ग्रीन बोनस की भीख नहीं,
ग्रीन रॉयल्टी उत्तराखण्ड का अधिकार
71 प्रतिशत वनीय भूभाग वाला राज्य उत्तराखण्ड मध्य हिमालय क्षेत्र का एक ऐसा राज्य है जहां की संस्कृति, रीति-रिवाज और परम्पराऐं पूर्ण रूप से प्रकृति सम्मत है। दरअसल पर्यावरण संरक्षण एवं संतुलन में उत्तराखण्ड राज्य का बहुत बड़ा योगदान है। हिमालय का संरक्षक उसका सबसे पहला प्रहरी और चिंतक यहां बसने वाला समाज ही है। उत्तराखण्ड जैसे प्रकृति संरक्षक समाज को समृद्ध किये बगैर भारत की समृद्धी की कल्पना तथा हिमालय की चिंता करना बेमानी है। यदि भारत की समृद्धी एवं हिमालय संरक्षण के प्रति गम्भीर होना है तथा पर्यावरण संरक्षण का संदेश पूरे विश्व में प्रसारित करना है तो उत्तराखण्ड की लोक रीतियां का संरक्षण कियो बिना यह सम्भव नहीं है। यदि हिमालय संरक्षण के प्रति गम्भीर होना है तो हिमालयी क्षेत्रों में पाये जाने वाले विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तुओं, पशु-पक्षियों और वनस्पतियों के संरक्षण के विषय भी गम्भीरता से चिंतन के साथ इनके संरक्षण के लिए भी प्रयास करने होगें। जिस प्रकार स्थानीय जैव-विविधता का संरक्षण किये बिना हिमालय की चिंता करना बेमानी है ठीक उसी प्रकार उत्तराखण्ड की समृद्धि बिना भारत में समृद्धि की कल्पना करना भी बेमानी है। यह बात आश्चर्य कर देने वाली है कि, एक ओर उत्तराखण्ड जैसे राज्य के निवासी पर्यावरण संरक्षण के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा रहें हैं तो वहीं दूसरी ओर यहां के नेता पर्यावरण संरक्षण के बदले में ग्रीन बोनस की भीख मांग रहें है। वास्तव में राज्य को बोनस की भीख नहीं बल्कि ग्रीन रॉयल्टी का अधिकार मिलना चाहिए। परन्तु राज्य के नेताओं की अज्ञानता के कारण वह बार- बार ग्रीन बोनस की भीख की मांग कर रहे हैं। राज्य का नेतृत्व अब तक ग्रीन रॉयल्टी के जिए अधिकार पूर्वक अपनी मांग को केन्द्र सरकार के पास प्रस्तुत नहीं कर पाया है। यह इस राज्य के नेतृत्व की बहुत बड़ी विडम्बना है। जिसका खामियाजा राज्य के आम जन भुगत रहे है। ग्रीन बोनस की भीख के लिए राज्य में जो आधार तैयार किया है उसका उपयोग ग्रीन रॉयल्टी के लिए किया जा सकता है। इस्टीट्यूट ऑफ फॉरेस्ट मैनेजमेंट से कराए गये अध्ययन के अनुसार हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड के वनों का जमा मूल्य (फ्लो वेल्यु) 14 से 15 लाख करोड़ रूपये आंकी गयी है। वनों की सालाना प्रवाह मूल्य करीब 95 हजार करोड़ रूपये है।
ज्ञात हो कि प्रति वर्ष वनों को बचाकर प्रदेश अरबों खरब रूपये की पर्यावरणीय सेवाएं समूचे राष्ट्र और विश्व को दे रहा है। पर्यावरणीय संरक्षण के नाम पर प्रदेश को इसकी बड़़ी कीमत भी चुकानी पड़ रही है यदि प्रदेश के लोगों ने यहां के वन क्षेत्रों को सुरक्षित न रखा होता तो कल्पना की जा सकती है कि पर्यावरण किस स्थिति में होता। वास्तव में अपना सब कुछ गंवाकर यहां के निवासी पर्यावरण संरक्षण के प्रति बहुत ही गम्भीर है, परन्तु यहां के नेता इस बलिदान के बदले में भीख के रूप में केन्द्र सरकार से पिछले एक दशक के मांग कर रहे हैं कि, उन्हें ग्रीन बोनस की भीख दी जाए जबकि ग्रीन रॉयल्टी इस राज्य का आधिकार है तथा वह इस राज्य को मिलना ही चाहिए। इसके लिए केन्द्र सरकार तथा विश्व के सम्मुख ग्रीन रॉयल्टी की मांग जोरदार ढंग से प्रस्तुत की जानी चाहिए। परन्तु राज्य का नकारा नेतृत्व इवेस्टर समिट के लिए करोड़ो रूपये तो पानी की तरह बहा सकता है परन्तु ग्रीन रॉयल्टी की मांग को प्रस्तुत करने में संकुचा रहा है, ऐसा क्यों? शायद राज्य का नेतृत्व ग्रीन रॉयल्टी की अवधारणा से अज्ञात है या राज्य के नेतृत्व को भीख मांगने की आदत सी पड़ चुकी है। इसलिए वह बड़े कमजोर ढंग से ग्रीन बोनस की भीख मांग रहा है। जहां अधिकार है वहां भीख का सवाल ही पैदा नहीं होता है। राज्य के नेतृत्व को रॉयल्टी और बोनस में फर्क को महसूस करते हुए अपनी दिशा तय करनी होगी। ग्रीन रॉयल्टी उत्तराखण्ड राज्य का अधिकार है तथा वह इस राज्य को मिलना ही चाहिए।

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें