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गुरुवार, 25 अक्टूबर 2018

गढ़वाल राइफल्स की स्थापना में 
लाट सूबेदार बलभद्र सिंह नेगी का योगदान
 - डॉ0 नन्दकिशोर ढौंडियाल ‘अरूण’
            balbhadra singh negi के लिए इमेज परिणाम    यों तो गढ़वाल की हर नारी वीर प्रसूता है, इसने कभी उन कर्मवीरों को जन्म दिया जिन्होंने युग-युग से खड़े हिमालय के पर्वतों की हड्डियों को तोड़ यहाँ सीढ़ी जैसे खेत बनाकर इसे अन्नपूर्णा की उपाधि से विभूषित किया तो इसने इस देवभूमि में उत्पन्न होने वाले धर्मवीरों के अन्दर ईश्वर के प्रति आस्था और कण-कण में ईशांश के दर्शन करने के संस्कार दिये। यहां की जन्मदात्री, कभी ज्ञानवीरों की माता बनी तो यहां के वाक्वीर भी इसकी गुण गरिमा में वृद्धि करते रहे।  यहाँ  की माताएँ जहां अनेक दानवीरों की जन्मदात्री बनी तो एक दीर्घ अवधि से युद्धवीरों को भी उत्पन्न करती रही है। इन्हीं वीर माताओं में पौड़ी गढ़वाल की पट्टी असवालस्यूँ के ग्राम नगरजन्मा सीता देवी भी थी जिन्होंने की महड़ ग्राम निवासी श्री धन  सिंह नेगी का वरण कर अपने तृतीय पुत्र के रूप में उस युद्धवीर लाट सूबेदार बलभद्र सिंह नेगी को जन्म दिया जिसके शौर्य, पराक्रम, दूर दृष्टि और स्वामीभक्ति से आकर्षित होकर भारत के तत्कालीन कमांडर इन चीफ लार्ड रॉबर्ट ने उस वीर की इस प्रार्थना पर कि ‘‘गोरखा राइफल्स की भांति गढ़वाल की भी अपनी एक पल्टन होनी चाहिए’’ के समर्थन में  कहा -'' A Nation which could produce A warrior like, Balvadra Singh Negi should have A Regiment of its, own" लाट सूबेदार बलभद्र सिंह नेगी की अनुशंसा में की गयी लार्ड राबर्ट की यह टिप्पणी यह सिद्ध करती है कि लाट सूबेदार बलभद्र सिंह नेगी का ब्रिटिश सेनानायक पर कितना प्रभाव था।
लाट सूबेदार बलभद्र सिंह पढ़े-लिखे नहीं थे फिर भी उनके अन्दर राष्ट्र प्रेम और जनहित की भावना कूट-कूट कर भरी थी। इसी राष्ट्र प्रेम के कारण उन्होंने ब्रिटिश सेना में रह और देश -विदेश जाकर अपने जिस पराक्रम का प्रदर्शन किया, उसकी छाप गौरांग प्रभुओं के हृदय में जिस तरह से पड़ी उसका प्रमाण  उन्हें समय-समय दी गई प्रोन्नतियां, और वीरता के पुरस्कार थे। लाट सूबेदार यद्यपि तत्कालीन वीर गोरखाओं की सैन्य टुकड़ी की योद्धा थे लेकिन वहां रहकर उनका मन बार-बार कसमसाता था क्यांंकि गोरखाओं के मध्य रहकर उनकी संस्कृति से परिचित हो जाना एक अलग बात थी परन्तु गोरखा कहलाना सम्भवतः उन्हें अन्दर से अच्छा नहीं लगता था। वे उस समय जितने भी अदम्य साहस के कार्य करते थे, उसका फल और यश गोरखाओं को मिलता था। उस युग में गढ़वाली सैनिकों की अपनी स्वतंत्र पहचान नहीं थी। यह सब तब कि बात थी जबकि गढ़वाल राइफल्स का अस्तित्व नहीं था लेकिन जब सन 1887 में गढ़वाल राइफल्स की स्थापना हो गयी थी, इसके 43 वर्ष पश्चात् जब 23 अप्रैल सन् 1930 में पेशावर का काण्ड हुआ तो तत्कालीन ‘हंस’ पत्रिका के संपादक मुंशी प्रेम चन्द्र ने अपनी इस पत्रिका में इसका जो समाचार प्रकाशित किया, उसका शीर्षक था ‘‘पेशावर में गोरखा सैनिकों की सैनिक क्रांति‘‘ जबकि इस क्रांति को 2/18 रॉयल गढ़वाल राइफल्स के उन 62 सैनिकों ने चरम तक  पहुँचाया जिसके नायक हवलदार मेजर वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली थे इतने वर्षों के पश्चात् भी देश के  बुद्धिजीवियों को यह ज्ञात नहीं हुआ कि गोरखा और गढ़वाली  दोनों अलग-अलग कौम में है।
यही कारण था कि स्वतंत्र अस्तित्व न होने के कारण गढ़वाली सैनिक गोरखा राइफल्स में अपने को असहज और उपेक्षित समझते थे।
उस युग में गढ़वाली सैनिक गोरखाओं के मध्य किस स्थिति में थे, इस सम्बन्ध में मेरे दादा जी स्वर्गीय भोलादत्त ढौंडियाल हमें बचपन में अपने साथ घटी सेना की एक घटना सुनाते थे।  वे बताते थे कि ‘‘जब मेरी  अवस्था 24-25 वर्ष की रही होगी तब मेरे अन्दर गढ़वाल से बाहर जाकर नौकरी करने का भूत सवार हुआ, इसका कारण था कि मैं जब कभी अपने उन साथियों को देखता जो सेना में भर्ती होकर छुट्टी पर घर आते तो वे कसी हुई वर्दी में  छबीले लगते थे, गांव में आकर उनका बड़ा मान-सम्मान होता था जिस दिन वे घर पहुँचते तो इनकी अगुवानी के लिए लोग ढोल दमाउ बजाते हुए आधे रास्ते तक जाते थे। उनके साथ गांव के बालक और किशोर स्वागत में पहुंच जाते थे। जैसे ही वह फौजी उन्हें आधे रास्ते में मिलता तो स्वागत अभिवादन के पश्चात कोई उसका बक्सा तो कोई किट कंधों पर लाद कर उसके घर तक पहुंचाता था। इसके बाद फौजी अपने साथ लाये गुड़ चना बांटकर सबको खुश कर देता था। गाँव के ऐसे दृश्यों को देखकर मैं एक दिन अपने पहचान के किसी फौजी के साथ पेशावर पहुंच गया। पेशावर जाकर जब मैंने फौजियों की दिनचर्या देखी तो मेरा फौज में भर्ती होने की इच्छा का भूत  भाग गया। परन्तु वहां पहुँचकर कुछ तो करना ही था। उन दिनों जब पल्टन एक जगह से दूसरी जगह जाती थी, तो उनके साथ पीने का पानी बोतलों में भरा जाता था, जिसकी कीमत सिपाही को चुकानी पड़ती थी। इस पानी की बोतलों को पहुंचाने वाला एक ठेकेदार होता था, जिसके कई नौकर थे, मैंने भी उनके साथ यहाँ पानी पहुंचाने की नौकरी कर ली। उस समय वह ठेकेदार गोरखा राइफल्स को पानी की सप्लाई करता था। 
एक दिन जब गोरखा राइफल्स की एक सैन्य टुकड़ी, पेशावर से बाहर जा रही थी तो ठेकेदार ने मुझे उसके साथ भेज दिया। जैसे ही गोरखा सिपाही अपने ठिकाने पर पहुंचे, मैंने वहीं जाकर अपनी दुकान खोल ली। वहां सिपाही आते और पानी पी कर जाते थे। उनमें से एक गोरखा सिपाही आया औैर मुझसे पानी मांगने लगा और मैंने उससे पैसा मांगा तो उसने  पैसा देने के बजाय जबर्दस्ती पानी की बोतल उठाकर पीने लगा। मैंने जब उसे टोका तो उसने कमर से खुखरी निकाल कर मेरे ऊपर ऐसा वार किया कि अगर मैं कुर्सी से उठकर न जाता तो उसका वह वार मेरा दाहिना हाथ काट डालता, क्योंकि खुखरी की वह चोट इतनी तेज थी कि जिस कुर्सी पर मैं बैठा था, उसका टिन आधा कट गया था, उसके पश्चात् मैंने एक डंडा उठाकर अपना बचाव किया। इसके पश्चात मुझे एक गढ़वाली सिपाही से ज्ञात हुआ कि ये गोरखा सैनिक अक्सर हम गढ़वालियों के साथ ऐसा ही व्यवहार करते हैं और अगर इनकी शिकायत इनके गोरखा अफसरों से करो तो वे इन्हीं का पक्ष लेते हैं, इसलिए हम लोगों को अंग्रेजों से ही नहीं गोरखाओं के समक्ष भी डर कर रहना पड़ता है’’ गढ़वाली सैनिकों को ऐसी ही दुर्घटनाओं से कई बार साक्षात्कार करना पड़ता था, लेकिन सैन्य अनुशासन और सहनशील होने के कारण उन्होंने कभी भी ऐसे अत्याचारों के प्रति आवाज नहीं उठाई। लाट सुबेदार बलभद्र सिंह गोरखा रेजिमेन्ट में रहकर ऐसी दुर्घटनाओं को देखने और सुनने के अभ्यस्त हो गये थे, लेकिन उनके अन्दर बैठा स्वाभिमानी गढ़वाली मन मसोस कर रह जाता था। इसी पीड़ा से पीड़ित लाट सूबेदार बलभद्र सिंह चौतीस वर्ष की सैन्य सेवा की अवधि में तो चुप रहे लेकिन उनके मन में धीरे-धीरे इस भाव के बीज अंकुरित होने लगे थे कि यदि गढ़वाल कुमाऊँ की अपनी अलग सी सैन्य टुकड़ी होती तो जितना कुछ हम गोरखा राइफल्स के साथ रहकर कर रहे हैं, उससे अधिक  अलग होकर भी कर सकते हैं।
इस सम्बन्ध में जैसा कि लाट सूबेदार बलभद्र सिंह नेगी के वंशज श्री आनन्द सिंह नेगी अपनी सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘‘गढ़वाल राइफल्स के संस्थापक लाट सूबेदार एवं ऑनरेरी कैप्टन ठाकुर बलभद्र सिंह नेगी ओ0बी0आई (O.B.I) सरदार बहादुर ए0डी0सी0 (A.D.C.) एक सैनिक परिवार का इतिहास’’  में लिखते हैं-
‘‘ऐसा अनुमान है कि युवक बलभद्र सिंह प्रायः 1848 और 1852 (सन्) के बीच 2/5 गोरखा राइफल्स में भर्ती हुए, और अपनी पूरी लगन से काम करने लगे। एक ग्रामीण जो केवल अल्प वयस्क और प्रायः अनपढ़ हो और यदि वह अपने को अपने बहुसंख्यक साथियों के साथ ढल जाय तो यह केवल उसकी प्रतिभा, कुशाग्र बुद्धि और मिलनसारी का ही द्योतक है। युवक बलभद्र में ये गुण प्रचुर मात्रा में थे। यह भी मान लेना होगा कि गोरखा सैनिकों के साथ केवल ये ही एक गढ़वाली थे । और ऐसी जातीय फौजों में, तरक्की पाना कठिन ही नहीं वरन असम्भव भी है। प्रायः 12 साल सिपाही के ओहदे में रहने के बाद ही इन्हें लांसनायक बनाया गया था।’’ श्री आनन्द सिंह नेगी की उपरोक्त अभिव्यक्ति से स्पष्ट होता है कि वास्तव में गोरखा राइफल्स में गढ़वाली सैनिकों के साथ घोर पक्षपात होता था।  बारह वर्ष तक सिपाही ही रहना एक ऐसे सैनिक का दुर्भाग्य था जिसकी गोरखाओं के मध्य अपनी कोई जातीय पहचान नहीं थी जबकि इन बारह वर्षों के मध्य इस वीर सैनिक ने, गोरखा राइफल्स में रहकर कई युद्ध लड़े और अपने अदम्य साहस और शौर्य से ब्रिटिश सत्ता को विजयश्री दिलवायी, पर उनके साथ कैसा न्याय हुआ, इस संदर्भ में श्री आनन्द सिंह नेगी सेवा निवृत सेक्रेटरी डी0एस0एस0 एण्ड ए0बी0 अपनी इसी पुस्तक में लिखते हैं :-
‘‘अभूतपूर्व साहसिक कार्य करने के कारण, प्रायः 19 साल  की नौकरी करने के उपरान्त भी बलभद्र सिंह को जमीदारी के पद से विभूषित किया गया और इसके बाद प्रायः अबाध गति उन्नति होती गयी। प्रायः 25 साल की नौकरी करने के बाद 2/5 गोरखा राइफल्स में ये सूबेदार हो गये और 32 साल के बाद Sub Maj and Honorary Capt. पद प्राप्त हुआ और 34 साल की नौकरी के बाद अनुमानतः सन 1884 में ये सेवा निवृत हुए। 
श्री आनन्द सिंह का कहने का अर्थ है कि 34 साल की दीर्घ सेवा करने के पश्चात्  ही ब्रिटिश सत्ता ने इन्हें ऑनरेरी कैप्टन तक के पद तक ही सीमित रखा जब वह चाहती तो इस वीर पुरुष को सीधे कमीशन देकर इससे भी ऊंचा पद दे सकती थी लेकिन हाय रे, गुलाम भारत के वीर सपूतों ! ब्रिटिश सत्ता ने तुम्हारे बल पर अनेक युद्ध जीते लेकिन तुम्हें अन्तिम सैन्य पद ऑनरेरी कैप्टन तक ही सीमित रखा, परन्तु  भारत के राजे महाराजाओं को उन उच्च पदवियों से विभूषित किया जो कि इंग्लैण्ड के सैन्य और  सिविल अधिकारियों को दिया जाता था।
अपनी इसी कृति में श्री आनन्द सिंह नेगी यह स्वीकारते हैं कि .... उस जमाने में भारतीयों को सेना में इससे बड़ा पद नहीं दिया जाता था, और इस सम्मान को पाने का गढ़वालियों में सर्वप्रथम श्रेय श्री बलभद्र सिंह नेगी को प्राप्त हुआ था, उनका नाम अदम्य साहस के लिए Londan Gazette में छपा था, और दो बार उन्हें Order of Merit  भी मिला था। उनकी अनुपम सेवा के उपलक्ष में उन्हें  500 एकड़ Free semple Estate भूमि प्रदान किये जाने की सिफारिश भारत सरकार के पास विचारार्थ भेजी गई थी।’’
इतना सब कुछ होने पर भी लाट सूबेदार बलभद्र सिंह नेगी के अन्दर गढ़वालियों की अलग पल्टन होने के जो भाव बीज अंकुरित हो रहे थे, ये उन्हें अपने चौंतीस वर्षीय दीर्घ सैनिक सेवा के मध्य प्रकट नहीं कर सके, परन्तु जब वे सेवा निवृत हुए अंग्रेजों के द्वारा गढ़वालियों की ईमानदारी, स्वामिभक्ति, समर्पण और विश्वसनीयता को केन्द्र में रखकर इन्हें तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड डफरिन का अंगरक्षक बनाया गया। यह गढ़वालियों के लिए गौरव का विषय है कि इस देश के उच्च नेतृत्व ने गढ़वीरों के सेवा भाव और विश्ववसनीयता से प्रभावित होकर समय समय पर इन्हें अपने अंग रक्षक दल का नायक बनाया और जिसका सर्वप्रथम सौभाग्य लाट सूबेदार बलभद्र सिंह नेगी को प्राप्त हुआ। इसके पश्चात आजाद हिन्द फौज के अमर सेनापति सुभाष चन्द्र बोस भी गढ़वालियों के आत्म बलिदान तथा हर क्षण अपने द्वारा रक्षित व्यक्तित्व की रक्षा के लिए मर मिटने की तत्परता और स्फूर्ति पर आकर्षित  हुए और उन्हेंने उन्हें अपने अंग रक्षिणी टुकड़ी के लिए चयनित किया। इसका परिणाम है कि इन गढ़वाली वीरों ने कभी भी किसी लोभ लालच में आकर अपने स्वामी से विश्वासघात नहीं किया वरन इतिहास साक्षी है कि विश्व के कई सत्ताधारियों को उनके अंगरक्षकों के द्वारा धन, पद और जातीय और धार्मिक उन्माद के वंशीभूत होकर मौत के घाट उतार दिया गया।
