वेदों में जल
सुभाष चन्द्र नौटियाल
भारतीय संस्कृति में वेद ही ज्ञान के आधार तत्व हैं। ऋषियों की अन्तःप्रज्ञा से प्रकट हुए वेद समस्त मानव जाति के लिए ज्ञान की निधि हैं। सर्वप्रथम वेदों से ही समस्त भूमण्डल में ज्ञान का प्रवाह हुआ है। चारों वेदों में जल की महत्ता का गुणगान करने के लिए अनेक मंत्र दिये गये हैं। इन मंत्रों में जल की विविध रूपों में पूजा, स्तुति तथा वन्दना की गयी है। वेदों में जल को आत्मसत्ता का कारक, जीवनदाता, शक्तिप्रदाता, रोगनिवारक, औषधीदाता, पुष्टिकारक तथा सुखों का मूल माना गया है। यही कारण है कि, वेदों में जल की अनेक रूपों में पूजा, स्तुति तथा वन्दना की गयी है।
ऋग्वेद
सामान्य जानकारी
ऋग्वेद सनातन धर्म, वैदिक संस्कृति का प्रथम वेद ही नहीं बल्कि सृष्टि का प्रथम ज्ञान का मूल है, इस वेद के ऋषि अग्नि हैं, इस वेद में 10 मण्डल, 1,028 सूक्त हैं। अष्टम क्रम के अनुसार 8 अष्टक, 64 अध्याय, 2,024 वर्ग, 85 अनुवाक हैं। ऋग्वेद में कुल मंत्रों की संख्या 10,589 है।
ऋग्वेद में जल के मंत्र
ऋग्वेद के प्रथम मण्डल, सप्तम मण्डल तथा दशम मण्डल में जल की स्तुति के मंत्र ऋषियों द्वारा सृजित किये गये हैं-
प्रथम मण्डल में यज्ञ की चाह रखने वाले ऋषियों ने विभिन्न प्रकार के मंत्रों से जल का स्तुति गान किया गया है। मंत्रों में जल को माता स्वरूप, अमृतमयी, औषधीय गुणों से युक्त, दीर्घायु तथा दोष मुक्ति के साथ-साथ पवित्रकारक माना गया है। सप्तम मण्डल में सोमरस की शुद्धि के लिए, विध्ननाशक, नदियों के निरन्तर प्रवाह के लिए, समस्त जगत के लिए कल्याणप्रद तथा यज्ञ की इच्छा से जल की विभिन्न रूपों की स्तुति की गयी है। दशम मण्डल में सुखों के मूल स्रोत, माताओं के दुग्ध के समान हितकारी पोषक रस, वंशवृद्धि, रोग रहित, सुख शान्ति दायक तथा अग्नितत्व से परिपूर्ण जल की यश वन्दना की गयी है।
ऋग्वेद में जल से सम्बन्धित मंत्र
प्रथम मण्डल के 23 वें सूक्त के 16 वें मंत्र से 23 वें मंत्र तक जल से सम्बन्धित मंत्रों में जल की महिमा का वर्णन किया गया है-
अम्बयो यन्त्यध्वभिर्जामयो अध्वरीयताम्। पृञ्चतीर्मधुना पयः॥ऋ0।।1।।23।।16।।
(यह जल प्रवाह यज्ञ की इच्छा करने वालों के सहायक मधुर रस रूप माताओं के सदृश पुष्टिप्रद है। वे मधुर गुणों के साथ सुखकारक रस को पुष्ट करते हुए यज्ञ मार्ग से गमन करते हैं।)़
अमूर्या उप सूर्ये याभिर्वा सूर्यः सह। ता नो हिन्वन्त्वध्वरम्॥ऋ0।।1।।23।।17।।
(इस मन्त्र में सूर्य की गर्मी से जल वाष्पों में बदलने की प्रक्रिया वाष्पोत्सर्जन, वायुमण्डल में जल वाष्पों का पुनः द्रवित होकर बादलों का निर्माण तथा बादलों के वर्षा के रूप में बरसने या वायुमण्डलीय जल का पुनः पृथ्वी की सतह पर वापस आने की प्रक्रिया का उल्लेख है-
जो जल सूर्य की किरणों द्वारा अवशोषित होकर ऊपर जाता है, वही जल पुनः वृष्टि के रूप में वापस आता है। ऐसा पवित्र जल हमारे यज्ञ के लिए उपलब्ध हो। )
अपो देवीरुप ह्वये यत्र गावः पिबन्ति नः। सिन्धुभ्यः कर्त्वं हविः॥ऋ0।।1।।23।।18।।
(सूर्य की किरणें वायु के सहयोग से समुद्र तथा नदियों के जल से जितने जल को अवशोषित करती हैं। वही जल पुनः शुद्ध होकर औषधी रूप में भूमि पर वापस आ जाता है। विद्वान जनों को इस जल से पान, स्नान तथा कृषि आदि कार्यों का सुखपूर्वक सम्पादन करना चाहिए। हमारी गायें भी इसी जल का सेवन करती हैं। अन्तरिक्ष तथा भूमि पर प्रवाहमान उन जलों के निमित्त हम हवि अर्पित करते हैं।)
अप्स्व१न्तरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तये। देवा भवत वाजिनः॥ऋ0।।1।।23।।19।।
(हे देवों! अपनी श्रेष्ठता के लिए तुम जल के अन्दर जो रोग निवारक औषधीय अमृतमयी गुण विद्यमान हैं। उसका ज्ञान प्राप्त कर जल की प्रशंसा से उत्साह प्राप्त करें।)
अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा। अग्निं च विश्वशम्भुवमापश्च विश्वभेषजीः॥ऋ0।।1।।23।।20।।
(दसवें मण्डल में इस मंत्र की पुनरावृत्ति हुई है।।ऋ0।।10।।9।।6।।)
(सम्पूर्ण जगत का औषधियों का राजा सोम तेजोमय स्वरूप में इस जल में समाहित है। जिनके पुण्य प्रभाव से जल से सभी औषधियां प्राप्त होती हैं।)
आपः पृणीत भेषजं वरूथं तन्वे३ मम। ज्योक् च सूर्यं दृशे॥ऋ0।।1।।23।।21।।
(दसवें मण्डल में इस मंत्र की पुनरावृत्ति हुई है ।।ऋ0।।10।।9।।7।।)
(हे जल समूह! जीवन रक्षक औषधियों को हमारे शरीर में स्थित करें ताकि हम निरोग होकर दीर्घकाल तक सूर्य के दर्शन कर सकें।)
इदमापः प्र वहत यत्किं च दुरितं मयि। यद्वाहमभिदुद्रोह यद्वा शेप उतानृतम्॥ऋ0।।1।।23।।22।।
(दसवें मण्डल में इस मंत्र की पुनरावृत्ति हुई है ।।ऋ0।।10।।9।।8।।)
( हे जल धाराओं! हम याजकों ने अज्ञानता वश जो भी दुष्कृत्य किये हों, अनजाने में या जानबूझ कर किसी से द्रोह किया हो। सत्पुरूषों पर आक्रोश किया हो या असत्य आचरण, असत्य भाषण किया हो तथा इस प्रकार के जो भी दोष हैं उन सब दोषों को हमसे अलग कर दूर बहा ले जाएं।)
आपो अद्यान्वचारिषं रसेन समगस्महि। पयस्वानग्न आ गहि तं मा सं सृज वर्चसा॥ऋ0।।1।।23।।23।।
(दसवें मण्डल में इस मंत्र की पुनरावृत्ति हुई है ।।ऋ0।।10।।9।।9।।)
(आज इन जल धाराओं में प्रविष्ट होकर हमने अवमृश स्नान किया है। इस प्रकार जल में प्रवेश करके हम रस से आप्लावित हुए हैं। हे पयस्वान! हे अग्नि देव! आप हमें वर्चस्वी बनाएं, हम आपका अभिवादन करते हैं।)
सप्तम मण्डल के 47 वें तथा 49 वें मण्डल में जल की स्तुति इस प्रकार से की गयी है-
आपो यं वः प्रथमं देवयन्त इन्द्रपानमूर्मिमकृण्वतेळः। तं वो वयं शुचिमरिप्रमद्य घृतप्रुषं मधुमन्तं वनेम ॥ऋ0।।7।।47।।1।।
(हे जल देव! देवत्व के इच्छकों के द्वारा इन्द्रदेव के पीने के लिए भूमि पर प्रवाहित शुद्ध जल को मिलाकर सोम रस तैयार किया गया है। इस शुद्ध पापरहित, मधुर रस युक्त सोम का हम भी पान करेंगे।)
तमूर्मिमापो मधुमत्तमं वोऽपां नपादवत्वाशुहेमा। यस्मिन्निन्द्रो वसुभिर्मादयाते तमश्याम देवयन्तो वो अद्य ॥ऋ0।।7।।47।।2।।
(हे जल देवता! आपका मधुर प्रवाह सोमरस में मिला हुआ है। उसे शीघ्रगामी अपानपात् अग्निदेव सुरक्षित रखें। उसी सोम के पान से वसुओं के साथ इन्द्रदेव आनन्दित होते हैं। हम देवत्व की इच्छा रखने वाले आज उसे प्राप्त करेंगे।)
शतपवित्राः स्वधया मदन्तीर्देवीर्देवानामपि यन्ति पाथः। ता इन्द्रस्य न मिनन्ति व्रतानि सिन्धुभ्यो हव्यं घृतवज्जुहोत ॥ऋ0।।7।।47।।3।।
(हे जल देव! आप हर प्रकार से पवित्र करते हुए तृप्ति सहित सभी प्राणियों में प्रसन्नता भरते हैं। वे जल देव यज्ञ में पधारते हैं परन्तु विध्न नहीं डालते। इसलिए नदियों के निरन्तर प्रवाह के लिए यज्ञ करते रहें।)
याः सूर्यो रश्मिभिराततान याभ्य इन्द्रो अरदद्गातुमूर्मिम्। ते सिन्धवो वरिवो धातना नो यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः॥ऋ0।।7।।47।।4।।
(जिस जल का सूर्य देव अपनी रश्मियों के द्वारा बढ़ाते हैं एवं इन्द्रदेव के द्वारा जिन्हें प्रवाहित होने का मार्ग दिया गया है। हे सिन्धों जलप्रवाहों! आप उन जल धाराओं से हमें धन-धान्य से परिपूर्ण करें तथा कल्याणप्रद साधनों से हमारी रक्षा करें।)
समुद्रज्येष्ठाः सलिलस्य मध्यात्पुनाना यन्त्यनिविशमानाः। इन्द्रो या वज्री वृषभो रराद ता आपो देवीरिह मामवन्तुः॥ऋ0।।7।।49।।1।।
(समुद्र जिनमें ज्येष्ठ हैं, वे जल प्रवाह सदा अन्तरिक्ष से आने वाले हैं। इन्द्रदेव ने जिनका मार्ग प्रशस्त किया था, वे जल धाराऐं हमारी रक्षा करें।)
या आपो दिव्या उत वा स्रवन्ति खनित्रिमा उत वा याः स्वयंजाः। समुद्रार्था याः शुचयः पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तुः ॥ऋ0।।7।।49।।2।।
(जो दिव्य जल आकाश से वृष्टि के द्वारा प्राप्त होते हैं, जो नदियों में सदा गमनशील है, खोदकर जो कुएं आदि से निकाला जाता है तथा जो स्वयं स्रोतों के द्वारा प्रवाहित होकर पवित्रता बिखेरते हुए समुद्र की ओर जाते हैं, वे दिव्यतायुक्त पवित्र जल हमारी रक्षा करें।)
यासां राजा वरुणो याति मध्ये सत्यानृते अवपश्यञ्जनानाम्। मधुश्चुतः शुचयो याः पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु॥ऋ0।।7।।49।।3।।
(सर्वत्र व्याप्त होकर सत्य और मिथ्या के साक्षी वरूण देव जिनके स्वामी हैं वही रस युक्ता, दीप्तिमती, शोधिका जल देवियां हमारी रक्षा करें।)
यासु राजा वरुणो यासु सोमो विश्वे देवा यासूर्जं मदन्ति। वैश्वानरो यास्वग्निः प्रविष्टस्ता आपो देवीरिह मामवन्तु॥ऋ0।।7।।49।।4।।
(राजा वरूण और सोम जिस जल में निवास करते हैं, जिसमें विद्यमान सभी देवगण अन्न से आन्नदित होते हैं, विश्व व्यवस्थापक अग्निदेव जिसमें निवास करते हैं, वे दिव्य जल देव हमारी रक्षा करें।)
आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन । महे रणाय चक्षसे॥ऋ0।।10।।9।।1।।
(हे जल देव! आप सुखों के मूलस्रोत हैं। आप हमें पराक्रम से युक्त उत्तम कार्य करने के लिए पोषक रस अन्न प्रदान करें।)
यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः । उशतीरिव मातरः ॥ऋ0।।10।।9।।2।।
(हे जल देव! आप अत्यन्त सुखकर पोषक रस का हमें सेवन करने दें। जैसे बच्चे को माताएं अपने दूध से पोषण देती हैं, वैसे ही आप हमें पोषित करें।)
तस्मा अरं गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ । आपो जनयथा च नः ॥ऋ0।।10।।9।।3।।
(हे जल देव! आपका कल्याणकारी रस हमें शीघ्रता से उपलब्ध हो, जिसके द्वारा आप सम्पूर्ण विश्व को तृप्त करते हैं। आप हमारे वंश का पोषण कर उसे आगे बढ़ायें।)
शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये । शं योरभि स्रवन्तु नः॥ऋ0।।10।।9।।4।।
(हमें सुख, शान्ति प्रदान करने वाला जल प्रवाह प्रकट हो। वह जल पीने योग्य, कल्याणकारी एवं सुखकर हो, मस्तक के ऊपर क्षरित होकर रोगों को हमसे दूर करे।)
ईशाना वार्याणां क्षयन्तीश्चर्षणीनाम् । अपो याचामि भेषजम् ॥ऋ0।।10।।9।।5।।
(जल प्रवाह ही मानवों का इच्छित पदार्थों का स्वामी और प्राणीमात्र का ‘आश्रयस्थल’ है। हम उस जल से औषधियों में जीवन रस की कामना करतें हैं।)
यजुर्वेद
सामान्य जानकारी
यजुर्वेद सनातन धर्म, वैदिक संस्कृति का द्वितीय वेद माना जाता है। ऋग्वेद के अनेक मंत्र यजुर्वेद में भी समाहित हैं। यजुर्वेद के ऋषि- वायु ऋषि हैं। इस वेद में 40 अध्याय हैं तथा 1975 मंत्र हैं।
विशेषताएं
वैदिक संस्कृति, संस्कार प्रदान संस्कृति है। जन्म के पूर्व से लेकर मृत्यु के बाद तक इस संस्कृति में अनेक संस्कार सम्पन्न किये जाते हैं। भले ही इस संस्कृति के अनुयायी आज भौतिकतावादी संस्कृति से प्रभावित होकर भौतिक साधन जुटाने की होड़ में कितने ही दोहनकारी प्रवृति के हो चुके हों फिर भी जन्म, मुण्डन, विवाह, अन्त्येष्टि आदि अनेक संस्कारपरक कर्मकाण्डों के माध्यम से ही सम्पन्न कराते हैं। इन संस्कारों एवं यज्ञीय कर्मकाण्डों के अधिकांश मंत्र यजुर्वेद के ही हैं। यजुर्वेद की मंत्र शक्ति तथा प्रेरणाओं का संस्कार सनातन धर्म, वैदिक संस्कृति में निरन्तर बना हुआ है। भारतीयता में संस्कार सम्पन्न कराने के लिए यजुर्वेद प्राणतत्व के रूप में समाहित है।
यजुर्वेद में जल
जल के बिना भारतीय समाज की लोक परम्पराओं को पूर्ण नहीं किया जा सकता है। जल वैदिक कर्मकाण्ड को पूर्ण करने के लिए अनिवार्य तत्व है। वैदिक संस्कृति में संस्कारों तथा यज्ञीय कर्मकाण्डों की शुद्धता, पवित्रता तथा सम्पूर्णता के लिए जल को साक्षी मानकर स्तुति करने का विधान है। यही कारण है कि, यजुर्वेद में जल को विशेष महत्व दिया गया है। यजुर्वेद भारतीय संस्कृति में संस्कारों तथा यज्ञीय कर्मकाण्डों को पूर्ण कराने के लिए प्राण स्वरूप है।
प्रथम अध्याय के 12वें मंत्र द्वारा यज्ञकर्ता को शक्ति प्रदान करने, आत्मविश्वास बढ़ाने, कार्य के प्रति उत्साहित करने तथा कार्य में पवित्रता बनाये रखने की प्रार्थना की गयी है-
पवित्रे स्थो वैष्णव्यौ सवितुर्वः प्रसवऽउत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः । देवीरापोऽअग्रेगुवो अग्रेपुवोग्रऽइममद्ययज्ञन्नयताग्रे यज्ञपति सुधातु यज्ञपतिन्देवयुवम् ॥यजु0।।1।।12।।
(जल का पवित्र करने तथा उसे अग्निहोत्र-हवणी पर छिड़कने का विधान है। यज्ञार्थ प्रयुक्त आप दोनों ‘कुशाखण्डों या यज्ञसाधनों’ को पवित्रकर्ता, वायु एवं सूर्य रश्मियों से दोषरहित होकर तथा पवित्र किया जाता है। हे दिव्य जल समूह! आप अग्रगामी एवं पवित्रता प्रदान करने वालों में श्रेष्ठ हैं। यज्ञकर्ता को आगे बढ़ायें तथा सभी प्रकार से यज्ञ संभालने वाले यज्ञकि को, देवशक्तियों से युक्त करें।)
