प्राणशक्ति संवर्धन के लिए प्राणायाम से करें आत्मसात् - TOURIST SANDESH

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शनिवार, 19 जून 2021

प्राणशक्ति संवर्धन के लिए प्राणायाम से करें आत्मसात्

 प्राणशक्ति संवर्धन के लिए प्राणायाम से करें आत्मसात्

सुभाष चन्द्र नौटियाल

उत्तराखण्ड की लोक संस्कृति भारतीय संस्कृति की सम्वाहक रही है या यूं कहें कि भारतीय संस्कृति का केन्द्र बिन्दु उत्तराखण्ड रहा है तो अतिशयोक्ति न होगी। योग भारत, तथा भारतीय संस्कृति की पहचान रही है। योग तथा अध्यात्म का केन्द्र बिन्दु उत्तराखण्ड होने के कारण ऐसा कोई भी योग या अध्यात्म गुरू नहीं रहा है। जिसका सम्बन्ध उत्तराखण्ड की इस पावन पवित्र धरती से न रहा हो। उत्तराखण्ड की पावन धरती से ही योग का पादुर्भाव हुआ पूर्व काल से ही आध्यात्म तथा मनः शान्ति की खोज में मध्य हिमालयी के इसी भू-भाग में आदि कालीन ऋषि-मुनियों से लेकर वर्तमान में योग से आत्मसात् करने के लिए लोग आते हैं। ़ऋषि मुनियों की इस तपस्थली में विश्व कल्याण के लिए योग का विधिवत् सूत्रपात किया गया। आज भी गंगा के तट पर बसे ऋषिकेश को सम्पूर्ण विश्व में योग की राजधानी के रूप में जाना जाता है। योग की महिमा अनन्त है। योग अष्टांग पथ - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि से प्रभाषित किया गया है। यम, नियम, आसन के बाद प्राणायाम का बहुत महत्व है। योग के चरम बिन्दु समाधिस्थ तथा कुण्डिलिनी जागरण के लिए जीवनी  शक्ति को पूर्ण रूपेण सकारात्मक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। जीवन को नकारात्मक ऊर्जा के प्रभाव को पूर्ण रूपेण समाप्त करने तथा सकारात्मक ऊर्जा से भरने के लिए प्राणायाम ही आधार है।

प्राणायाम दो शब्दों से मिलकर बना है प्राण$आयाम ( प्राण यानि ऊर्जा, आयाम यानि ऊर्जा का नियंत्राण) प्राण शब्द ‘प्रा’ तथा ‘ण’ के योग से बना है। ‘प्र’ का अर्थ है प्रथम ईकाई तथा ‘ण’ का अर्थ होता है ‘ऊर्जा’ ऊर्जा की प्रथम ईकाई मानव में सूक्ष्म रूप में रहती है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में यही ऊर्जा क्रियाशील होकर सृष्टि का सृजन करती है। कुछ विद्वान इसे ब्रह्म शक्ति भी कहते हैं। मानव सहित सभी सजीव प्राणियों का तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का मूलभूत तत्व प्राण है। सृष्टि का सृजन तथा संचालन प्राण शक्ति या प्राण ऊर्जा के निरन्तर क्रियाशील होने से ही संभव है। इंद्रियों के द्वारा हमें इस जगत में जो कुछ बोध होता है वह सब ऊर्जा की अभिव्यक्ति मात्र है। प्राण यानि ऊर्जा ही मन का संपोषण तथा संरक्षण करते हुए विचारों को उत्पन्न करता है। प्राण, मन से सम्बन्धित है, मन इच्छा से इच्छा पर बुद्धि का प्रभाव बना रहता है। बुद्धि आत्मा से सम्बन्ध स्थापित करती है परन्तु तर्कशक्ति से तर्कशील होने के कारण बुद्धि सदैव स्वयं को श्रेष्ठता के रूप में प्रकट करती है। वास्तव यही अहं भाव है। मन, बुद्धि तथा अहं भाव मिलकर चित्त का निर्माण करते है। पंतजलि का योगदर्शन चित्त की वृत्तियों पर अंकुश लगाने को ही योग कहता है- योगाश्चि चित्त वृत्ति निरोधः (चित्त की वृत्तियों पर अंकुश लगाना ही योग है।)

चित्त की वृत्तियों पर तभी अंकुश लग सकता है जब आत्मा का परमात्मा या विश्वात्मा से ब्रह्म से सम्बन्ध स्थापित होता है यानि कि जब ऊर्जा का ऊर्जा के द्वारा ऊर्जा के असीमित भण्डार से सम्बन्ध स्थापित होता है तो मानव को पूर्णता का ज्ञान हो जाता है। इसे ब्रह्म ज्ञान भी कहा जाता है। समस्त संवेदनाओं, भावनाओं का बोध केवल  प्राण से संभव है। निरन्तर प्राणायाम करने से ही ब्रह्म से सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है।

क्या है प्राणायाम?