ऑनरेरी कैप्टन बलभद्र सिंह नेगी जब गवर्नर जनरल लार्ड डफरिन के अंगरक्षक बने तो गढ़वाली लोगों ने उन्हें लाट (लोर्ड) सूबेदार की पदवी से विभूमिषत किया जो दिवंगत होने पर भी आज भी उनके नाम के आगे लगायी जाती है। 
गवर्नर के रक्षक होने पर लाट सूबेदार बलभद्र सिंह नेगी को अनेक लाभ हुए। सबसे पहला लाभ तो यह हुआ कि वे लार्ड डफरिन बहुत निकट आ गये, और ये गवर्नर महोदय से अपनी निजी तथा देशहित की बातें बतलाने लगे। इसी अवधि में सूबेदार नेगी ने जो बातें 34 वर्ष तक सेना में रहते हुए अपने अफसरों को नहीं बतलाई, वे सभी बातें अवसर आने पर लार्ड डफरिन को बतलाने लगे। इन बातों में वे बातें भी थी जिनका कटु अनुभव इन्हें गोरखा राइफल्स में रहते हुए था। इस अवधि में लाट सूबेदार श्री बलभद्र सिंह नेगी ने उस गौरांग अधिकारी को अवगत कराया कि गोरखा राइफल्स के सैनिक रहते हुए गढ़वाली सैनिकों  को क्या-क्या कठिनाइयां होती हैं  किस तरह से गढ़वाली और गोरखाओं का खान-पान आकार प्रकार, बोली भाषा हार व्यवहार रीति रिवाज और पहनावा भिन्न भिन्न है, इस लिए सेना में अधिसंख्य होने के कारण किस तरह से गोरखा अल्पसंख्यक गढ़वालियों पर अपनी बात थोपते हैं।
यही नहीं उन्हेंने लार्ड साहब को यह भी बतलाया कि गोरखा जब गढ़वाल पर शासन करते थे तब उन्होंने गढ़वाली जनमानस पर अत्याचार किये, यदि उस अवधि में अंग्रेज गढ़ नरेश की सहायता न करते तो गढ़वाल वर्तमान में नेपाल का उपनिवेश होता। अंग्रेजों से हार जाने के पश्चात् किस तरह गोरखा सैनिक गढ़वालियो को अपमानित करते हैं। लार्ड डफरिन को जब लाट सूबेदार बलभद्र सिंह नेगी ने अपनी पीड़ा से अवगत कराया, सम्भवतः तब ही उन्होंने नेगी जी से इन कष्टों से मुक्ति का उपाय पूछा होगा और समय तथा अनुकूल परिस्थितियां पाकर उसी समय लार्ड सूबेदार ने एक लम्बी अवधि से पनप रही गढ़वालियों के लिए एक अलग सैनिक टुकड़ी गठन की भावना को गवर्नर साहब के समक्ष प्रकट की। इस सम्बन्ध में श्री आनन्द सिंह नेगी अपनी पुस्तक में लिखते हैं।
‘‘लार्ड डफरिन के सम्पर्क में रहते हुए श्री बलभद्र सिंह नेगी को उनसे अपनी निजी तथा देशहित की बातें करने का अवसर प्राप्त होता रहा। गोरखा फौज में रहते हुए अपने निजी अनुभवों तथा कठिनाईयों का जिक्र उन्होंने लार्ड डफरिन से किया कि ‘‘गढ़वालियों  की अपनी निजी पल्टन होनी चाहिए।’’ तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड डफरिन ने उनके निवेदन पर ख्याल किया और विषय को सम्बन्धित अधिकारियों तक पहुंचाया क्योंकि प्रायः सभी अधिकारी श्री बलभद्र सिंह नेगी के रणकौशल से मुग्ध और परिचित थे, रक्षा सचिव ने प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया और गढ़वाली पल्टन की स्थापना पर स्वीकृति प्रदान हुई। यह बात प्रायः सन् 1885 या 86 की रही होगी।’’