जल रस तत्व है, आसुरी वृत्यों, वृत्रासुर का विनाश तभी सम्भव है जब श्रेष्ठ प्रवृतियों से रस आये। रस तत्व के शोधन के बिना आसुरी वृत्तियों का नाश नहीं हो सकता है। इन आसुरी वृत्तियों के नाश के लिए जल का सहयोग अनिवार्य है। अगले मंत्र में यही संकेत है-
युष्माऽइन्द्रो वृणीत वृत्रतूर्ये यूयमिन्द्रमवृणीध्व वृत्रतूर्ये प्रोक्षिता स्थ । अग्नये त्वा जुष्टम्प्रोक्षामियग्नीषोमाभ्यान्त्वा जुष्टम्प्रोक्षामि । दैव्याय कर्मणे शुन्धध्वन्देवयज्यायै यद्वोशुद्धाः पराजघ्नुरिदँवस्तच्छुन्धामि॥यजु0।।1।।13।।
(यज्ञीय संसाधनों पर जल सिंचन के पूर्व जल को संस्कारित करने, उपकरणों तथा हवि को पवित्र करने के लिए है। हे जल! इन्द्रदेव ने वृत्र विकारों को नष्ट करते समय आपकी मदद ली थी तथा आपने सहयोग प्रदान किया था। अग्नि तथा सोम के प्रिय आपको हम शुद्ध करते हैं, आप शुद्ध हों।)
द्वितीय अध्याय के 34वें मंत्र में पितृदेवों की तृप्ति के लिए जल देव से प्रार्थना की गयी है-
ऊर्जँवहन्तीरमृतन्घृतम्पयः कीलालम्परिस्रुतम् । स्वधा स्थ तर्पयत मे पितऋृन् ॥यजु0।।2।।34।।
(हे जल समूह! अन्न, घृत, फूलों तथा फलों में आप रस रूप में विद्यमान हैं। अतः अमृत के समान सेवनीय तथा धारक शक्ति बढ़ाने वाले हैं, इसलिये हे जल देव! हमारे पितृगणों को तृप्त करें।)
चतुर्थ अध्याय के प्रथम मंत्र में औषधी रूप जल से सुखी जीवन तथा रक्षा के लिए प्रार्थना की गयी है-
एदमगन्म देवयजनम्पृथिव्या यत्र देवासो अजुषन्त विश्वे । ऋक्सामाभ्याँ सन्तरन्तो यजुर्भी रायस्पोषेण समिषा मदेम । इमा आपः शमु मे सन्तु देवीरोषधे त्रायस्व । स्वधिते मैन हि सीः ॥यजु0।।4।।1।।
(जिस यज्ञ स्थल पर सभी देवगण आनन्दित होते हैं, उस उत्कृष्ट भूमि पर हम सभी यजमानगण एकत्रित हुए हैं। ऋक तथा सामरूपी मंत्रों से यज्ञ को पूर्ण करते हुए धन एवं अन्न से हम तृप्त होते हैं। यह दिव्य जल हमारे लिए सुखस्वरूप हो। हे दिव्य जल गुणायुक्त औषधे! आप हमारी रक्षा करें। हे शास्त्र! आप यजमान अथवा औषधि की हिंसा न करें।)
अगले मंत्र में जगत निर्माण में सक्षम जल से पवित्र होने की प्रार्थना की गयी है-
आपो अस्मान्मातरः शुन्धयन्तु घृतेन नो घृतप्वः पुनन्तु। विश्व हि रिप्रं प्रवहिन्त देवीरुदिदाभ्यः शुचिरा पूत एमि। दीक्षातपसोस्तनूरसि तां त्वा शिवा शम्मां परि दधे भद्रं वर्णं पुष्यन् ॥यजु0।।4।।2।।
(जगत् निर्माण में सक्षम, माता के समान हे जल! आप हमें पवित्र करें, घृत क्षरित से पवित्र जल हमें यज्ञ के योग्य पवित्र बनाएं। तेज युक्त होता जल हमारे सभी पापों का निवारण करे। शुद्ध स्थान और पवित्र आचमन के उपरान्त हम जल से बाहर आते हैं। हे! क्षेम वस्त्र आप येष्टि तथा उपसदिष्टि के देवताओं के लिए समान प्रिय हैं। कोमल होने के कारण सुखकर मंगल करने वाली कान्ति से युक्त परिधान को हम धारण करते हैं।)
सुपाच्यता, सुखकारी तथा आरोग्यता के लिए जल देव से प्रार्थना-
श्वात्राः पीता भवत यूयमापो अस्माकमन्तरुदरे सुशेवाः । ता अस्मभ्यमयक्ष्मा अनमीवा अनागसः स्वदन्तु देवीरमृता ऋतावृधः ॥यजु0।।4।।12।।
(हे जल! दुग्ध रूप में हमारे द्वारा सेवन किये गये आप शीघ्र पच जाएं। पीये जाने के बाद हमारे पेट में आप सुखकारी हों, ये जल राजरोग से रहित सामान्य बाधाओं को दूर करने वाले, अपराधों को दूर करने वाले, यज्ञों में सहायक, अमृतस्वरूप दिव्य गुणों से युक्त हमारे लिए स्वादिष्ट हो।)
मानसिक रोगों से दूर होने के लिए जल देव से प्रार्थना-
इदमापः प्रवहतावद्यञ्च मलञ्च यत् । यच्चाभिदुद्रोहानृतं यच्च शेपे अभीरुणम् । आपो मा तस्मादेनसः पवमानश्च मुञ्चतु ॥यजु0।।6।।17।।
(हे जल देवता! आप जिस प्रकार शरीरस्थज्ञ मलों को दूर करते हैं, उसी प्रकार याजक के जो भी ईर्ष्या, द्वेष, असत्यभाषण, मिथ्या दोषारोपण आदि अतिनिन्दनीय कर्म हैं। आप उन सब दोषों को दूर करें। जल तथा वायु देव अपने प्रवाह से पवित्र करके हमें यज्ञीय प्रयोजन के अनुरूप बनाएं।)
अन्न देव के निरन्तर उत्पादन के लिए जल देव से प्रार्थना-
हविष्मतीरिमा आपो हविष्माँ आ विवासति । हविष्मान्देवो अध्वरो हविष्माँ अस्तु सूर्यः ॥यजु0।।6।।23।।
(हे बसतीवरी जल! आप निरन्तर श्रेष्ठ अन्न, रस आदि उत्पन्न करते हुए यज्ञ करें। यज्ञ सदैव श्रेष्ठ हवियों से युक्त रहकर सद्गुणों का विस्तार करने वाले हों। सूर्यदेव भी यजमान को पुण्य फल प्रदान करने के लिए हवि स्वीकार करें।)
यज्ञ को पवित्र बनाये रखने के लिए जल देव से प्रार्थना-
अग्नेर्वापन्नगृहस्य सदसि सादयामीइन्द्राग्न्योर्भागधेयी स्थ मित्रावरुण्योर्भागधेयी स्थ विश्वेषान्देवानाम्भागधेयी स्थ । अमूर्याऽउप सूर्ये याभिर्वा सूर्यः सह । ता नो हिन्वन्त्वध्वरम् ॥यजु0।।6।।24।।
(हे बसतीवरी जल! जो इन्द्र, अग्नि, मित्र, वरूण आदि सब देवताओं तक हवि भाग पहुंचाने वाली यज्ञाग्नि है, इस सुदृढ़ आश्रय स्थल अग्नि के पास हम आपको पहुंचाते हैं। सूर्य की किरणों द्वारा वाष्पीकृत जो जल सूर्य के पास बहुत दिनों तक सुरक्षित रहता है। वह जल हमारे यज्ञ को पवित्र बनाएं। जो यज्ञ में प्रयुक्त होने वाला, नदी से लाकर रातभर का रखा हुआ जल है, इस जल से हमारा यज्ञ पवित्र रहे।)
शक्तिवर्द्धन के लिए जल देव से प्रार्थना-
देवीरापो अपान्नपाद्यो व ऊर्मिर्विष्य इन्द्रियावान्मदिन्तमः । तन्देवेभ्यो देवत्रा दत्त शुक्रपेभ्यो येषाम्भाग स्थ स्वाहा ॥यजु0।।6।।27।।
(हे दिव्य जल! आप में जो लहर के समान उठने न गिरने वाले हवन करने योग्य इन्द्रिय शक्ति को बढ़ाने वाले तथा देवताओं, विद्वानों तथा प्राण-प्रर्जन्य के रूप में वीर्य की रक्षा करने वालों के लिए समर्पित करें। इसमें एक भाग आप का भी सुरक्षित है।)
जल चक्र की निरन्तरता के लिए प्रार्थना-
कार्षिरसि समुद्रस्य त्वाक्षित्या उन्नयामि । समापो अद्भिरग्मत समोषधीभिरोषधीः ॥यजु0।।6।।28।।
(हे यज्ञार्थ प्रयुक्त जल! समुद्र पर्यन्त भूमि की उर्वरता के लिए आप ऊपर उठाते हैं।(सूर्य रश्मियों द्वारा समुद्र, नदियों आदि से अवशोषित जल वाष्प के रूप में परिवर्तित होकर वायुमण्डल में पहुंचता है।) प्राण-प्रर्जन्य के रूप में बरसे हुए इसी जल से औषधियां उत्पन्न होती हैं। इसी प्रकार कृषि कर्म रूप में लोक हितार्थ निरन्तर यज्ञ प्रक्रिया चलती रहती है।)
दुखों के निवारण तथा सुरक्षित जीवन के लिए जल देव से प्रार्थना-
देवीरापऽएष वो गर्भस्तँ सुप्रीतँ सुभृतम्बिभृत । देव सोमैष ते लोकस्तस्मिञ्छञ्च वक्ष्व परि च वक्ष्व ॥यजु0।।8।।26।।
(हे दिव्य गुण सम्पन्न जल समूह! यह सोम पात्र आपकी उत्पति का स्थान है। इसे श्रेष्ठ विधि से और स्नेहपूर्वक पोषित करते हुए ग्रहण करें। हे दिव्य सोम! आपका आश्रय स्थान जल है, इसी जल में वास करके सुखी रहें तथा हमारे दुखों का निवारण करके हमें सुरक्षित करें।)
औषधियां तथा अन्न प्रदान करने के लिए जल देव से प्रार्थना-
अप्स्वन्तरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तिष्वश्वा भवत वाजिनः । देवीरापो यो वऽऊर्मिः प्रतूर्तिः ककुन्मान्वाजसास्तेनायं वाजँ सेत् ॥यजु0।।9।।6।।
( जल के अन्तःस्थल में अमृत तथा पुष्टिकारक औषधियां हैं अश्व(गतिशील पशु या प्रकृति के पोषक प्रवाह) अमृत तथा औषधीरूपी जलपान कर बलवान हों। हे जल समूह! आपकी ऊंची वेगवान तंरगें हमारे लिए अन्न प्रदायक बनें।)
दसवें अध्याय में जल का महत्व सर्वशक्तिमान के रूप में स्वीकार किया गया है। मंत्र 1 से 4 तक राज योग दिलाने के लिए स्तुतियों का वर्णन है-
अपो देवा मधुमतीरगृभ्णन्नूर्जस्वती राजस्वश्चितानाः । भिर्मित्रावरुणावभ्यषिञ्चन्याभिरिन्द्रमनयन्नत्यरातीः ॥यजु0।।10।।1।।
(देवतों ने मधुर स्वाद वाले, विशिष्ट अन्न रस से युक्त राजाओं के द्वारा भी सेवनीय, विवेक प्रदान करने वाले जल को ग्रहण किया। जिस जल से देवतों के मित्र वरुणों ने अभिषेक किया और शत्रुओं को नष्ट करने वाले इन्द्र देव का देवताओं ने राज्याभिषेक किया, उस जल को हम ग्रहण करते हैं।)
वृष्ण ऽऊर्मिरसि राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे देहि स्वाहा वृष्णऽऊर्मिरसि राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै देहि वृषसेनोसि राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे देहि स्वाहा । वृषसेनोसि राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै देह्यर्थेत स्थ ॥यजु0।।10।।2।।
(कलकल ध्वनि करने वाली जल धाराओं आप बलवान, पुरूष को उच्च पद पर पहुंंचाने तथा राष्ट्र देने में समर्थ हैं। इसके लिए यह आहुति आपके लिए समर्पित है। आप सुखवर्षक राष्ट्र प्रदान करने वाले हैं, अतः राज्य देने में समर्थ होकर राजपद प्रदान करें। आप के लिए यह आहुति समर्पित है। आप राज्य देने में समर्थ हैं। अतः बलवान सेना से युक्त यजमान को राज्य प्रदान करें।)
अर्थेत स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रं मे दत्त देह्यर्थेत स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्तौजस्वती स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहौजस्वती स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्तापः परिवाहिणी स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहापः परिवाहिणी स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्तापम्पतिरसि राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे देहि स्वाहापाम्पतिरसि राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै देह्यपाङ्गर्भासि राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे देहि स्वाहापाङ्गर्भासि राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै देहि सूर्यत्वचस स्थ ॥यजु0।।10।।3।।
(हे जल समूह! आप अर्थोपार्जन करने वाले हैं, अतः हमें राष्ट्र प्रदान करें। आप ऐश्वर्य के बल से सामर्थ्यवान हैं। ओजस्वी और पराक्रमी हैं तथा राष्ट्र देने में समर्थ हैं, इसके लिए यह आहुति समर्पित है। आप महान बल तथा उत्तम सेनाओं से युक्त हैं, अतः राष्ट्र देने में समर्थ हैं, आप हर प्रकार से समर्थ हैं। अतः आप हमें राष्ट्र प्रदान करें। इसके लिए यह आहुति समर्पित है। आप समस्त जगत के पालक, रक्षक तथा उन्हें अपने अधीन रखने में समर्थ हैं। अतः योग्य पुरूष को राष्ट्र प्रदान करें, इसके लिए यह आहुति समर्पित है।)
सूर्यत्वचस स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा सूर्यत्वचस स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त सूर्यवर्चस स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा सूर्यवर्चस स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त मान्दा स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा मान्दा स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त व्रजक्षित स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा व्रजक्षित स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त वाशा स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा वाशा स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त शविष्ठा स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा शविष्ठा स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त शक्वरी स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा शक्वरी स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त जनभृत स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा जनभृत स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त विश्वभृत स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा विश्वभृत स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्तापः स्वराज स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त । मधुमतीर्मधुमतीभिः पृच्यन्ताम्महि क्षत्रङ्क्षत्रियाय वन्वानाः ऽअनाधृष्टाः सीदत सहौजसो महि क्षत्रङ्क्षत्रियाय दधतीः ॥यजु0।।10।।4।।
(हे जल समूह! आप सूर्य की कान्ति से उत्पन्न हो, स्वयं प्रकाशित होकर सबको तेज प्रदान करने वाले हैं। आप राष्ट्र प्रदान करने में समर्थ हैं, हमें राष्ट्र प्रदान करें। आप सूर्य के समान तेजस्वी हैं, अतः प्रभाव में सूर्य के समान ही हैं। आप राष्ट्र प्रदान करने वाले हैं, इसलिए हमें राष्ट्र प्रदान करें, इसके लिए यह आहुति समर्पित है। आप मनुष्यों को आनन्द देने वाले होकर, राष्ट्र प्रदान करने में समर्थ हैं, इसलिए सुखदाता व्यक्ति को राष्ट्र प्रदान करें, इसके लिए यह आहुति समर्पित है। आप गवदि पशुओं के पालनकर्ता तथा रक्षक होकर राष्ट्र प्रदान करने में समर्थ हैं। इसलिए ‘रक्षक’ पुरूष को राष्ट्र प्रदान करें, इसके लिए आहुति समर्पित है। आप कामनाओं की पूर्ति करने वाले होकर राष्ट्र प्रदान करन में समर्थ हैं, इसलिए सामर्थ्यवान को राष्ट्र प्रदान करें, आप अत्यन्त बलशाली एवं महान पराक्रमी होते हुए राष्ट्र प्रदाता हैं, अतः राष्ट्र प्रदान करें। इसके लिए आहुति समर्पित है। आप प्रजा को सामर्थ्यवान व्यक्ति को राष्ट्र प्रदान करें, इसके लिए आहुति समर्पित है। आप श्रेष्ठ पुरूषों का पोषण एवं उनको धारण करने वाले हैं। अतः श्रेष्ठ गुणों से युक्त हमें राष्ट्र प्रदान करें, इसके लिए आहुति समर्पित है। आप समस्त विश्व के पोषण कर्ता एवं धारणकर्ता हैं, अतः पोषण करने वाले तथा धारण करने वाले पुरूष को राष्ट्र प्रदान करें। आप सभी विधाओं एवं धर्मों के ज्ञाता तथा इन गुणों से युक्त राष्ट्र प्रदान करने में समर्थ हैं, अतः ऐसे धर्म पुरूष को राष्ट्र प्रदान करें, इसके लिए आहुति समर्पित है। हे मधुर रस वाले जल कणों! माधुर्यमय जल समूह सहित महान् क्षात्रबल वाले पराक्रमी यजमान के लिए अपने रसों से अभिषिक्त करते हुए राष्ट्र प्रदान करें। हे जल कणों! राक्षसों से न हारने वाले बल को आप इस क्षत्रिय ‘रक्षक’ में स्थापित करते हुए इस स्थान पर प्रतिष्ठित हों।)
सधमादो द्युम्निनीरापऽएताऽअनाधृष्टाऽअपस्यो वसानाः । पस्त्यासु चक्रे वरुणः सधस्थमपा शिशुर्मातृतमास्वन्तः ॥यजु0।।10।।7।।
( ‘अभिषेक के लिए पात्रों में स्थापित’ यह जल आनन्ददायी, तेजस्वी, उत्तम कर्मा तथा पराजित न होने वाला है। यह आवास ‘घर’ की तरह निवास प्रदान करने वाला, धारण करने वाला तथा माता की तरह पोषण देने वाला है। शिशु रूप यजमान इसे आदर सहित स्थापित करते हैं।)
जल देव कल्याण की कामना के मंत्र
आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता नऽऊर्जे दधातन । महे रणाय चक्षसे ॥यजु0।।11।।50।।
मंत्र की पुनरावृत्ति॥यजु0।।36।।14।।
(हे जल समूह! आप सुख के मूलस्रोत हैं। अतः आप पराक्रम से युक्त, उत्तम, दर्शनीय कार्य करने के लिए हमें परिपुष्ट करें।)
यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः । उशतीरिव मातरः ॥यजु0।।11।।51।।
मंत्र की पुनरावृत्ति॥यजु0।।36।।15।।
(हे जल समूह! आपका जो कल्याणप्रद रस यहां विद्यमान है, उस रस के पान में हमें वैसे ही सम्मलित करें, जैसे वात्सल्य-स्नेह से युक्त माताएं अपने शिशुओं को कल्याणकारी दुग्धरस से पुष्ट करती हैं।)
तस्माऽअरङ्गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ । आपो जनयथा च नः ॥यजु0।।11।।52।। मंत्र की पुनरावृत्ति॥यजु0।।36।।16।।
(हे जल समूह! आपका यह कल्याणकारी रस पर्याप्त रूप में हमें उपलब्ध हो। जिस रस द्वारा आप सम्पूर्ण विश्व को तृप्त करते हैं और जिसके कारण आप हमारे निमित्त भूत हैं, ऐसे जनोपयोगी अपने गुणों से हमें अभिपूरित करें।)
शन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये । शँयोरभि स्रवन्तु नः ॥यजु0।।36।।12।।
(यह दिव्य जल हम सब के लिए अभीष्ट फलदायक तथा तृप्तिदायक बने। यह जल हमारे रोगों के शमन तथा अनिष्ट हटाने के लिए बरसता रहे, इस प्रकार हमारा सब प्रकार से कल्याण करें।)
सर्वकल्याण शान्ति मंत्र
द्यौः शान्तिरन्तरिक्षँ शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः । वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्वँ शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि ॥यजु0।।36।।17।।
(स्वर्गलोक, अन्तरिक्षलोक तथा भूलोक हमें शान्ति प्रदान करें। जल शान्तिप्रदायक हो, औषधियां तथा वनस्पतियां शान्ति प्रदान करने वाली हों। सभी देवगण शान्ति प्रदान करें। सर्वव्यापी परमात्मा सम्पूर्ण जगत में शान्ति स्थापित करे। शान्ति भी हमें परम् शान्ति प्रदान करे।)
जल तथा औषधियों से शत्रु नाश के लिए मंत्र
सुमित्रिया नऽआप ओषधयः सन्तु दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योस्मान्द्वेष्टि यञ्च वयन्द्विष्मः ॥यजु0।।36।।23।।
(हे जल तथा औषधियों! आप हम सब के लिए हितकारी हो। जो हमसे द्वेष करता है तथा जिससे हम द्वेष करते हैं, उसके लिए आप कष्टकारी सिद्ध हों।)
सामवेद
सामान्य जानकारी
सामवेद सनातन धर्म, वैदिक संस्कृति का तृतीय वेद माना जाता है। सामवेद के ऋषि- आदित्य ऋषि माने गये हैं। इस वेद ऋग्वेद तथा यजुर्वेद के अनेक मंत्र दिये गये हैं। वेदों में यह सबसे छोटा वेद है। सामवेद की दो शाखाऐं- कौथाम शाखा तथा रानायाणीम शाखा है। सामवेद में कुल मंत्रों की संख्या 1875 है। इनमें पूर्वार्चिकः मंत्र 640, महानाम्न्यार्चिकः मंत्र 10 तथा उत्तरार्चिकः मंत्र 1225 है।
विशेषताएं
सामवेद आत्मा से दिव्यता का साक्षात्कार कराते हुए अद्भुत ज्ञान का भण्डार है। सामवेद की रचना ऋषियों द्वारा विशिष्ट विधा में की गयी है। वेदों में सामवेद की धारा गायन शैली से परिपूर्ण होकर आत्म चेतना को जाग्रत कर आत्मा को परम् आत्मा से जोड़ने की विधा है। ‘सा’ वाणी तथा ‘अम’ प्राणबल से अभिप्रेत है। वाणी और प्राण के दिव्य मिलन से ही साम संगीत की उत्तपति होती है। वाणी तथा प्राण के दिव्य मिलन से उपजे संगीत को ही शब्दों में पिरोकर ऋषियों ने सामवेद की रचना की है। सामवेद, लौकिक एवं आध्यात्मिक रहस्यों से परिपूर्ण ज्ञान की एक विशिष्ठ धारा है जो कि, अन्तर्मन को वेदकर आत्मा का परमात्मा से आत्मसाक्षात्कार करा देती है। इसी विशिष्ठता के कारण श्रीमद्भागवत् में योग योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा ‘वेदानां सामवेदोऽस्मि’ (वेदों में मैं सामवेद हूं)।
सामवेद में जल
सामवेद में भी जलस्तुति के अनेक मंत्र दिये गये हैं।
तमिन्द्रं वाजयामसि महे वृत्राय हन्तवे । स वृषा वृषभो भुवत् ।।साम0।।119।।
