अंगदानदात्री अमर दर्शनी देवी जोशी अमरत्व की ओर अग्रसर
राम भरोषा कण्डवाल
कोटद्वार। ग्राम डाँगी, पदमपुर सुखरौ वर्तमान बालासौड़, कोटद्वार निवासी स्व० दर्शनी देवी जोशी पत्नी स्व० योगेश्वर प्रसाद जोशी का 28 मई को आकस्मिक स्थिति में स्वर्गवास हो गया। वे एक आदर्श गृह निर्मात्री, जुझारु सामाजिक कार्यकर्त्री, कर्मठता की प्रतीक, सामाजिक प्रेरणा की अनन्य स्रोत और निर्भीकता की प्रतिमूर्ति रही हैं। सामाजिक हित चिंतन की दिशा में उनके द्वारा किए गए सुकृत्यों के लिए आज भी आम समाज उन्हें सजल नेत्रों से सुमिरित करता है। सादा जीवन, उच्च विचार और आम जन को भी उत्कृष्ट संस्कार देना उनके जीवन की सबसे बड़ी विशेषता और उपलब्धि रही है। उनके द्वारा जो भी सामाजिक उच्चादर्श आम जन मानस एवं युवा पीढ़ी के समक्ष रखे गए हैं। उनमें से आते जाते स्नेह दान और जाते जाते अंगदान की प्रेरणाप्रद सोच काम कर गई। उनके पूर्व प्रदर्शित विचारों के क्रम में उनके पाल्यों सुन्दर लाल जोशी, कमला जोशी, आयुष जोशी, अलका जोशी ने उनके अंगदान करवाकर के काल के गाल में समाने को आतुर कुछेक गंभीर रोगग्रस्त लोगों को नई जीवन ज्योति देने का काम किया है। इस रूप में उन्होंने जाते जाते समाज की जो सेवा की है। उसके लिए आम समाज को भी उनसे ऐसी जन सेवा की प्रेरणा मिलेगी।
कवि की निम्नलिखित पंक्तियों को अपने जीवन के साथ, जीवन रहते हुए और जीवन के बाद भी उन्होंने सार्थक किया है। ‘वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे/ यही पशु प्रवृŸा है कि आप आप ही चरे’ की उक्ति उनकी वैचारिक साम्यता एवं सामाजिक समरसता की भावना के अनुरूप रही है। यदि उनकी सोच के अनुरूप ‘ईच वन टीच वन’ की तर्ज पर ‘ईच कैन सेव लाइफ ऑफ डजन्स ऑफ पीपुल’ की अवधारणा पर भी कार्य किया जाए तो यह कार्य निश्चित रूप से श्रेयष्कर और जनमन हितैषी होगा।
वैसे मनुष्य जीवन भर अपने वृहत समाज सहित प्रकृति माँ से कुछ न कुछ उपयोगी सामग्री स्वयं के हितार्थ ग्रहण करता रहता है लेकिन सामान्य स्थिति में हम सब के पास समाज सहित प्रकृति माँ को देने के लिए अपेक्षाकृत न्यूनतम ही होता है। इस न्यूनता की पूर्ति के लिए प्रत्येक मनुष्य को जीते जी अंगदान की दिशा में कार्य कर लेना चाहिए। फिर भी यदि जीते जी ऐसा संभव न हो तो स्वर्गवासी व्यक्ति के उŸाराधिकारियों द्वारा इस दिशा में अपेक्षित पहल की जा सकती है। इससे भारतवर्ष में प्रति वर्ष लाखों अंगों की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए आसानी से कुछ सीमा तक उनकी आपूर्ति संभव है।
इससे अग्रलिखित श्लोक के उद्देश्यों की भी काफी सीमा तक पूर्ति हो सकती है। ‘येषां न विद्या, न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः/ते मृत्युलोके भुविः भारभूता, मनुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति’।। याने अंग दान जीवन हितार्थ दानशीलता का एक उŸाम उदाहरण है। इससे अंगदान दाता जहाँ आत्मिक रूप से परमात्मा के सन्निकट रहता है। वहीं दूसरी ओर अंगदान दाता अपने शरीर के अंगों के साथ इस भू लोक में भी भौतिक रूप में विद्यमान रहता है। यदि अंग दानशीलता का यही क्रम निःस्वार्थ भाव से लगातार चलता रहे तो इससे न सिर्फ गंभीर रोगग्रस्त रोगियों के जीवन में जीने की आस बनी रहेगी बल्कि धमार्थ कार्य में अपना निशुल्क योगदान देने वाली संस्थाओं एवं संगठनों का मनोबल भी