श्री आनन्द सिंह नेगी द्वारा अपनी पुस्तक में दी गयी इस जानकारी से यह ज्ञात होता है कि ‘‘लार्ड डफरिन के ये विशेष कृपा पात्र थे वरन एक साधारण से अंगरक्षक की सामान्य बात को कौन ऐसा अधिकारी सुनता जो कि इस काल में भारत का गवर्नर जनरल हो। इसका अर्थ है लार्ड डफरिन लाट सूबेदार बलभद्र सिंह नेगी के युद्ध कौशल और सेना में दी गई सेवाआं से परिचित थे। यही कारण है कि सन 1885-86 में जब जनरल ने तत्कालीन रक्षा सचिव को गढ़वालियों के लिए अलग पल्टन स्थापित करने के लिए कहा तो उस समय के कमान्डर इन चीफ लार्ड रॉबर्ट ने इसकी सिफारिश करते हुए कहा- एक ऐसी कौम जिसने बलभद्र जैसे वीर योद्धा को जन्म दिया। उसकी अपनी एक अलग फौज तो होनी ही चाहिए।’’  इसी तरह अन्य अंग्रेज अधिकारियों ने भी गढ़वाली पल्टन की स्थापना की सिफारिश की तो भारत की तत्कालीन सत्ता ने गढ़वाल राइफल्स की स्थापना की स्वीकृति दे दी। लार्ड रॉबर्ट के द्वारा की गई उपरोक्त टिप्पणी से सिद्ध होता है कि लाट सूबेदार बलभद्र सिंह नेगी के पराक्रम और शौर्य ने मात्र इन्हें ही गौरवान्वित नहीं किया, अपितु इससे सारी गढवाली कौम गौरवान्वित हुई, इन्हीं लाट सूबेदार बलभद्र सिंह नेगी के त्याग और तपस्या के जल ने जब इनके मनोकामना रूपी कल्पवृक्ष की जड़ का स्पर्श प्राप्त किया तो  वह पल्लवित और पुष्पित होने लगा। इस संदर्भ में श्री आनन्द सिंह नेगी अपनी पुस्तक में स्वीकारते हैं कि ‘‘यह मानना ही पड़ेगा कि श्री बलभद्र सिंह के अतिरिक्त कई अन्य गढवाली भी सेना में नौकरी करते थे, परन्तु अपनी निजी पल्टन न होने के कारण वे प्रायः गोरखा पल्टनों में ही भर्ती होते थे, 1/3तक और 2/3तक गोरखा राइफल्स कई साल पहिले खड़ी हो गयी थी और इनका ट्रेनिंग सेन्टर उस वक्त अल्मोड़ा में था, वहां पर सेना के कई जवान भी थे परन्तु उनकी संख्या इतनी अधिक नहीं थी कि एक अलग पल्टन खड़ी की जा सके। अब समस्या यह हुई कि रंगरूट कैसे भर्ती किये जायें और नयी पल्टन की स्थापना कहाँ हो ? शासन की ओर से जैसे गढ़वाल राइफल्स की स्थापना की स्वीकृति मिली। रक्षा सचिव की ओर से प्रस्ताव आया कि अल्मोड़ा स्थित 3तक गोरखा राइफल्स को  पौड़ी जनपद के कालोडांडा स्थानान्तरित किया जाय और उस पल्टन के गढ़वाली वीर सैनिकों से नई पल्टन बनायी जाय। 
इसी प्रस्ताव के आधार पर रक्षा विभाग ने सन् 1887 में 2/3तक गोरखा राइफल्स को  अल्मोड़ा से कालो डांडा स्थानान्तरित किया गया, उस समय इसके सभी अल्मोड़ा से पैदल ही कालौडांडा पहुँचे।
उस समय कालौडांडा में कहीं पर भी मकान नहीं थे, इसलिए सैनिकों ने वर्तमान बस अड्डे में अपनी छावनी डाल दी। यह जमीन सीला गाँव के असवाल ठाकुरों की थी। ’’ जिस पर उनके खर्क (गाय भैंस की गोठ) थे जिस चौरस भूमि उनके गाय, भैंस, भेड़, बकरियां चुगती थी। इस भूमि पर एकाएक, पल्टन की छावनी बनने से गाँव वालों की स्वछन्दता में विघ्न आया, और उन्होंने इस अवैध कब्जे का विरोध किया लेकिन भारत सरकार तो कालोडांडा में गढवाल राइफल्स का सेन्टर स्थापित करने का मन बना चुकी थ, इसलिए उसने ग्रामवासियों से 300/- में यह जमीन खरीद कर तत्कालीन गवर्नर लार्ड लैन्सडौन के नाम से इस स्थान का नाम लैन्सडौन कर दिया, भारत के स्वतंत्र होने पर भी कालो डांडा आज भी लार्ड लैन्सडौन के नाम से ही चर्चित है।
