भारतीय संस्कृति में गुरू सम्मान की परम्परा
(5 सितम्बर शिक्षक दिवस पर विशेष)
-शिवानी पाण्डे
भारतीय संस्कृति में आदिकाल से ही गुरू सम्मान की परम्परा रही है। हमारी संस्कृति में मार्ग दर्शक गुरू को ईश्वर से भी बढ़कर माना गया है। अज्ञान रूपी अंधकर से मुक्ति दिलाने में गुरू का विशेष योगदान होता है गुरू की शिक्षाओं के कारण ही मानव जीवन का तम (अंधकार) दूर होता है तथा ज्ञान के प्रकाश की एक नई चमक उसके जीवन में उदित होती है। यही ज्ञान की चमक आने वाले समय में शिष्य के लिए श्रेष्ठतम शिखर को हासिल करने के लिए मार्ग दर्श बनती है। इसी लिए भारतीय संस्कृति में गुरू की महिमा को सर्वदा उच्च स्थान दिया गया है। गुरू की वंदना करते हुए भारतीय संस्कृति में कहा गया है-
गुरू ब्रह्मा गुरूर विष्णु, गुरूर देवो महेश्वरः।
गुरूर साक्षात् परम् ब्रह्मा, तस्मै श्री गुरूवे नमः।।
गुरू की इसी महिमा को स्वीकार करते हुए स्वतंत्र भारत में सन् 1962 से भारत के पूर्व राष्ट्रपति, दर्शनिक विद्वान शिक्षक डॉ. सर्ववल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिवस 5 सितम्बर को शिक्षक दिवस के रूप में प्रतिवर्ष मनाया जाता है।
डॉ0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन एक महान भारतीय, दर्शनिक व विद्वान थे। उनका जन्म 5 सितम्बर 1888 को हुआ था। वह भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति व द्वितीय राष्ट्रपति बने थे। डॉ राधाकृष्णन एक विद्वान शिक्षक थे और शिक्षा के प्रति उनकी बहुत गहरी सोच व विश्वास था।
जब डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारत के द्वितीय राष्ट्रपति बने थे (1962 से 1967) तब उनके कई दोस्तों और शिष्यों ने उनसे अनुरोध किया की वे 5 सितम्बर को उनका जन्मदिन बड़े ही धूमधाम के साथ मनाना चाहते हैं। तब राधाकृष्णन ने कहा कि मुझे मेरे जन्मदिन को धूमधाम से मनता देखने से ज्यादा खुशी तब होगी जब आप लोग इस दिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाए। डॉ राधाकृष्णन खुद एक शिक्षक थे। इसलिए वह चाहते थे कि उनके जन्मदिन को पूरे भारत के शिक्षकों के नाम से जाना जाये। उन सभी शिक्षकों को सम्मान दिया जाये और उनको ये एहसास कराया जाये कि उनका हमारे जीवन में क्या महत्व है और तभी 1962 से हर साल 5 सितम्बर डॉ राधाकृष्णन की जयंती को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है।
हमारे जीवन को एक सही आकार देने में हमारे गुरू का सबसे बड़ा योगदान होता है। हमारे माता-पिता के बाद गुरू ही हमारा सच्चा मार्ग दर्शक होता है। इसीलिए हम आज जो भी हैं या आगे जो भी बनेगें सब हमारे गुरू के बताए मार्ग दर्शन के कारण ही होगा। क्योंकि वो गुरू ही है जो हमें सही गलत की परख करना सिखाता है।
गुरू जलता हुआ वह दीपक है जो खुद को जला कर दूसरों कि जिंदगी प्रकाश से भर देता है। इसी लिए कबीरदास जी ने कहा है-
गुरू गोविंद दौऊ खड़े, काके लागू पाय।
बलिहारी गुरू आपने, गोविन्द दियो मिलाये।।
जब गुरू और गोविंद दोनों खड़े है तो इंसान दुविधा में पड़ जाता है कि पहले किसके चरण स्पर्श कर प्रणाम करूं। तब कबीरदास बताते है कि सर्वप्रथम गुरू के चरण स्पर्श कर गुरू हो ही प्रणाम करना चाहिए क्योंकि गुरू ही हमको ईश्वर से मिलने का मार्ग बताता है। बिना गुरू के हम ईश्वर से नहीं मिल सकते। यही गुरू की महिमा है।
इसी प्रकार गुरू की महिमा को इस प्रकार बताया गया है-
धर्मज्ञो धर्मकर्त्ता च सदा धर्मपरायाणः।
तत्त्वेम्यः सर्वेशास्त्रार्थादेशको गुरूराच्चयते।।
अर्थात धर्म को जानने वाले, धर्म मुताबिक आचारण करने वाले धर्मपरायण और सब शास्त्रों में से तत्वों का आदेश करने वाले गुरू कहलाते है।
गुरू इस संसार का सबसे शक्तिशाली अंग होता है। कोई चीज सीखने के लिए बिना गुरू का अध्ययन नहीं किया जा सकता है। अलग-अलग चीजें सीखने के लिए अलग-अलग गुण के गुरूओं की आवश्यकता होती है। बिना गुरू के किसी कला को नहीं सीखा जा सकता है। कबीरदास कहते है कि गुरू के बिना ना मोक्ष की प्रप्ति होती है, न सत्य लिखा जाता है और ना ही गुरू के बिना कोई दोष मिट पाते है। इसलिए हमें सदैव गुरू का आदर करना करना चाहिए।
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