यू0सी0सी0 पर ‘राजनीति’ नहीं ‘स्वस्थ विमर्श’ की जरूरत
देव कृष्ण थपलियाल, राठ महाविद्यालय पैठाणी (पौडी)
वैसे तो उत्तराखण्ड में यू0सी0सी यानीं ’समान नागरिक सहिंता’ पर चर्चा करना कोई ’नई बात’ नहीं है, पिछले साल ऐंन विधान सभा चुनावों के वक्त अपनी पार्टी का प्रचार करनें निकले मुख्यमंत्री श्री पुष्कर सिंह धामी नें अचानक एक चुनावी सभा में इसका ऐलान किया था, कि सरकार बननें पर ’समान नागरिक सहिंता’ यूसीसी को कानूनी जामा पहनाया जायेगा। तब चुनाव का वक्त था, लोंगों को लगा कि चुनावों में जीत हासिल करनें के लिए यह पाशा फेंका गया है, लिहाजा ज्यादातर लोंगों नें इसे गंभीरता से लिया ही नहीं, कुछ लोग इसे ’चुनावी स्टंट’ तो कईयों नें इस ’वोंटों का ध्रुवीकरण’ करनें कोशिश कह कर टाल दिया । किन्तु भाजपा की अप्रत्याशित जीत के बाद फिर मुख्यमंत्री बनें पुष्कर सिंह धामी नें इसको लेकर एक ’हाई लेबल विशेषज्ञ कमेटी’ गठित कर अपनें मजबूत इरादे जग जाहिर कर दिये, अब लग रहा है कि यूसीसी बहुत जल्द राज्य में लागू हो जायेगा ।
विगत एक साल से कमेंटी नें हर फ्रंट पर काम किया है, लगातार बैठकों के जरिये, यूसीसी को समझनें-जाननें के लिए हर संभव प्रयास हुए हैं, तमाम सामाजिक, सॉस्कृतिक शैक्षिक, धार्मिक, राजनीतिक, विचार, पंथ, क्षेत्र, संप्रदाय, बुद्विजीवी, व्यवसायी, विद्यार्थी व नौकरी पेशा क्षेत्र के करीब 2.35 लाख लोंगों से सम्पर्क कर उनके सूझाव-विचारों को ध्यान में रखते हुए, एक ड्राफ्ट भी तैयार कर लिया है, कमेटी की अहम सदस्य न्यायमूर्ति रंजना देसाईं नें भी इसकी पुष्टी करते हुए कहा कि ’हमनें सभी पक्षों से बात की है। यह रिर्पोट सामाजिक तानें-बानें को मजबूत करनें के साथ ’लैंगिक समानता’ को लागू करनें वाली होगी’’ इसका आशय है, कि संभवतः रिर्पोट बहुत जल्दी सामनें आ जायेगी।
सीएम धामी नें कई बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलकर उनकी यू0सी0सी की प्रगति और उनकी विशेष रूचि को दोहराया है, साथ ही मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी नें भी संकेत दिए हैं, कि जल्द से जल्द इसे कानून का रूप दिया जायेगा’ तब उत्तराखण्ड, गोवा के बाद देश का दूसरा राज्य बन जायेगा, जहॉ ’समान नागरिक सहिंता’ कानून लागू है, गोवा में पूर्तगाली शासन नें 1867 में इसे लागू किया था, जिसे 1962 कुछ संशोधन करते हुए स्वतंत्र गोवा राज्य ने स्वीकार किया, और तब से आज तक इस राज्य में ’समान नागरिक सहिंता’ कानून निर्विवाद लागू है। फिलहाल उत्तराखण्ड, गोवा की राह पर अग्रसर है, भाजपा के महत्वपूर्ण मामलों में ‘समान नागरिक संहिता‘ कानून लागू करना भी है, राज्य सरकार की साहसिक पहल है, जिसका स्वागत है।