इधर जब लैन्सडौन में गढ़वाल राइफल्स की स्थापना हुई, तो उधर भारत सरकार को इसकी सैनिक भर्ती की चिन्ता सताने लगी। अपनी तरफ से तो सरकार और सरकार के उच्चाधिकारी सेना में जवानों की संख्या बढ़ाने का प्रयत्न कर रहे थे, पर लाख कोशिश करने पर भी गढ़वाली जवान सेना में भर्ती नहीं हो पा रहे थे। इसका कारण थ्री गोरखा राइफल्स में गोरखा सैनिकों का संख्या बल और उनके द्वारा किया जाने वाला दुर्व्यवहार । इस लिए यहां की युवा शक्ति को जब अपने पूर्ववर्ती सैनिक युवाओं से यह ज्ञात होता कि गोरखा राइफल्स के सैनिक और अधिकारी गढ़वालियों से दुर्व्यवहार करते हैं तो वे सेना में जाने से झिझक रहे थे। इस सारे प्रकरण से लाट सूबेदार बलभद्र सिंह परिचित थे, तब उन्हें बड़ा दुःख हुआ कि ‘‘जिस पल्टन की स्थापना के लिए मैंने अंग्रेज अफसरों से विनती कर उन्हें यह अवगत कराया कि गढवाल एक निर्धन प्रदेश है, यहां किसान अपनी हड्डियों को तोड़कर साल भर खाने का पर्याप्त अन्न उत्पन्न नहीं कर सकता, वहां के युवाओं के लिए यदि नई पल्टन बनायी जाय तो यह उनके लिए सम्मानित रोजगार भी होगा और आपको युद्ध  लड़ने वाले सुभट योद्धा भी प्राप्त हो जायेंगे, परन्तु अब यही गढ़वाली युवक इस पल्टन में भर्ती होने से डर रहे हैं।’’ उस अवसर पर जबकि अंग्रेज अफसर कैप्टन ई0पी0 मेनवारिंग गढ़वाल राइफल्स का गठन कर रहे थे, वे बड़ी कोशिशों के पश्चात इसकी मात्र दो कम्पनी खड़ी कर पाये।
लाट सूबेदार बलभद्र सिंह नेगी इस समस्या के समाधान के लिए अफसर कमांडिंग के पास जाकर विचार विमर्श करते। इस पर जब कमांडिंग अफसर इनसे रंगरूट भर्ती की शिथिलता की ओर संकेत करते तो लाट सूबेदार को बड़ा कष्ट होता। सेना में नये रंगरूट भर्ती हों, इसके लिए खूब प्रचार किया लेकिन जब बात नहीं बनी तो लाट सूबेदार ने स्वयं नवयुवकों को सेना में भर्ती करने का बीड़ा उठाया और स्वयं चांदी के रूपये से भरा झोला उठाकर सुदूर गढ़वाल की दशौल ;दशमौलीद्ध बधाण (बौद्धायन ) नागपुर पट्टियों में पहुंचे। इस कार्य के लिए सरकार ने उन्हें न कोई आदेश दिया  और न ही धन ही। इस कार्य पर उन्होंने अपनी कमाई का पैसा लगाया। इनके इस कार्य की तुलना हम माली के उस कार्य से कर सकते हैं जिसमें कि वह पूर्व वृक्ष रोपता है  और बाद में उसे सींचता भी है । यही कार्य लाट सूबेदार बलभद्र सिंह नेगी ने भी किया। इनका गढ़वाली पल्टन स्थापना का भांगकुर पूर्व छोटा पौधा बना और बाद में जब उन्होंने उसे अपनी खून की कमाई से उत्पन्न धन से सींचा तो वह आज वटाकृति में संसार को अपनी छाया और शीतल पवन दे रहा है।