बढ़ता रहेगा। स्वर्गीय दर्शनी देवी जोशी के अंगदान के मामले में निर्मल आश्रम आई इंस्टीट्यूट खैरीकलां, ऋषिकेश के अनुभवी चिकित्सकों के उस सहयोग को भी कतई नहीं भुलाया जा सकता जिन्होंने समय रहते हुए अंगदान दानदाता स्व० दर्शनी देवी जोशी की दोनों आँखों का दान स्वीकार किया और कम से कम चार लोगों के जीवन को प्रकाशित करने का कार्य किया है। इस अवसर पर विद्यादŸा जोशी, चन्द्रमोहन जोशी, सुन्दर लाल जोशी, कमला जोशी, आयुष जोशी, अलका जोशी, ज्योति प्रसाद जोशी (द्वय), सुशीला जोशी, गजेन्द्र सिंह बिष्ट, रमेश डबराल, खुशी राम जोशी, मस्तराम लखेड़ा, विमला लखेड़ा, धूपा देवी जोशी, महेश्वरी दुदपुड़ी, मोहन लाल दुदपुड़ी, डॉ० सतीश अमोली, देवी प्रसाद जोशी, जगदम्बा जोशी, सम्पूर्णानंद जोशी, कैलाश जोशी, रिद्धि भट्ट, दलीप रावत, नंद किशोर कुकरेती, राम भरोषा कण्डवाल, हेमंत जोशी, देवी प्रसाद जोशी, सुशीला जोशी, विमला लखेड़ा, अमित, मस्तराम लखेड़ा, रमेश डबराल, मनोज सिंघल, विशम्बर तिवारी, पार्वती डबराल, अनिल खंतवाल, महेशानन्द डोबरियाल, एस० बडोला, जगदम्बा जोशी, विमला कुकरेती, सतीश जोशी, गजेन्द्र बिष्ट, डॉ० सतीश अमोली, प्रबंधक निर्मल आई इंस्टीट्यूट ऋषिकेश एवं चिकित्सक, मोहन लाल द्विवेदी, श्रीमती दर्शू द्विवेदी, श्रीमती पी० द्विवेदी, श्री संजू गौड़, श्रीमती पी० जोशी, श्रीमती माहेश्वरी दुदपुड़ी आदि ने नेत्र दानदार्त्री स्वर्गीय दर्शनी देवी जोशी को अपने श्रद्धासुमन अर्पित किए। इसके अतिरिक्त अंगग्राही आई हॉस्पिटल चिकित्सक एवं प्रबंधक महोदय द्वारा सुन्दर लाल जोशी, कमला जोशी, आयुष जोशी, अलका जोशी को इस दानशीलता के लिए सम्मानित कर प्रशस्ति पत्र सहित अंग वस्त्र भेंट किए। साथ ही उन्होंने आई हॉस्पिटल की ओर से आयोजित इस श्रद्धांजलि कार्यक्रम में उपस्थित जन समुदाय को भी इस दिशा में कार्य करने के लिए प्रेरित किया।
साथ ही आई इंस्टीट्यूट के जनरल मैनेजर सहित डॉ० रिचा धीमान (कॉर्निया कंसलटेंट) ने भी अपना संक्षिप्त उद्बोधन संप्रेषित किया। निर्मल आश्रम के इस सत्कार्य के लिए उनका आभार प्रकटीकरण करते हुए सुन्दर लाल जोशी, आयुष जोशी आदि ने अपने विचार रखते हुए कहा कि आज भी वृहत समाज में शरीर दान, अंगदान, नेत्र दान, रक्त दान आदि के प्रति लोगों का रुझान पूरी तरह से सकारात्मक नहीं है। कुछ पुरातनपंथी विचारकों की मानसिकता ऐसी भी है कि इस प्रकार के शरीर या अंगदान से व्यक्ति के अंग भंग हो जाते हैं जिससे पुनर्जन्म के बाद उस व्यक्ति को वे अंग प्राप्त नहीं होते जिनका उसने दान किया हो। फिर भी यह धारणा सरासर असत्य, भ्रामक और कपोलकल्पित है। अगर ऐसा कुछ होता तो जब देवासुर संग्राम चल रहा था और समस्त देवता बिल्कुल हार के कगार पर थे। तब देवताओं की मान मर्यादाओं को बचाए रखने के लिए सभी देवता महर्षि दधीचि के पास गए और उनके तपोबल युक्त हड्डियों को वज्र बनाने के लिए माँगने लगे। तब महर्षि दधीचि ने प्रसन्नचिŸा स्थिति में अपने तपोबल से ही स्वयं की अस्थियाँ लोकहित में बज्र बनाने के लिए दान कर दी। इस रूप में अगर अंगदान से महर्षि दधीचि को पुनर्जन्म के बाद शरीर के नाम पर सिर्फ मांस का लोथड़ा मिलता तो क्या वे खुशी खुशी से अपनी अस्थियाँ दान कर देते? उŸार सिर्फ नकारात्मक में मिलेगा। इतना हीं नहीं महाराजा शिवि ने अपने शरणागत हुए एक कातर कबूतर की बाज से रक्षा की। इसके लिए