सिद्धबली चन्द्रवदनी
माँ चन्दबदनी की सिद्धपीठ श्री चन्द्रबदनी धाम टिहरी जनपद के विकासखण्ड हिण्डोखाल के अंतर्गत समुद्र तल से 2,278 मीटर की ऊंचाई पर चंद्रकूट पर्वत पर स्थित है। चंद्रबदनी जिसे भुवनेश्वरी पीठ भी कहा जाता है। मान्यता है कि सती के देह त्याग के पश्चात् भगवान रूद्र यहां पर विलाप करते हुए रोये थे तब शंकर भगवान की संतुष के लिये माँ ने यहा पर अपना चंद्रमुख रूद्रेश्वर को दिखाया था। केदारखण्ड में इसका वर्णन मिलता है, देवी सती के देह त्याग के पश्चात् शंकर भगवान उनके मुखचंद्र का स्मरण करके विरहातुर होकर यहां पर रोये थे।
अत्र पूर्व महारूद्र, रूदोद विरहातुरः।
देव्याः कलेवरोत्सर्गे स्मृत्वा तन्मुखचद्रकम्।।
(केदारखण्डम्)
देवी भागवत पुराण के अनुसार भुवनेश्वरी शक्ति की दस महाविधाओं में पांचवे स्थान पर परिगणित है। देवीपुराण के अनुसार मूल प्रकृति का दूसरा नाम ही भुवनेष्वरी है। भगवान शिव के समस्त लीला विलास की वह सहचरी है। ईशरी रात्रि की अधिषत्री देवी भुवनेश्वरी कहलाती है। अंकुश तथा पाश इनके मुख्य आयुध है जो क्रमशः नियंत्रण और राग अथवा आसक्ति के प्रतीक है। मॉं भुवनेशरी को विश्व में वमन करने के कारण वामा। शिवमयी होने से ज्येष्ठा तथा कर्म नियंत्रण, फलदान और जीवों को दण्डित करने के कारण रौद्री कहा जाता है। भगवान शिव का वाम भाग ही भुवनेश्वरी कहलाता है। भुवनेश्वरी के संग से ही भुवनेश्वर सदा शिव को सर्वेश होने की योग्यता प्राप्त होती है। इस सिद्वपीठ को मां भुवनेश्वरी धाम भी कहा जाता है।
प्राकृतिक सौंदर्य
प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण चंद्रकूट पर्वत पर स्थित मां चंद्रवदनी का मंदिर उत्तराखण्ड के शक्ति स्थल की शोभा अद्वितीय है। मंदिर के चारों ओर मन को प्रफुल्लित करने वाले नयनाभिराम दृश्य उपस्थित हैं । यहां पहुंचने पर तन,मन और आत्मा को परम शान्ति का आभास होता है। चंद्रवदनी से चैखम्बा श्रृंखला की अनेक हिम मंडित चोटियां, ऊंचे शिखर जैसे खैट पर्वत, सुरकण्डादेवी, कुंजापुरी, रानीचौरी, नई टिहरी, टिहरी तथा पौड़ी जनपद के अनेक गांव व घाटियों के मनोहारी दृश्य यहां से देखते ही बनते हैं। पूर्णिमा की रात्रि को इस देव स्थान पर आश्रय लेने से विशेष आनंद की प्राप्ति होती है। प्रकृति, धर्म, संस्कृति, अध्यात्म की अनुपम समन्वय स्थली है श्रीचंद्रवदनी
कैंसे पहुंचे?
उन्तुंग चंद्रकूट पर्वत पर स्थित सिद्वपीठ चंद्रवदनी ऋषिकेश से देवप्रयाग, हिण्डोलाखाल, जामणीखाल होते हुए 106 किमी की दूरी पर स्थित है।
देवप्रयाग से सिद्वपीठ 37 किमी. की दूरी पर स्थित है। नई टिहरी से जाखणीधार अंजनीसैंण, नैखरी होते हुए भी चंद्रवदनी पहुंचा जा सकता है। श्रीनगर गढ़वाल से लछमोली, हिजराखाल होते हुए नैखरी के रास्ते भी चंद्रवदनी पहुंचा जा सकता है। दुगड्डा (टिहरी) से भी एक पैदल मार्ग चंद्रवदनी को जाता है।
वास्तुशिल्प
वास्तु विधान के अनुसार चंद्रवदनी मंदिर अष्टकणीय है। स्थानीय शिल्पियों ने पाषाण शिलाओं को खूबसूरती से तरास कर मंदिर का निर्माण किया है। मंदिर को नवीनीकृत तथा जीर्णोद्धार 1984 से 1990 के मध्य किया गया। मंदिर में मुख्य गर्भ गृह की एक शिला पर उत्कीर्ण देवी के श्री यंत्र की पूजा की जाती है। यंत्र के ऊपर चांदी का बृहद छत्र सुशोभित है। श्री यंत्र के ठीक ऊपर की शिला के दर्शन करना पुजारी के लिये निषेध है। संपूर्ण ऊपरी भाग को वस्त्र लगाकर ढका गया है। गर्भगृह के बाहर ढाई फीट ऊंची संगमरमर की प्रतिमा स्थापित की गयी है।