किन्तु सरकार देश भर में भी इसके पक्ष में माहौल बनाती दिख रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी 27 जून को भोपाल में भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए, ’समान नागरिक संहिता’ पर काम करनें की बात कह कर ये सुनिश्चित कर दिया है, कि केंद्रीय सरकार इसको लागू करनें की जल्दी में है। विगत दिनों कानून मंत्रालय की संसदीय समिति की यू0सी0सी को लेकर एक अहम् बैठक हुई जिसमें सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के सदस्यों को आंमंत्रित किया गया, सांसद सुशील कुमार मोदी की अध्यक्षता में गठित इस बैठक में विधि आयोग के साथ-साथ सरकार के प्रतिनिधियों को भी बुलाया गया था। विधि आयोग द्वारा 13 जून को एक सार्वजनिक नोटिस के माध्यम से इस मुद्दे पर लोंगों से राय मॉगी थीं, तब से यह मामला सुर्खियों में है। उप राष्ट्रपति श्री जगदीप धनखड. नें कहा कि संविधान निर्माताओं की परिकल्पना के मुताबिक अब समय आ गया है, कि देश भर में यू0सी0सी लागू हो, संविधान के हवाले से उन्होंनें कहा कि अनुच्छेद-44 में स्पष्ट कहा गया कि देश अपनें नागरिकों के लिए ’समान नागरिक सहिंता’ को सुरक्षित करनें की कोशिश करेगा। केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल भी स्पष्ट कर चुके हैं, कि यूसीसी समय की जरूरत है।
सर्वोच्च न्यायालय भी शाहबानों केस से लेकर 2009 के गोवा दीवानीं केस तक भारत सरकार को कई बार याद दिलाता रहा कि उसनें ’समान नागरिक संहिता’ बनानें सम्बन्धी संविधान के अनुच्छेद-44 के निर्देश का पालन नहीं किया गया है। शाहबानों मामले में पूर्व न्यायाधीश चंद्रचूड नें लिखा था, कि संसद को ’समान नागरिक संहिता’ की रूपरेखा तैयार करनीं चाहिए, क्योंकि इसी से राष्ट्रीय सांमजस्य और समानता का मार्ग प्रशस्त होगा। उच्चतम न्यायालय गोवा के ’समान नागरिक संहिता’ की कई बार तारीफ कर चुका है, वास्तव में परिवार और समाज में महिलाओं की आर्थिक एवं सामाजिक बराबरी और भागीदारी उन्नति के लिए बेहद महत्वपूर्ण है, जिसे नकारा नहीं जा सकता है।
समान नागरिक संहिता के अंर्तगत परिवार में उत्तराधिकार, संपत्ति के बॅटवारे, विवाह, तलाक, और तलाकशुदा का गुजारा भत्ते जैसे मामलों के कानूनों को अंर्तराष्ट्रीय मानदण्डों के अनुरूप बनाकर उनमें एकरूपता लाती है। खासकर महिलाओं के जीवन स्तर में सुधार और सशक्त न बननें बच्चों खासकार बेटियों में कुपोषण, अशिक्षा, शोषण आर्थिक पिछडेपन बडा कारण है। बाल विवाह, दहेज प्रथा, जैसी कुरूतियॉ भी संपत्ति के बॅटवारे में भेदभाव से जुडी है। संपत्ति में बराबरी का हक न मिलनें से उद्यमी महिलाओं का कर्ज लेंने अपना उद्यम शुरू करनें और आत्मनिर्भर बननें में कठनाई होती है। जो कि परिवार, समाज तथा अंततोगत्वा देश की प्रगति के लिए बाधक है।
देश में ’समान आचार सहिंता’ कानून लानें की बात आजादी से पहले भी उठनें लगे थी, पं0जवाहर लाल नेहरू, डॉ0 भीम राव अंबेडकर व सरदार पटेल इस कानून के प्रबल समर्थक थे। 1857 के प्रथम स्वतंन्त्रता संग्राम के बाद अंग्रेजो नें कंपनी से शासन अपनें हाथों में लिया तो कानूनों में धीरे-धीरे सुधार व परिवर्तन शुरू हो गया था, हिन्दू धर्म भीतर फैली कई कुरूतियों को समाप्त करनें के लिए, अनेंक समाज सुधारक आगे आये राजा राम मोहन राय तथा ईश्वर चंद विद्यासागर जैसे प्रमुख समाज सेवियों नें काफी हद तक ’सती प्रथा’ जैसी अमानवीय, व तथ्यहीन परम्पराओं को तिलांजलि दी जा सकी । लेकिन दूसरे धर्मो के धर्म गुरूओं के अडियल रूख के कारण तीन तलाक व दूसरी