उन्होंने बाज की इच्छानुसार अपने शरीर से अपने हाथ से ही मांस काट काटकर तराजू पर रखना शुरू कर दिया। जब काफी मांस तराजू पर चढ़ने के बाद भी तराजू का पलड़ा संतुलित नहीं हुआ। तब वे सशरीर तराजू पर बैठ गए और उन्होंने कबूतर की प्राण रक्षा के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर करने की सोची। यद्यपि यह उनकी परीक्षा मात्र थी जिसमें वे पूरी तरह से सफल हुए। इस दशा में यदि उनके मांस को बाज खा ही लेता तो क्या उन्हें पुनर्जन्म में आधी हड्डियों और मांसयुक्त शरीर मिलता? इसका उŸार भी ना में ही मिलेगा। तीसरा उदाहरण महाभारत के युद्ध में जब युद्धभूमि में दानी कर्ण अपनी मृत्यु मिलन की चाह में समय व्यतीत किए जा रहे थे। तब भी एक याचक उनकी दानशीलता की चर्चा उनसे करते हैं कि हे कर्ण! मैंने सुना है कि आप दानवीर हैं। मुझे आपसे दान की अपेक्षा है। तब कर्ण ने घिसट घिसटकर आगे बढ़कर एक पत्थर से अपना स्वर्णजड़ित दाँत तोड़कर उस याचक के हाथ में थमा दिया। तो क्या ऐसा मान लिया जाए कि तब दानवीर कर्ण का पुनर्जन्म दंतविहीन (पोपले मुँह वाली) स्थिति में हुआ होगा। उŸार मिलेगा कदापि नहीं बल्कि स्थिति इसके एकदम विपरीत बनी होगी कि पुनर्जन्म के बाद दानी कर्ण को ऐसी सुन्दर दंत पंक्तियाँ और बलिष्ठ तन, मन मिला होगा कि उन्हें किसी भी रूप में दाँत में सोना, चाँदी या मसाला भरवाने की आवश्यकता नहीं पड़ी होगी। इसके अतिरिक्त महाराजा शिवि को पुनर्जन्म के बाद ऐसी स्वस्थ निरोगी बलिष्ठ और पराक्रमी काया मिली होगी कि उनका अगला जन्म भी धन्य-धन्य हो गया होगा। साथ ही बज्र बनाने के लिए जीत जीते अपनी हड्डियों को दान करने वाले महर्षि दधीचि का पुनर्जन्म तो पूर्व जन्म से भी बहुगुणित, सुखदायक, जन मन हितैषी और पुण्यकारक बना होगा। इतना ही नहीं वर्तमान समय में रक्तदान से लोगों का जीवन बचाने वाले उन दानवीरों की भी प्रशंसा की जानी चाहिए जो मृत्यु के मुँह में समाने को आतुर लोगों की अपने रक्त से जीवन रक्षा करते हैं। तो क्या यह मान लिया जाए कि उनका पुनर्जन्म रक्तविहीन स्थिति में होगा। ऐसा कदापि संभव नहीं है। भगवत कृपा से उनका पुनर्जन्म अधिक शक्तिशाली ज्ञानवर्द्धक और समाजसेवी और रोग रहित स्थिति में होगा। इस रूप में कुल मिलाकर देखा जाए तो रक्तदान अंगदान सहित सारी प्रक्रियाएँ मनुष्य मात्र को न सिर्फ आत्मिक सुख देती है बल्कि इससे सामाजिक हित चिंतन और दानशीलता की प्रवृŸा का भी जन्म होता है। इस अवसर पर टूरिस्ट संदेश के प्रधान संपादक सुभाष नौटियाल ने बताया कि सुन्दर लाल जोशी उनकी पत्नी कमला जोशी सहित पारिवारिक जनों के द्वारा अपनी पुत्री स्व० आकांक्षा जोशी के हृदय, दो किडनी और दो आँखें इससे पूर्व में दान की जा चुकी है जिनका यथोचित लाभ आम जनमानस को मिला है। इस अवसर पर श्रद्धांजलि सभा में उपस्थित अधिकांश गणमान्य व्यक्तियों में यह भी आशा अपेक्षा शासन प्रशासन से की है कि स्व० दर्शनी देवी जोशी एवं स्व० आकांक्षा जोशी जैसे दानवीरों की पुण्य स्मृतियों को दीर्घकाल तक बनाए रखने के लिए और अंगदान के क्षेत्र में सामाजिक जन जागरूकता हेतु कोटद्वार हरिद्वार रोड पर देवी मंदिर के पास एक स्मृति द्वार बनाए जाए। किसी ने सच ही कहा है-
मरना तो उनका है जिनका जमाना करे अफसोस।
यूँ तो दुनिया में सब आएँ हैं, मरने के लिए।।
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