उन्तुंग चंद्रकूट पर्वत पर स्थित सिद्वपीठ चंद्रवदनी ऋषिकेश से देवप्रयाग, हिण्डोलाखाल, जामणीखाल होते हुए 106 किमी की दूरी पर स्थित है।
देवप्रयाग से सिद्वपीठ 37 किमी. की दूरी पर स्थित है। नई टिहरी से जाखणीधार अंजनीसैंण, नैखरी होते हुए भी चंद्रवदनी पहुंचा जा सकता है। श्रीनगर गढ़वाल से लछमोली, हिजराखाल होते हुए नैखरी के रास्ते भी चंद्रवदनी पहुंचा जा सकता है। दुगड्डा (टिहरी) से भी एक पैदल मार्ग चंद्रवदनी को जाता है।
वास्तुशिल्प
वास्तु विधान के अनुसार चंद्रवदनी मंदिर अष्टकणीय है। स्थानीय शिल्पियों ने पाषाण शिलाओं को खूबसूरती से तरास कर मंदिर का निर्माण किया है। मंदिर को नवीनीकृत तथा जीर्णोद्धार 1984 से 1990 के मध्य किया गया। मंदिर में मुख्य गर्भ गृह की एक शिला पर उत्कीर्ण देवी के श्री यंत्र की पूजा की जाती है। यंत्र के ऊपर चांदी का बृहद छत्र सुशोभित है। श्री यंत्र के ठीक ऊपर की शिला के दर्शन करना पुजारी के लिये निषेध है। संपूर्ण ऊपरी भाग को वस्त्र लगाकर ढका गया है। गर्भगृह के बाहर ढाई फीट ऊंची संगमरमर की प्रतिमा स्थापित की गयी है।
गौरी शंकर की दो प्राचीन प्रतिमायें मुख्य मंदिर में प्रतिष्ठित हैं। इतिहासकारों के अनुसार चंद्रवदनी की हर गौरी की प्रतिमा उसी शैली में निर्मित है जिस शैली में कालीमठ, गोपेश्वर, तपोवन, मैखण्डा आदि में हर गौरी की निर्मित है संभवतः ये सभी मूर्तियां एक ही कलाकार द्वारा निर्मित है।
मंदिर की पूर्व दिशा में यज्ञशाला निर्मित है जहां प्राचीन त्रिशूल, नागराजा, नृसिंह देवता इनकी पाषाण पर प्राचीन प्रतिमायें दृष्टव्य हैं।
कब जायं?
वैसे तो मां के दरबार में दर्शनार्थ वर्षभर में कभी भी जाया जा सकता है, परन्तु शरदीय तथा बासंती नवरात्रों में यहांॅं जाने का विशेष महत्व है।
अभिलेख
श्री चंद्रवदनी मंदिर में गढ़ नरेशों द्वारा रचित कुछ प्राचीन अभिलेख प्राप्त हुए हैं।
महीपतिशाह (राज्यावधि)- 1624 ई- 1631 ई. तक) चंद्रवदनी मंदिर प्रलेख
1697 ई. में फतेहपतिशाह का चंद्रवदनी मंदिर प्रलेख (मुद्रा)
1710 ई. में फतेपतिशाह का एक और चंद्रवदनी प्रलेख (मुद्रा)
1726 ई. में प्रदीपशाह का चंद्रवदनी देवी आदेआदेश पत्र (डॉ. यशवंत कठोच, उत्तराखण्ड का नवीन इतिहास पृ. 211-224)
कहां ठहरे?
चंद्रवदनी धाम में ठहरने के लिये धर्मशाला उपलब्ध है।
मंदिर की पूर्व दिशा में यज्ञशाला निर्मित है जहां प्राचीन त्रिशूल, नागराजा, नृसिंह देवता इनकी पाषाण पर प्राचीन प्रतिमायें दृष्टव्य हैं।
कब जायं?
वैसे तो मां के दरबार में दर्शनार्थ वर्षभर में कभी भी जाया जा सकता है, परन्तु शरदीय तथा बासंती नवरात्रों में यहांॅं जाने का विशेष महत्व है।
अभिलेख
श्री चंद्रवदनी मंदिर में गढ़ नरेशों द्वारा रचित कुछ प्राचीन अभिलेख प्राप्त हुए हैं।
महीपतिशाह (राज्यावधि)- 1624 ई- 1631 ई. तक) चंद्रवदनी मंदिर प्रलेख
1697 ई. में फतेहपतिशाह का चंद्रवदनी मंदिर प्रलेख (मुद्रा)
1710 ई. में फतेपतिशाह का एक और चंद्रवदनी प्रलेख (मुद्रा)
1726 ई. में प्रदीपशाह का चंद्रवदनी देवी आदेआदेश पत्र (डॉ. यशवंत कठोच, उत्तराखण्ड का नवीन इतिहास पृ. 211-224)
कहां ठहरे?
चंद्रवदनी धाम में ठहरने के लिये धर्मशाला उपलब्ध है।
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