समर्पित की गई। अब शायद भोलेभक्त जी प्रबचनों के मूड में थे परन्तु मै उन के प्रबचनों को न सुन सका। क्योंकि मेरा घर जाने का समय हो चुका था और मैं हाट बाजार की उस पवित्र चायपान के खोके से उठ कर  साथियों से विदा लेकर चल दिया।
अगली सुबह मै प्रात; घूमने के इरादे से निकला । यह मेरा नित्य का नियम था। हाटबाजार में ही एक और षिवमन्दिर है। इसके दर्षन कर मै आगे निकल जाता हूँ। आज मैने देखा कि कल वाले बाबा जी भी षिवमन्दिर में बैठे हैं। उन्हें प्रणाम किया। आषीर्वाद के रुप में उन्हों ने हाथ उठाए। लेकिन कहा कुछ नहीं। प्रातः के भ्रमण कालीन वेला में अनेक विचारों के महानुभावों से परिचय होता रहता था। घर से एक-डेढ कि0मी0 की दूरी पर काली मन्दिर है । वहाँ तक जाना मेरा नित्य का नियम था। वहाँ माता की चौखट पर मत्था टेक कर मैदान में चारों तरफ पत्थर की बेचें लगी है। झाँसी एक ऐसा जिला है जिसके तीन तरफ से मध्यप्रदेष की सीमायें लगी हैं। मानचित्र में देखने से ऐसा लगता है मानो यह जिला मध्यप्रदेष में घुसा हो। इस क्षेत्र में पत्थर की षिलायें मोटी और चौकोर मिल जाती हैं और भवनों में भी काम में लाई जाती हैं। इन्हें पत्थरों से बगीचों ढाबों और खोकों में  बैठने की बेचों का काम भी लिया जाता है। माता के मन्दिर के चारों ओर मैदान में यही पत्थर बिछे हुए हैं। उन पर अनेक प्रातःकालीन भ्रमण कारी, जिनमें अधिकांष सेवा निवृत बुजुर्ग होते हैं, कुछ देर के लिए यहाँ पर विश्राम करते हैं। यहीं पर मैं भी एक बेंच पर बैठ गया। तभी दो बुजुर्ग जिनमें एक का लम्बा चौड़ा और तगड़़ा शरीर, जब कि दूसरा दुबला-पतला परन्तु लम्बा कदकाठी का था। दोनों  धोती- कुर्ता  और जेकेट पहने तथा गले में तुलसी की माला पहने और एक के गले में गमछा कुछ इस तरह डाले था कि गले में जैसे दुपट्टा डाला हो, माथे पर तिलक धारण किये, मेरे ही साथ की बेंच पर बैठ गये। उनकी बातें आज की राजनीति पर टिकी थी । मैं राजनीति  में कोई दिलचस्पी नहीं लेता। अतः मेरे लिए ये बातें निरर्थक थी। कुछ देर बाद वे मेरी ओर मुखतिब हुए और हमारा आपसी परिचय का आदान-प्रदान हुआ। उन्होंने मेरा स्थाई निवास के बारे में पूछा तो मैंनें उन्हें बताया कि मैं उत्तराखण्ड से हूँ। वे बडे़ प्रभावित हुए। अनेक उदाहरणों से वे इस देव भूमि की प्रसंषास्तुति कर रहे थे। समय काफी हो गया था। अतः मैं चलने के लिए उठ खड़ा हुआ। वे भी चलने के लिए खड़े हो गए। मैंनें नमस्कार कर उन से विदाई चाही तो वे मेरे पाँव छूने के लिए झुके। मैंने उन का हाथ पकड़ लिया कि आप मेरे से बड़े है। आप के पाँव तो मुझे छूने चाहिए। वे बोले तुम एक तो ब्राह्मण और उस पर भी देवताओं की भूमि उत्तराखण्ड के हो। आप के पाँव में उस भूमि की मिट्टी लगी होगी । उसी माटी को हम प्रणाम कर रहे है, छू रहे हैं। 