कुप्रथाओं को संरक्षण मिलता रहा, जिससे उस समाज में महिलाऐं की दुर्दशा होती रही, जो देश की तरक्की के में बाधा बनीं। दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य धर्म या आस्था का विषय जो हर व्यक्ति का अपना है, देश तो संविधान से चलता है। लिहाजा कानून और संविधान की नजर में देश का हर नागरिक ''नागरिक’’ है, जिसके सम्मान और सुरक्षा की गारांण्टी संविधान में निहित है। लिहाजा देश के समस्त नागरिकों के लिए ‘समान’ कानून सभ्य राष्ट्र की पहचान है।
भारत के अलग-अलग समुदायों, जाति-धर्मों के विवाह उत्तराधिकार सम्बन्धी निजी कानूनों को एक समान बनानें की पहल अंग्रेजों द्वारा की गई थीं। हिन्दूओं के कानूनों में तो परिवर्तन होते रहे, किन्तु मुस्लिम नेताओं के नकारात्मक रूख के कारण कानूनों में एकरूपता व समरसता नहीं आ पाईं, नतीजन 1937 में अंग्रेजों नें शरीयत एक्ट पास किया जिसका सीधा मतलब था, मुसलमान सदियों पुराने कानूनों के अनुसार ही चलेंगें वे अपनीं महिलाओं के कोई अधिकार नहीं देंगें। दूसरी तरफ अंग्रेज हिन्दूओं व मुसलमानों के बीच विद्वेष फैलाना चाहते थे, इसीलिए उन्होंनें मुसलमानों के इस एक्ट को पास कर दिया।
आजादी के बाद जब संविधान सभा गठित की गईं थीं, देश के अंतरिम सरकार के कानून मंत्री बाबा साहेब भीम राव अंबेडकर नें ’समान आचार संहिता’ बनानें को लेकर पहल शुरू की, उनका साथ पं0 जवाहर लाल नेहरू नें भी दिया। किन्तु मुस्लिम नेताओं द्वारा उसका विरोध शुरू हो गया, संविधान सभा में समान आचार संहिता’ के पक्ष में कोई उचित माहौल न बन पानें के कारण इसे संविधान के नीति-निदेशक तत्वों में डाल दिया गया, लिखा गया कि ’’राज्य देश की जनता के लिए ऐसी संहिता का निर्माण करेगा‘‘।
लेकिन सालों बाद आई इस ’भूल’ को सुधारनें की कवायद को हमें करनीं चाहिए, बात कहीं से भी आये ’अच्छी हो’ तो उसे स्वीकार करनें में समझदारी है। खासकार राजनीतिक दलों को इस पर ’राजनीति’ करनें बचना चाहिए और यूसीसी को देश हित में बनें इस पर विचार-विमर्श होंना चाहिए ।
आगामी साल 2024 चुनावी साल है, ज्यादातर सियासी दलों को इसमें ’राजनीति’ दिखाई दे रही है। कॉग्रेस और दूसरी विपक्षी दलों का आरोप है, कि अपनीं सियासी जमीन खिसकती देख भाजपा यूसीसी को मुद्दा बना रही है, तथा वह मंहगाई, बेराजगारी सहित तमाम मुद्दों से लोंगों का ध्यान हटाना चाहती है। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड नें सभी विपक्षी दलों से इसके विरोध में अपना अभियान शुरू कर दिया है। संविधान में विविधता का हवाला देते हुए, उनका अभियान जारी है। इसी तरह सियासी दल वोट बैंक के आड में ’समान आचार संहिता’ के विरोध में महौल खडा करनें के लिए आतुर हैं। कुछ पार्टियॉ आसन्न चुनावों को देख इस मुद्दे को सांप्रदायिक रंग में रंगनें को आतुर है।
सियासी दलों की अपनी ’मजबूरियॉ’ अपनीं जगह हैं, ’राजनीति’ अपनीं जगह पर हैं, लेकिन ‘देश हित’ में ‘सामान आचार संहिता’ को समझनें की जरूरत है, यह प्रगतिशील समाज व देश की पहचान है। इसको समर्थन दिया जाना चाहिए।
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