प्राणायाम एक यौगिक प्रविधि है। जिसके द्वारा ऊर्जा शक्ति का संवर्धन कर सदुपयोग करना संभव है। प्राणायाम वह प्रविधि है, जिसके द्वारा प्राण शक्ति को सम्प्रेरित, नियंत्रित, नियमित तथा संतुलित किया जाता है। 

प्राणायाम क्यों?

योगाचार्यों का विश्वास है कि, सारे विश्व में एक रहस्यमयी शक्ति है जो प्रत्येक प्राणी के जीवन का आधार है। इसे प्राणशक्ति कहते हैं। यह श्वास क्रिया के द्वारा नासामूल में स्थित नाड़ी विशेष से अंदर प्रवेश करती है। यह धनात्मक तथा ऋणात्मक दो प्रकार ही होती है। यदि श्वास दाहिने श्वास छिद्र से शरीर में प्रविष्टि हो तो धनात्मक कहलाती है, ठीक उसी प्रकार यदि श्वास बायें श्वास छिद्र से अंदर प्रवेश करती है जो तो ऋणात्मक कहलाती है। नासिका के एक छिद्र से जब काम होता है तो दूसरा बंद रहता है। योगाचार्यों के अनुसार दोनों श्वासों का नियमन तथा संतुलन सारे प्राणियों के जन्म, वृद्धि, क्षय और मृत्यु का नियंत्रण करता है। धन शक्ति सूर्य का वहन और ताप उत्पन्न करती है, ऋण शक्ति, चन्द्र शक्ति का वहन, शीतलता तथा शक्ति प्रदान करती है। महिलाओं में यह क्रिया उल्टी होती है। जब दोनों श्वास साथ-साथ चलते हैं तो दोनों शक्तियों का समान रूप से प्रवेश होता है। ये दोनों शक्तियां नाड़ी तंत्र के द्वारा सारे शरीर में पहुंच कर उसे सप्राण बनाती हैं। जब दाहिनी श्वास चलती है तो क्रोध तथा आसुरी वृत्तियों का प्रकोप भी होता है। इससे शरीर को हानि पहुंचती है। नियमित प्राणायाम अभ्यास से इन दोनों शक्ति में संतुलन बनाये रखना संभव होता है। जिससे प्राणशक्ति संवर्धित होती है।

प्राणायाम का महत्व

प्राणायाम की प्रक्रिया में सांस लेने से ब्रह्माण्डीय ऊर्जा (प्राण) आक्सीजन के द्वारा शरीर में प्रवेश करती है। व्यान के रूप में शरीर की सभी कोशिकाओं में प्रवेश कर उनसे समस्त विजातीय तत्व को निकाल ले जाती है। प्रश्वास में अपान शक्ति से कार्बन डाईआक्साइड के द्वारा निरर्थक पदार्थ बाहर निकल जाते हैं श्वास तथा प्रश्वास की गति पर निंयत्रण तथा मिलन प्राणायाम कहलाता है।

प्राणायाम भारतीय ऋषियों द्वारा प्रतिपादित एक यौगिक प्रक्रिया है जिसमें प्राण के रहस्य तथा निंयत्रण को समझकर शरीर व मन की क्रियाशीलता को बढ़ाने के लिए उपयोग में लाया जाता है। अतः प्राणायाम की शिक्षा-दीक्षा योग्य आचार्य से ही लेनी चाहिए।

प्राणायाम के प्रकार

योगशास्त्रों में निम्नलिखित प्रकार के महत्वपूर्ण प्राणायाम बताये गये हैं-

1- नाड़ी शोधन प्राणायाम ( अनुलोम-विलोम), 2- सूर्यभेदी तथा चन्द्रभेदी प्राणायाम, 3- भस्त्रिका प्राणायाम, 4- उज्जायी प्राणायाम, 5- भ्रामरी प्राणायाम, 6- शीतली प्राणायाम, 7- शीतकारी प्राणायाम, 8- मूर्छाप्राणायाम, 9- प्लावनी प्राणायाम,।

कैसें करें प्राणायाम?