बड़ी विचित्र मानसिक स्थिति थी मेरी उस समय। हम तीनों विदा हुए। रास्ते भर सोचता रहा कि वास्तव में कितनी धन्य है यह देवभूमि। लेकिन क्या मेरे या हम उत्तराखण्डियों के आचरण इसके तुल्य है ? सुबह के आठ बज रहे थे । रास्ते में ही ठाकुर बलवन्त की चाय का खोका पड़ता है। उन्होंने दुकान लगा ली थी। मैं सुस्ताने के लिए वहाँ पर बैठ गया। 
चायवाले ठाकुर साहब से दुआ-सलाम हुई तो वे कल भोलेभक्त बाबा के चिलम पीने की घटना का आँखों देखा हाल बताने लगे।
ठाकुर बलवन्त बोले- साहब आप को कल के बाबा की बात बताऊँ ? जब आप चले गए थे तो जानते हो क्या हुआ ?  मैंने कहा- मैं तो चला गया था । आप बताओ - क्या हुआ ? कोई अनहोनी हो गई क्या ? साहब कल बाबा को तो भटकनाथ बाबा ने खूब चिलम पिलाई परन्तु चेलों ने अपना कमाल दिखा दिया- बचन सिंह बोले।   
क्यों क्या हुआ ? मैंने पूछा ।  
 वे बोले-चेले बाबा भोलेभक्त के कमण्डल, माला सब मार लिए थे। बाबा गिड़गिड़ाते यहाँ पर आया और कहने लगा कि भटकनाथ  और उसके चेले मेरा सब सामान मार लिए हैं। कमण्डल में भिक्षा के पाँच सौ रुपये से ज्यादा पैसे थे। वे सब ले गए। मेरी माला भी ले गए। माला ही तो मेरी कमाई थी। उसी को देख कर तो मुझे लोग पुन्य का दान देते हैं। वे सब ले गए। मैंने बाबा से कहा- सामने पुलिस की गाड़ी है। वहां पर जाकर पुलिस को बताओ। बाबा पुलिस के पास गए। उनके साथ दो सिपाही आए और बाबा भटकनाथ से बाबा भोलेभक्त का कमण्डल पैसों सहित और मालायें वापस करने के लिए कहा। बाबा भटकनाथ पुलिस से हाथ जोड़ कर विनती कर रहे हैं। कहते हैं- दीवानजी पैसे तो लड़कों ने खा-पी लिए । परन्तु कमण्डल और माला है। उन्हे बाबा को दे देता हूँ। 
पुलिस भी क्या करे ? बाबा ने वह ले लिया और मेरी दुकान पर आकर बैठ गया मैने एक चाय पिलाई और फिर बाबा यहाँ से चले गए। इतना कह कर ठाकुर साहब मौन हो गये और मेरी प्रक्रिया की प्रतीक्षा करने लगे। परन्तु मैं मौन ही रहा।
मैं चाय की दुकान से उठा और हौले-हौले कदम बढाते घर की ओर चल दिया । मन में अनेक विचार आ रहे थे । कैसे-कैसे प्रपंच रचता है मनुष्य ? किसी को नषे की तलब तो वहीं बाबा भोलेभक्त का नसेड़ी कमण्डल लेके गायब। लेकिन सभी को पोष रही है यह वसुन्धरा । 
 कुछ समय बीतने के बाद एक दिन मै हाट बाजार मे इसी चाय की दुकान में बैठा अखबार पढ रहा था कि एक हृस्टपुष्ट सज्जन वहां पर आये। जिसका तंन्दुरस्त डीलडौल, लम्बी कदकाठी, तगड़ा बदन, ऊँचा माथा, चमकीली आँखें, और चेहरे पर रौबदार मूँछें थी। सर पर राजपूती पगड़ी, धोती-कुर्ता पहने पाँवों में राजपूती जूते, और गले में साफा लपेटे हुए था। कुल मिलाकर उसका शारीरिक व्यक्तित्व बड़ा प्रभावषाली था। बातों का सिलसिला चला तो उन्होंने बताया कि वै गढकुण्डार मेले में जा रहे हैं। वहाँ पर खंगार राजपूतों का साल में एक बार मिलन मेला लगता है। इसके लिए दिसम्बर का अन्तिम सप्ताह निर्धारित है। उन्हांने मुझे भी साथ चलने का आग्रह किया। परन्तु मै न जा सका। उन सज्जन का नाम गोपाल सिंह खंगार है और वे झाँसी के ही हैं। बात इतनी ही आई गई हो गई। कुछ दिनों बाद  एक दिन मै पैदल ही  टहनते हुए झांसीरानी पार्क पहुँच