लाट सूबेदार  बलभद्र सिंह नेगी के इस गढवाल भ्रमण का सुखद परिणाम निकला। उन्होंने उस क्षेत्र के नवयुवकों को धन, सम्मानित जीवन और देश-विदेश भ्रमण का लालच देकर सेना में भर्ती होने के लिए प्रेरित किया।
इस तरह लाट सूबेदार साहब की मेहनत रंग लायी और ये इन क्षेत्रों से एक संतोषजनक संख्या वाले नवयुवकों को लेकर लैन्सडौन पहुंचे, लाट सूबेदार जिन दिनों उन नवयुवकों को भर्ती कर रहे थे उन दिनों न तो लैन्सडौन में कोई भर्ती आफिस था और न ही  स्किटर का ही प्रचलन था। जो साथ आ गया वही भर्ती हो गया। उस समय के लोग बताते थे कि ‘‘भर्ती होने वाले को ही नहीं भर्ती कराने वाले को भी सरकार धन देती थी’’  इस तरह जब लाट सूबदार ने इन रंगरूटों की सहायता से गढवाल राइफल्स की  3-4 कम्पनियां बनवायी। वर्तमान में गढ़वाल राइफल्स की कई कम्पनियां गठित हो गयी है जिनके बहादुर सिपाही देश की सीमाओं की रक्षा करते समय अदम्य साहस अनुपम शौर्य का परिचय देते हैं । देश के इस सैन्य बल ने जहां प्रथम विश्व युद्ध में संसार को अपनी शक्ति, और बुद्धि से परिचित कराया वहां गढ़वाल के सुभट योद्धा दरबान सिंह और गबर सिंह  अपना बलिदान विक्टोरिया क्रास पाकर अमर हो गये। इसी सैन्य बल के सुभट योद्ध वीरचन्द्र सिंह गढवाली जहां अंग्रेजों के पक्ष में प्रथम विश्व युद्ध में अपने शक्ति और युद्ध कौशल का लोहा मनवाया। वहां 23 अप्रैल 1930 को पेशावर में शांति का झंडा लहरा निहत्थों पर गोली न चलाकर यह सिद्ध कर दिया कि ‘‘गढ़वाली सैनिक विवेक और बुद्धि से अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हैं।’’ इसी गढ़वाल राइफल्स के वीर सैनिक जब द्वितीय विश्व युद्ध में सिंगापुर हो  गये और अंग्रेजों ने उनका साथ छोड़ दिया तो उन्होंने आजाद हिन्द फौज में सम्मिलित होकर मातृ भूमि को स्वतंत्र कराने का बीड़ा उठाया। भारत की आजादी के पश्चात् सन 1962 का चीनी आक्रमण हो या सन 1965 का भारत पाक युद्ध,सन 1971 का बांगलादेश का मुक्ति संग्राम हो या सन 1998-99का कारगिल सैन्य अभियान, इन सब में भाग लेकर गढवाल राइफल्स के जांबाज सैनिकों ने यह सिद्ध कर दिया कि देश की  सीमाओं की सुरक्षा में हम अपना तन, मन धन समर्पित कर सकते हैं। ऐसे वीरों की इस वीरवाहिनी की स्थापना और उसको नया रूप देने में बहादुर सैनिक लाट सूबेदार बलभद्र सिंह नेगी की जो भूमिका रही है। उसे इस धरती को कोई भी लाल नहीं भुला सकता। इस महान व्यक्तित्व के त्याग, तपस्या और बुद्धि विवेक के बदौलत वर्तमान में गढ़वाल के हर घर का एक न एक बेटा देश की सेनाओं में भर्ती होकर इस क्षेत्र का गौरव बढ़ा रहा है। यह सत्य है कि लाट सूबेदार बलभद्र सिंह नेगी  की ही प्रेरणा से जो गढ़वाली युवक गढवाल राइफल्स में भर्ती होने से डरता था। वह आज देश के प्रत्येक सैन्य बल में अपनी उपस्थिति अंकित कर रहा है, यदि विश्वास नहीं तो देखिये इस धरती का एक वीर थलसेनाध्यक्ष जनरल विपिन रावत को जो देश सेवा में दिन रात अपनी  ऊर्जा व्यय कर रहे हैं।

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