(हे मेघों के राजा इन्द्र! पृथ्वी पर अधर्म का नाश तथा धर्म के विस्तार के लिए वर्षा जल को निर्बाधगति से भूमि पर प्रवाहित करें। जिससे सभी भूमण्डल वासी सत्यज्ञान तथा सत्य आचरण में तत्पर होकर सुखी जीवन व्यतीत करें।)
चक्रं यदस्याप्स्वा निषत्तमुतो तदस्मै मध्विच्चच्छद्यात् । पृथिव्यामतिषितं यदूधः पयो गोष्वदधा ओषधीषु ।।साम0।।331।।
(पृथ्वी पर प्रवाहित होती जल धाराओं, नदियों तथा समुद्र से सूर्य की किरणों द्वारा अवशोषित जल वायुंमण्डल में बादल का आकार लेकर वर्षा जल के रूप में पुनः धरती पर वापस आ जाता है। परमेश्वर की आज्ञा से सृष्टि का यह चक्र निरन्तर जारी है। यही निर्मल जल गायों में दूध के रूप में, औषधियों तथा वनस्पतियों में पोषक रस के रूप में विद्यमान है। परमेश्वर जल चक्र के रूप में अमृत वर्षा करता है। हे मानवों! ऐसे प्रभु को धन्यवाद ज्ञापित करें।)
असाव्यꣳशुर्मदायाप्सु दक्षो गिरिष्ठाः । श्येनो न योनिमासदत् ।।साम0।।473।।
(पर्वत पर उत्पन्न सोम आनन्द के लिए निचोड़ा गया एवं जल के संयोग से व्यापक बना तथा श्येन पक्षी के समान अपने निश्चित स्थान पर विराजित है।)
पुनानः सोम धारयापो वसानो अर्षसि । आ रत्नधा योनिमृतस्य सीदस्युत्सो देवो हिरण्ययः ।।साम0।।511।।
(सोम रस पवित्र होकर जल में मिल कर धरा सहित कलश में प्रवाहित होता है। रत्नादि देने वाला, यज्ञ मण्डप में आसीन, आलोकित होता हुआ यह सोमरस प्रवाहित होता है।)
सहर्षभाः सहवत्सा उदेत विश्वा रूपाणि बिभ्रतीर्द्व्यूध्नीः । उरुः पृथुरयं वो अस्तु लोक इमा आपः सुप्रपाणा इह स्त ।।साम0।।626।।
(वृषभों और बछडों सहित, बड़े थन वाली, अनेक रूप-रंग वाली हे गोओं! तुम हमारे पास आओ। यह महान् लोक तुम्हारे वास के योग्य है, यह जल तृप्तिकारक होकर तुम्हें प्राप्त हो।)
अधा हीन्द्र गिर्वण उप त्वा काम ईमहे ससृग्महे । उदेव ग्मन्त उदभिः ।।साम0।।710।।
(जैसे जल के पास जाते हुए लोग ‘आश्यकतानुसार जल’ से तृप्त होते हैं, वैसे ही हे प्रशंसा के योग्य इन्द्र! अपनी इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए हम आपके पास आकर आपसे प्रार्थना करते हैं।)
विश्वस्मा इत्स्वर्दृशे साधारणꣳ रजस्तुरम् । गोपामृतस्य विर्भरत् ।।साम0।।840।।
(यज्ञ रक्षक, जल-प्रेरक, स्वयं प्रकाशित देव शक्तियों को सहजता से प्राप्त होने वाला दिव्य सोम आकाश को संव्याप्त कर देता है। सोम जल के साथ मिलकर प्राणरस बनता है, प्रेरणादायी है, इन्द्र, अग्नि, अश्विनी कुमारों के लिए सूर्य स्तुति में सोम की प्रधानता है।)
परि णः शर्मयन्त्या धारया सोम विश्वतः । सरा रसेव विष्टपम् ।।साम0।।897।।
(हे सोमदेव! जल से घिरी हुई पृथ्वी की भांति आप अपनी सुखद रस धारा से हमें चारों ओर से घेर लें। जीवन के प्रत्येक क्षण में आपकी अनुकम्पा से सुखद अनुभूति का लाभ मिले।)
अयꣳ स यो दिवस्परि रघुयामा पवित्र आ । सिन्धोरूर्मा व्यक्षरत् ।।साम0।।900।।
(आकाश में मन्द गति से विचरण करने वाला पवित्र सोमरस, सागर, नदी, जलाशय आदि की लहरों को प्राप्त होता है।)
धीभिर्मृजन्ति वाजिनं वने क्रीडन्तमत्यविम् । अभि त्रिपृष्ठं मतयः समस्वरन् ।।साम0।।941।।
(जल में मिश्रित होने वाला, शक्तिशाली सोम स्तुतिमान करते हुए ऋत्विजों ‘साधकों’ द्वारा शोधन मंत्रों से शोधित किया जाता है। अन्तरिक्ष, वनस्पति एवं जीव जगत् रूप तीनों पात्रों में विद्यमान उस दिव्य सोम की ज्ञानीजन वन्दना करते हैं।)
ईशान इमा भुवनानि ईयसे युजान इन्दो हरितः सुपर्ण्यः । तास्ते क्षरन्तु मधुमद्घृतं पयस्तव व्रते सोम तिष्ठन्तु कृष्टयः ।।साम0।।957।।
(हरे वर्ण के तीव्रगामी अश्वों ‘किरणों’ से सभी लोकां में संव्याप्त, जगत के स्वामी, हे तेजस्वी सोम! मधुर स्निग्ध जलधाराओं में आपका रस शक्ति स्थिर रहे। हे दिव्य सोम! आपकी प्रेरणा से याजकगण सत्कर्म में निरत रहें।)
अक्रान्त्समुद्रः प्रथमे विधर्मन् जनयन्प्रजा भुवनस्य गोपाः । वृषा पवित्रे अधि सानो अव्ये बृहत्सोमो वावृधे स्वानो अद्रिः ।।साम0।।1253।।
(जल की वृष्टि करने वाला, सर्वरक्षक दिव्यसोम, विस्तृत आकाश में सर्वप्रथम प्रजाओं की उत्पति करके श्रेष्ठतम महत्व को प्राप्त हुआ, तदन्तर पृथ्वी के ऊपर स्थापित प्राकृतिक शोधक छन्ने के द्वारा प्रवेश करता हुआ वृद्धि को प्राप्त होता है।)
एष विप्रैरभिष्टुतोऽपो देवो वि गाहते । दधद्रत्नानि दाशुषे ।।साम0।।1257।।
(श्रेष्ठ पुरूषों के द्वारा प्रशंसित होने वाला यह दिव्य सोम, हविदाता को धन प्रदान करता हुआ, जल में मिश्रित होता है।)
पवस्व वृष्टिमा सु नोऽपामूर्मिं दिवस्परि । अयक्ष्मा बृहतीरिषः ।।साम0।।1435।।
(हे दिव्य सोम! आप हमारे लिए द्युलोक से उत्तम रीति से वृष्टि करें। जल को तंरगित करें और स्वास्थ्यकारी अन्न हमें प्रदान करें।)
तया पवस्व धारया यया गाव इहागमन् । जन्यास उप नो गृहम् ।।साम0।।1436।।
(हे सोमदेव आप इस दिव्य जलधारा से पवित्र हों अर्थात् ‘जल बरसाएं’ जिससे दुधारू गौएं ‘पोषक तत्व अन्नादि’ हमारे घर पहुंचे।)
अग्रेगो राजाप्यस्तविष्यते विमानो अह्नां भुवनेष्वर्पितः । हरिर्घृतस्नुः सुदृशीको अर्णवो ज्योतीरथः पवते राय ओक्यः ।।साम0।।1616।।
( प्रगतिशील राजा, सोम, जल में मिश्रित होता हुआ प्रशंसित होता है। वह दिवस का मापक निर्माण करने वाला ‘सोमजल’ में स्थापित है, हरित वर्ण के जल मिश्रित, सुन्दर दर्शनीय और जल में निवास करने वाला ज्योतिस्वरूप रथ वाला सोम धनाभार स्वरूप है।)
आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन । महे रणाय चक्षसे ।।साम0।।1837।।
(हे जल समूह! आप सुख के उत्पति कारक हैं। हमारे बल, वैभव एवं रमणीय ज्ञान प्रदान करने वाले बनें।)
यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः । उशतीरिव मातरः ।।साम0।।1838।।
(हे जल समूह! अपने अत्यन्त सुखकारी रस रूप का हमें सेवन करने दें। जैसे बच्चे को माता दुग्ध रूप रस से पोषित करती है।)
तस्मा अरं गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ । आपो जनयथा च नः ।।साम0।।1839।।
(हे जल समूह! जिस ऐश्वर्य ‘रोग निवारक शक्ति’ को धारण करने की आप प्रेरणा देते हैं। पुत्र, पौत्रों के साथ हम उसे प्राप्त करें।)
अथर्ववेद
सामान्य जानकारी
अथर्ववेद सनातन धर्म, वैदिक संस्कृति का चतुर्थ वेद माना जाता है। यह वेद ऋषियों द्वारा सबसे बाद में रचा गया। इस वेद के ऋषि- अंगिरा ऋषि हैं। इस वेद में 20 काण्ड तथा 731 सूक्त हैं। अथर्ववेद में कुल 5977 मंत्र हैं। इस वेद में कुछ मंत्र अन्य वेदों से भी लिये गये हैं।
विशेषताएं
वेद की चतुर्थ धारा अथर्ववेद स्वयं में जीवन की समग्रता को समेटे हुए है। सृष्टि के गूढ़ रहस्यों, दिव्य प्रार्थनाओं, यज्ञीय प्रयागों, रोगोपचार, विवाह, प्रजनन, परिवार, सामाजिक व्यवस्था एवं आत्मरक्षा आदि जीवन के सभी पक्षों का अथर्ववेद में समावेश है। वेद की अन्य धाराओं में गूढ़ विज्ञान के साथ शुद्ध विज्ञान है परन्तु अथर्ववेद में विज्ञान की गूढ़ धाराओं के साथ व्यावहारिक विज्ञान भी है।
अथर्ववेद में जल
वेद की अन्य शाखाओं की तरह ही अथर्ववेद में आपः(जल) की महत्ता का वर्णन अनेक मंत्रों में किया गया है। अथर्ववेद के प्रथम काण्ड के 4.5.6 सूक्तों में जल की स्तुति की गयी है। अथर्ववेद में जल को यज्ञ सम्पन्न कराने वाला, रोग निवारक, पीने में अमृत के समान, भय के हरण तथा परम् कल्याणकारी बताया गया है।
अथर्ववेद संहिता के प्रथम काण्ड के सूक्त 4 के मंत्र
अम्बयो यन्त्यध्वभिर्जामयो अध्वरीयताम्। पृञ्चतीर्मधुना पयः ।।अथ0।।1।।4।।1।।
(माताओं-बहिनों की भांति यज्ञ से उत्पन्न पोषक धाराएं यज्ञ कर्ताओं के लिए पय ‘दूध या पानी’ के साथ मधुर रस मिलाती हैं।)
अमूर्या उप सूर्ये याभिर्वा सूर्यः सह। ता नो हिन्वन्त्वध्वरम् ।।अथ0।।1।।4।।2।।
(सूर्य के सम्पर्क में आकर पवित्र हुआ वाष्पीकृत जल, उसकी शक्ति के साथ पर्जन्य वर्षा के रूप में हमारे सत्कर्मों को बढ़ाएं- यज्ञ को सफल बनायें।)
अपो देवीरुप ह्वये यत्र गावः पिबन्ति नः। सिन्धुभ्यः कर्त्वं हविः ।।अथ0।।1।।4।।3।।
(हम उस दिव्य ‘आपः’ प्रवाह की अभ्यर्थना करते हैं जो सिन्धु अन्तरिक्ष के लिए हवि प्रदान करते हैं तथा जहां हमारी गौएं ‘इन्द्रियां और वाणियां’ तृप्त होती हैं।)
अप्स्व१न्तरमृतमप्सु भेषजम्। अपामुत प्रशस्तिभिरश्वा भवथ वाजिनो गावो भवथ वाजिनीः ।।अथ0।।1।।4।।4।।
(जीवन शक्ति, रोगनाशक एवं पुष्टिकारक आदि दैवीय गुणों से युक्त आपः(जल) तत्व हमारे अश्वों व गौओं को वेग प्रदान करें, हम बल-वैभव से सम्पन्न हों।)
आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन। महे रणाय चक्षसे ।।अथ0।।1।।5।।1।।
(हे जल समूह! आप प्राणिमात्र को सुख देने वाले हैं। सुखोपभोग एवं संसार में रमण करते हुए, हमें उत्तम दृष्टि की प्राप्ति हेतु पुष्ट करें।)
यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः ।।अथ0।।1।।5।।2।।
(हे जल समूह! अपने पुत्रों के प्रति वात्सल्य स्नेह उमड़ती माताओं के समान आप हमें अपने सबसे अधिक कल्याणप्रद रस में भागीदार मनाएं।)
तस्मा अरं गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ। आपो जनयथा च नः ।।अथ0।।1।।5।।3।।
(अन्नादि उत्पन्न कर प्राणीमात्र को पोषण देने वाले हे दिव्य जल प्रवाह! हम आपका सान्निध्य पाना चाहते हैं। हमारी अधिकतम वृद्धि हो।)
ईशाना वार्याणां क्षयन्तीश्चर्षणीनाम्। अपो याचामि भेषजम् ।।अथ0।।1।।5।।4।।
(व्यादि निवारक दिव्यगुण सम्पन्न हे जल! हम आप का आवाहन करते हैं। यह जल हमें सुख समृद्धि प्रदान करे। इस औषधि रूप जल की हम प्रार्थना करते हैं।)
शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शं योरभि स्रवन्तु नः ।।अथ0।।1।।6।।1।।
(दैवीय गुणों से युक्त हे जल समूह! हमारे लिए आप हर प्रकार से कल्याणकारी एवं प्रसन्नतादायक हों। अकांक्षाओं की पूर्ति हेतु आप हमें आरोग्यता प्रदान करें।)
अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा। अग्निं च विश्वशंभुवम् ।।अथ0।।1।।6।।2।।
(सोम का हमारे लिए आदेश है कि, दिव्य जल हर प्रकार से औषधीय गुणों से युक्त है। इसमें कल्याणकारी अग्नि भी विद्यमान है।)
आपः पृणीत भेषजं वरूथं तन्वे३ मम। ज्योक्च सूर्यं दृशे ।।अथ0।।1।।6।।3।।
(हे दिव्य जल समूह! आप हमें दिव्य औषधियां प्रदान कर आरोग्यता प्रदान करें, जिससे हमें निरोगी दीर्घ जीवन प्राप्त हो सके।)
शं न आपो धन्वन्या३ः शमु सन्त्वनूप्याः। शं नः खनित्रिमा आपः शमु याः कुम्भ आभृताः। शिवा नः सन्तु वार्षिकीः ।।अथ0।।1।।6।।4।।
(सूखे प्रान्त रेगिस्तान का जल हमारे लिए कल्याणकारी हो। जलमय देश का जल हमें सुख प्रदान करे। भूमि से खोदकर निकाला गया कुएं आदि का जल हमारे लिए सुखप्रद हो। पात्र में स्थित जल हमें शान्ति देने वाला हो। वर्षा से प्राप्त जल हमारे जीवन में सुख-शान्ति की वृष्टि करने वाला सिद्ध हो।)
हिरण्यवर्णाः शुचयः पावका यासु जातः सविता यास्वग्निः। या अग्निं गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु ।।अथ0।।1।।33।।1।।
(जो जल सोने के समान आलोकित होने वाले रंग से सम्पन्न, अत्यधिक मनोहर, शुद्धता प्रदान करने वाला है। जिससे सविता देव तथा अग्नि देव प्रकट हुए हैं, जो श्रेष्ठ रंग वाला जल अग्निगर्भ है, वह जल हमारी व्याधियों को दूर करके हम सबको सुख तथा शान्ति प्रदान करे।)
यासां राजा वरुणो याति मध्ये सत्यानृते अवपश्यञ्जनानाम्। या अग्निं गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु ।।अथ0।।1।।33।।2।।
(जिस जल में रह कर राजा वरूण देव सत्य एवं असत्य का निरीक्षण करते हैं, जो सुन्दर वर्ण वाला जल अग्नि गर्भ को धारण करता है, वह हमारे लिए शान्तिप्रद हो।)
यासां देवा दिवि कृण्वन्ति भक्षं या अन्तरिक्षे बहुधा भवन्ति। या अग्निं गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु ।।अथ0।।1।।33।।3।।
(जिस जल के सारभूत तत्व का तथा सोमरस का इन्द्रदेव आदि देवता द्युलोक में सेवन करते हैं। जो अन्तरिक्ष में विविध प्रकार से निवास करते हैं, वह अग्निगर्भ जल हम सबको सुख-शान्ति प्रदान करे।)
शिवेन मा चक्षुषा पश्यतापः शिवया तन्वोप स्पृशत त्वचं मे। घृतश्चुतः शुचयो याः पावकास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु ।।अथ0।।1।।33।।4।।
(हे जल के अधिष्ठाता देव! आप अपने कल्याणकारी नेत्रों से हमें देखें तथा अपने हितकारी शरीर द्वारा हमारी त्वचा का स्पर्श करें। तेजस्विता प्रदान करने वाला शुद्ध तथा पवित्र जल हमें सुख-शान्ति प्रदान करे।)
आपो यद्वस्तपस्तेन तं प्रति तपत यो३ ऽस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।अथ0।।2।।23।।1।।
(हे जल देवता! आपके अन्दर जो ताप ‘प्रताप’ है, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं को संतप्त करें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं।)
आपो यद्वस्हरस्तेन तं प्रति हरत यो३ ऽस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।अथ0।।2।।23।।2।।
(हे जल देव! आपके अन्दर हरण करने की शक्ति है। अपनी इस शक्ति से जो हमसे द्वेष करते हैं तथा जिनसे हम द्वेष करते हैं उनका हरण करें।)
आपो यद्वोऽर्चिस्तेन तं प्रत्यर्चत यो३ ऽस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।अथ0।।2।।23।।3।।
(हे जल देव! आपके अन्दर जो प्रज्वलन शक्ति है, उस शक्ति के द्वारा उन रिपुओं को जला दें जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं।)
आपो यद्वः शोचिस्तेन तं प्रति शोचत यो३ ऽस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।अथ0।।2।।23।।4।।
(हे जल देव! आपके अन्दर जो पराभिभूत करने की शक्ति है, उसके द्वारा आप हमारे शत्रुओं को पराभूत कर दें, जो हमसे द्वेष करते हैं तथा जिनसे हम द्वेष करते हैं।)
आपो यद्वस्तेजस्तेन तमतेजसं कृणुत यो३ ऽस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।अथ0।।2।।23।।5।।
(हे जल देव! आपके अन्दर जो तेज शक्ति समाहित है, उस तेज शक्ति के द्वारा आप हमारे शत्रुओं को निस्तेज कर दें, जो हमसे द्वेष करते हैं तथा जिनसे हम द्वेष करते हैं।)
आप इद्वा उ भेषजीरापो अमीवचातनीः। आपो विश्वस्य भेषजीस्तास्त्वा मुञ्चन्तु क्षेत्रियात् ।।अथ0।।3।।7।।5।।
(जल समस्त रोगों की औषधी है। स्नान, पान आदि के द्वारा यह जल औषधी रूप में सभी रोगों को दूर करता है, यह अन्य औषधियों की भांति किसी एक रोग की नहीं बल्कि समस्त रोगों की औषधी है। हे रोगिन् ऐसे जल से तुम्हारे सभी रोग दूर हों।)
यददः संप्रयतीरहावनदता हते। तस्मादा नद्यो३नाम स्थ ता वो नामानि सिन्धवः ।।अथ0।।3।।13।।1।।
(हे सरिताओं! आप भली प्रकार से सदैव गमनशील रहने वाली हैं। मेघों के ताड़ित होने, बरसने के बाद आप जो कल-कल ध्वनि से नाद कर रही हैं, इसलिए आप का नाम ‘नदी’ पड़ा। यह नाम आपके अनुरूप ही है।)
यद् प्रेषिता वरुणेनाच्छीभं समवल्गत। तदाप्नोदिन्द्रो वो यतीस्तस्मादापो अनु ष्ठान ।।अथ0।।3।।13।।2।।
( हे जल धराओं! जब आप वरुण द्वारा प्रेरित होकर शीघ्र ही मिलकर नाचती हुई सी चलने लगी, तब इन्द्र देव ने आपको प्राप्त किया। इस आप्नोत् क्रिया के कारण आप का नाम ‘आपः’ पड़ा।)
अपकामं स्यन्दमाना अवीवरत वो हि कम्। इन्द्रो वः शक्तिभिर्देवीस्तस्माद्वार्नाम वो हितम् ।।अथ0।।3।।13।।3।।
(हे जल धाराओ! आप बिना इच्छा के सदैव प्रवाहित होने वाले हैं। इन्द्रदेव ने अपने बल के द्वारा आप का वरण किया। इसलिए हे देवनशील जल! आप का नाम ‘वारि’ पड़ा।)
एको वो देवोऽप्यतिष्ठत्स्यन्दमाना यथावशम्। उदानिषुर्महीरिति तस्मादुदकमुच्यते ।।अथ0।।3।।13।।4।।
(हे यथेच्छ(आवश्यकतानुसार) बहने वाले जल तत्व! एक श्रेष्ठ देवता आपके अधिष्ठाता हुए। देव संयोग से महान् ऊर्ध्वश्वास उर्ध्वगति के कारण आपका नाम ‘उदक’ भी हुआ।)
आपो भद्रा घृतमिदाप आसन्नग्नीषोमौ बिभ्रत्याप इत्ताः। तीव्रो रसो मधुपृचामरंगम आ मा प्राणेन सह वर्चसा गमेत् ।।अथ0।।3।।13।।5।।
(निश्चित रूप से यह जल कल्याणकारी है, घृत तेज प्रदायक है। इसे अग्नि तथा सोम पुष्ट करते हैं। यह जल, मधुरता से पूर्ण तथा तृप्तिदायक तीव्र रस हमें प्राण तथा वर्चस् के साथ प्राप्त हो।)
आदित् पश्याम्युत वा शृणोम्या मा घोषो गच्छति वाङ्मासाम्। मन्ये भेजानो अमृतस्य तर्हि हिरण्यवर्णा अतृपं यदा वः ।।अथ0।।3।।13।।6।।
(निश्चित रूप से मैं अनुभव करता हूं कि, इनके द्वारा उच्चरित शब्द हमारे कानों के समीप आ रहे हैं। चमकदार रंग वाले हे जल! आपका सेवन करने बाद अमृतोपम भोजन के समान हमें तृप्ति का अनुभव हुआ है।)
इदं व आपो हृदयमयं वत्स ऋतावरीः। इहेत्थमेत शक्वरीर्यत्रेदं वेशयामि वः ।।अथ0।।3।।13।।7।।
(हे जल प्रवाहों! यह तुष्टिदायक प्रभाव आपका हृदय है। हे ऋत प्रवाही धाराओं! यह ‘ऋत’ आपका पुत्र है, हे शक्ति प्रदायक धाराओं! यहां इस प्रकार आओ, जहां तुम्हारे अन्दर इन विशेषताओं का प्रविष्ट हो।)
सस्रुषीस्तदपसो दिवा नक्तं च सस्रुषीः। वरेण्यक्रतुरहमपो देवीरुप ह्वये ।।अथ0।।6।।23।।1।।
(हम श्रेष्ठ कर्म करने वाले लोग निरन्तर गतिमान् जल धाराओं में प्रवाहित दिव्य आपः ‘सृष्टि के मूल तत्व जल’ का आवाहन करते हैं।)
ओता आपः कर्मण्या मुञ्चन्त्वितः प्रणीतये। सद्यः कृण्वन्त्वेतवे ।।अथ0।।6।।23।।2।।
(सर्वत्र व्याप्त, निरन्तर गतिमान् जल धाराएं क्रियाशक्ति उत्पन्न करके हमें इन हीनताओं से मुक्त करें, हम शीघ्र प्रगति करें।)
देवस्य सवितुः सवे कर्म कृण्वन्तु मानुषाः। शं नो भवन्त्वप ओषधीः शिवाः ।।अथ0।।6।।23।।3।।
(सबके प्रेरक-उत्पादक सविता देवता की प्रेरणा से सब मानव अपने-अपने नियत लौकिक एवं पारालौकिक दोनों प्रकार के कार्य करें। कल्याणकारी औषधियों की वृद्धि एवं हमारे लिए जल कल्याणकारी एवं पाप क्षयकारी सिद्ध हो।)
हिमवतः प्र स्रवन्ति सिन्धौ समह सङ्गमः। आपो ह मह्यं तद्देवीर्ददन् हृद्द्योतभेषजम् ।।अथ0।।6।।24।।1।।
(हिमाच्छादित पर्वतों की जल धाराऐं बहती हुई समुद्र में मिलती हैं, ऐसी पापनाशक जल धाराएं हमारे हृदय के दाह को शान्ति देने वाली औषधियां प्रदान करें।)
यन्मे अक्ष्योरादिद्योत पार्ष्ण्योः प्रपदोश्च यत्। आपस्तत्सर्वं निष्करन्भिषजां सुभिषक्तमाः ।।अथ0।।6।।24।।2।।
(जो-जो रोग हमारी आंखों, ऐडियों तथा पैरों के आगे के भागों व्यथित कर रहे हैं, उन सब दुःखों को वैद्यों का भी उत्तम वैद्य जल हमारे शरीर से निकाल कर बाहर करे।)
सिन्धुपत्नीः सिन्धुराज्ञीः सर्वा या नद्य१ स्थन। दत्त नस्तस्य भेषजं तेना वो भुनजामहै ।।अथ0।।6।।24।।3।।
(हे जल धाराओं आप समुद्र की पत्नियां हैं। समुद्र आप का सम्राट है। हे निरन्तर बहती हुई जल धाराओं! आप हमें पीड़ा से मुक्त होने वाले रोग का निदान दें, जिससे हम आपके स्वजन निरोग होकर अन्नादि बल देने वाली वस्तुओं का उपभोग कर सकें।)
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