गया। यह मेरे प्रातः कालीन भ्रमण का ही हिस्सा था। मै काफी दूर पैदल चल कर आया था। अतः कुछ विश्राम  की इच्छा से पार्क में रानी के स्मारक के पास बेंच पर बैठ गया। स्मारक बहुत सुन्दर बना है। पच्चीस तीस फिट ऊँचाई के स्थम्भमंच पर लक्ष्मीबाई की शौर्य का बयां करती ,घोड़े पर सवार, पीठ पर पाँच साल का दामोदर राव, घोडे़ की लगाम मुंह में दाँतों से दबाये,युद्ध के लिए तत्पर दोनों हाथों में नंगी समसीर लहराती रानी की बहुत ही अद्भुत और गौरवमयी प्रतिमा है। सामने झांसी का किले की बाहरी दीवार दिखाई दे रही है। किले के बारे में  मन में अनेक ख्याल आ और जा रहे थे। फिर याद आ गया कुण्डारगढ का किला। जिसका वर्णन गोपाल सिंह खंगार ने किया था। समय काफी था। तब तक एक सज्जन अपने बच्चों के साथ पार्क में टहलते हुऐ आ गये और मेरे सामने की बेंच पर बैठ गये। जान-पहचान न होते हुए भी मैंने आदतानुसार उन्हें नमास्कार कर किया। वे थेड़ा मुस्कराये षायद यह सोचकर कि हमारी आपस में कोई जान पहचान नहीं है फिर भी मैं अभिवादन कर रहा हॅू। बड़े सौहार्द पूर्ण हमारी बातें हुईं। मैने उनसे कुण्डारगढ जाने के रास्ते के बारे में पूछा तो उन्हों ने बताया कि मैं बस अड्डा चला जाऊँ। वहॉं से बस मिल जायेगी।बस अड्डा वहां से तीन कि0मी0 के लगभग है। हालांकि यह समय वहां पर किसी प्रकार के समारोह का नहीं था फिर भी मैं उठा और मुख्य मार्ग पर आकर आटो में बैठ कर बस अड्डा चला गया। गढकुण्डार के लिए तो कोई सीधी बस नहीं मिली। परन्तु झांसी से तीस कि0मी0 दूर निवाडी कस्बे तक बस जाती है । यहां से आटो से जाया जा समता है।वैसे निवाड़ी रेल मार्ग में पड़ता है। मैं अकेला ही सफर को निकला था। कोई परिचित साथी संग में नहीं था। बस अड्डे पर जाकर पता चला कि मऊरानीपुर  के लिए बस जाती है और निवाड़ी इसके रास्ते में पड़ता है। मैं मऊरानीपुर जाने वाली बस में बैठ गया। साथी के नाम पर मेरे साथ थे तो बस अंजान बस यात्री। रास्ते में बरूसा सागर तहसील मुख्यालय है और कुछ दूर है बरूवा सागर डाम। यहां से नहरें निकाली गई हैं और झाँसी जैसे षहर के लिए पेय जल की आपूर्ति भी यहीं से होती है।। यह डाम बुन्देलखण्ड की गंगा कहलाने वाली वेतुवा नदी पर है। झांसी से बस मऊरानीपुर के लिए चली थी । इसी बस में मैं निवाडी तक के लिए बैठा हूँ। बस निवाड़ी से आगे चली जाएगी। मेरी बगल में बैठे साथ के सहयात्री ने निवाड़ी पहुँच ने पर बताया कि निवाडी  आ गया है। मैं कुण्डार के लिए यहाँ पर उतर जाऊँ। बस के रुकते ही मैं उतर गया । निवाड़ी छोटा सा कस्बा है। यहां पर आवष्यकता का सभी सामान मिल जाता है। जलपान की समुचित दुकानें है। यहाँ से गढकुण्डार के लिए कोई नियमित बस नहीं जाती है। अब समस्या वहाँ तक जाने की थी। झांसी से यहाँ .तक 30 कि0मी0 और  आगे निवाड़ी से गढकुण्डार 35 कि0मी0 की दूरी पर है। यहाँ से लोकल आटोरिक्षा भी गढकुण्डार आस-पास के गाँवों के लिए चलते हैं। परन्तु उनकी जब सवारी पूरी हो जाती है तब प्रस्थान करते हैं। मुझे वापस झाँसी अपने ठिकाने पर भी आना था। इस लिए समय की बचत के लिए मैंने आटोरिक्सा बुक किया और गंतव्य को चल दिया। यह इलाका मध्यप्रदेष के टीकमगढ जिले में पड़ता है। आटोरिक्षे से मैं आस-पास का नजारा देख रहा था। बड़े-बड़े मैदानी खेत हैं परन्तु कहीं खेती नहीं है। पूरा इलाका सूखे की चपेट में है। खेत वीरान पडे हैं। रास्ते में एक गाँव वाले ने  आटो को रोकने के लिये हाथ उठाया तो आटो वाले ने उसे मना कर दिया क्यों कि आटो मेरा बुक था। मेरे कहने पर आटो वाले ने उस किसान को आटो में बिठा दिया। सड़क पक्की और चौड़ी है। परन्तु यातायात बहुत कम  है। गाँव के उस सज्जन से मैंने खेतों के वीरान होने के बारे में बातचित्त की तो उन सज्जन ने बहुत दुखी मन से कहा... बाबूजी खेती कैसे करें। पानी बरसता नहीं । सूखा रहता है। खेत के लिए तो पानी चाहिए। उन्होंने दुखी होकर कहा -किसान यदि कैसे करके बीज खाद का प्रबन्ध कर भी ले तो पानी के बिना  अनाज नहीं होता। लागत भी नहीं निकलती। पास में ही वेतवा का जल प्रवाह है। फिर भी पानी का अभाव ?  खैर! किसान अपने गंतव्य के तिराहे पर पहुंच कर आटो से उतर गया। 
आस-पास नजर दौड़ाई। किला के कहीं दर्षन नहीं हो रहे हैं। जब कि आटोचालक कह रहा था कि हम किले के पास पहुँच गए हैं। एक पहाड़ी के नीचे आटोचालक ने आटो रोक दिया और कहा-बाबूजी किला आ गया है। यहाँ से पैदल जाना पड़ेगा। आटो से उतरकर देखा तो सामने पहाड़ी पर किला शान से खड़ा अपने अतीत की गाथा बयां कर रहा था। किले तक जाने के लिए  हस्तपथ की बड़ी लम्बी चौड़ी सीढियां हैं। किले के प्रवेष से पहले ही दाहिने ढलान पर एक महल नुमा भवन है। सम्भव है यह राज्य के कर्मचारियों का निवास रहा हो। किले के मुख्यद्वार  पर एक  अधेड़ व्याक्ति औेर एक नौ जवान मिले। साथ ही कुछ मजदूर काम कर रहे थे। मै उनसे किले के विषय में जानना चाहता था। नव युवक आगे आया और कहा कि  चलो किला घुमा लाऊँ। अन्धे को क्या चाहिए दो आँख ! मुझे भला क्या चाहिए था? मैं उसके साथ हो लिया।  किला अपने समय के षिल्पकला का बेजोड़ नमूना है। गाइड ने बताया कि इसके सिंहद्वार की ऊँचाई 20 फिट और चौड़ाई 80 फिट है। सिंहद्वार से लगा हुआ चारों तरफ 6 फिट मोटाई का परकौटा राज महल को घेरे है। सिंहद्वार के आगे जाने पर सिंहपौर है और इसके बाद तोपखाना या षस्त्रागार है। गेट के पास ही राजमहल के बाहर घुड़साल है। जो 18 फिट चौड़ा और 100 फिट लम्बा है। वर्तमान में इसे तोड़ कर अतिथि गृह का निर्माण किया जा रहा है। राजमहल का प्रवेष द्वार पार करने पर भव्य और लम्बा-चौड़ा आँगन है। इसके चारों तरफ कमरे और ढ़ालान बने हैं। इसके अन्तिम भाग  वर्गाकार और बहुत बड़ा है। 
किले के राजमहल में राजा रानी का कक्ष, राजकुमारों का कक्ष और दीवाने आम और बन्दी गृह भी है।  मेरे साथ चलने वाले पथ प्रदर्षक युवक सर्वेष कुमार ने बताया कि महल के इस आँगन में हनुमानजी का मन्दिर था जिसे किले से एक कि0मी0 दूर गिद्दवाहिनी देची के मन्दिर में ले गये हैं। हनुमान मन्दिर के अवषेष अभी भी प्रांगण में हैं। आँगन में ही विषाल वेदी बनी है जिसपर राजा महापूजा करता था। सबसे बड़ी और अद्भुत बात इस किले की यह है कि इसके दो तल भूअन्तर्गत है। कोई तीन तल भू-अन्तर्गत बताता है। किला सात मंजिला है। किले के एक भाग में सुलभ षौचालय भी बना है। भूतल पर जाने के लिए खड़ी सीढियां है। मुझे भूतल को देखने की उत्कण्ठा हुई और मैं सीढियों से नीचे उतरा। सीढियाँ एक दम खड़ी और गैलेरी संकरी है। प्रकाष का कोई प्रबन्ध नहीं है। नीचे धुप अंधेरा था। सर्वेष मेरे साथ पीछे आ रहा था। सर्वेष ने मोबाइल जलाकर रोषनी की, 10 फिट लम्बे चौड़े कमरे में सीढियां समाप्त हो गई। यहां से और नीचे उतरने के दरवाजे और सीडियां बन्द कर दी गई हैं। जनश्रुतियाँ है कि एक समय पर इस गडकुण्डार में पास के ही गाँव में आई बारात के पावने धूमने के लिए किले में आए और इस के भूतल में चले गए। कहा जाता है कि वे सब बाहर नहीं आ सके और वहीं गुम हो गये। यह कितना सच है कहना कठिन है। परन्तु किले की रचना अद्भुत तो है ही । मैने प्रथम भूतल के प्रवेष कक्ष से वापस आना ही ठीक समझा और सीढियाँ चढकर ऊपर आगया और सीधे सब से ऊँचे परकोटे पर आखरी मंजिल पर चढ़ गया। यहाँ से चहुँ ओर अवलोकित हो रहा है। पहाड़ियों से घिरा यह किला  सामरिक दृष्टि से ऐसे स्थान पर बना है, जहाँ से दूर तक नजर रखी जा सकती है परन्तु किला पास आने पर ही दिखाई देता है। तोप का गोला भी इस पर असर नहीं कर सकता था। सामरिक दृष्टि से यह गढ़ अपने आप में तब बहुत सुरक्षित रहा होगा। परकोटे में मै सर्वेस के साथ एक जगह बैठ गया और प्राकृतिक नजारे का आनन्द लेने लगा। जंगल ,वन और घाटियां बहुत सुन्दर दिखाई दे रही हैं। दूर वेतवा  की उपत्यका का चारों ओर प्रकृति का सुन्दर नजारा दिखाई दे रहा है। किले के नीचे खाई की ओर दृष्टि गई तो देखा, एक सीड़ीनुमा रास्ता आगे एक गोलछतरी पर समाप्त हो जाता है। उत्सुकता से इस के इसके बारे में पूछा तो सर्वेस ने  बताया कि यह कुआँ है ओर भूतल से इसका रास्ता जाता है । इसे जौहर कुआँ भी कहते है। उसने बताया कि मोहम्मद तुगलक के समय में यहाँ के राजा की सुन्दर सौंदर्य और यौवन से भरपूर कन्या थी। जिसका नाम केषर दे था। बादषाह ने उसे पाने के लिए गढ़कुण्डार पर आक्रमण किया था तो बचने के लिए केषर दे ने इस कुएं में जौहर कर दिया था। कुएं तक जाने का यह गुप्त मार्ग है। किले का अवलोकन करने पर ऐसे लगा जैसे यह कह रहा हो- हे देवभूमि से आए उत्तराखण्ड के चारण ! आज तुम जब यहाँ भ्रमण पर आए हो तो भला तुम्हारे मन में क्या था ? क्या कभी मेरे वैभव के दिनों के बारे में जानते हो? मेरा इतिहास एक हजार वर्ष पूर्व का है। मैंने कई उजड़ते और बसते देखे हैं मेरे ही आगोष में।
...............................शेष भाग अगले अंक में।

वीरांगना को नमन हेतु मेरी यात्रा-2
गढकुण्डार किला
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