प्राणायाम प्रारंभ करने से पूर्व निम्नवत् बातों पर ध्यान देना आवश्यक है-

1- वातावरण तथा स्थान का चुनाव- जिस स्थान पर प्राणायाम करना है वह स्थान साफ, स्वच्छ, शांत, हवादार तथा एकान्त होना चाहिए।

यदि प्राणायाम करने के स्थान पर शीतल, मंद, सुगन्ध हवा का प्रवेश हो तो अति उत्तम होता है।

2- समय तथा दिशा- प्रातः काल 4 बजे से 8 बजे तथा सांय 6 बजे से 8 बजे तक बशर्त खाना कम से कम चार घण्टे पूर्व खाया हो क्योंकि प्राणायाम खाली पेट किया जाता है। प्रातः काल पूर्व दिशा में तथा सांय काल पश्चिम दिशा की ओर प्राणायाम करना श्रेष्ठ माना गया है। उत्तर दिशा की ओर मुंह करके दोनों समय प्राणायाम किया जा सकता है परन्तु दक्षिण दिशा की ओर मुंह करके प्राणायाम करना वर्जित है।

3- पोशाक- कपड़े ढीले-ढाले पहनने चाहिए ताकि शरीर को हवा लग सके। जहां तक हो सके कम से कम वस्त्र शरीर पर हों।

4- आहार- प्राणायाम के लिए शाकाहारी भोजन आवश्यक माना गया है। सात्विक भोजन करने से सात्विक विचार मन में आते हैं। सात्विक विचारों से प्रसन्नता का संचार होता है। 

5- शरीर शुद्धि- प्राणायाम का अभ्यास करने से पूर्व शरीर स्वच्छ तथा निर्मल होना चाहिए। मन में किसी भी प्रकार के नकारात्मक विचार नहीं आने चाहिए।

6- नियमित अभ्यास- प्राणायाम तभी लाभकारी होता है जब उसका नियमित अभ्यास किया जाए।

7- समय सीमा प्राणायाम की समय सीमा निश्चित नहीं है परन्तु नियमित कम से कम 20 मिनट प्राणायाम करना सामान्य रूप से लाभकारी है।

8- आसन या मुद्रा- प्राणायाम अभ्यास के लिए सुखासन, सिद्धासन, पद्मासन में से सुविधानुसार किसी एक आसन का चुनाव करके उस आसन में बैठने का अभ्यास करना आवश्यक है। यम, नियम तथा आसन शुद्धिकरण के पश्चात् ही प्राणायाम का वास्तविक लाभ प्राप्त किया जा सकता है।

प्राणायाम की अवस्थायें

प्राणायाम की क्रिया चार अवस्थाओं में पूर्ण होती है-

1- पूरक, 2- कुम्भक, 3- रेचक, 4- शून्यक (बाहृय कुम्भक)

प्राणायाम का मंत्र

ऊँ भूः ऊँ भुवः ऊँँ स्वः ऊँ महः ऊँँ जनः ऊँँ तपः ऊँँ सत्यम्।

ऊँँ तत्सवितुर्वरण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

ऊँँ आपो ज्योति रसोमृत ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोम्।

1- पूरक- दाहिने अंगूठे से नाक के दाहिने छिद्र को दबाकर बायें छिद्र से श्वास को धीरे-धीरे खींचने की प्रक्रिया को पूरक कहते हैं। मंत्र का मानसिक जाप करते हुए नाभि देश में नील कमल पर नीलकर्ण चतुर्भुज श्री हरि विष्णु का ध्यान करना चाहिए।

2- कुम्भक- जब सांस खींचना रूक जाए, तब अनामिका तथा कनिष्ठिका अंगुली से नाक के बायें छिद्र को भी बंद कर दें। निरन्तर मानसिक जाप करते हुए हृदय में लाल कमल दल में विराजमान रक्त वर्ण चतुर्मुख ब्रह्माजी का ध्यान करना चाहिए।

3- रेचक- अंगूठे का हटाकर दाहिने छिद्र से धीरे-धीरे श्वास छोड़ने की प्रक्रिया को रेचक प्राणायाम कहते है। मंत्र का मानसिक जप करते हुए ललाट में श्वेत कमल दल में श्वेतवर्ण, श्वेताम्बर धारी भगवान शंकर का ध्यान करना चाहिए।

4- शून्यक- शून्यक को बाह्य कुम्भक भी कहते हैं। इसमें आन्तिरिक कुम्भक की भांति दोनों नासिका छिद्रो को बंद कर श्वास को बाहर ही रोक दिया जाता है।

पूरक कुम्भक, रेचक की प्रक्रिया को सुविधानुसार बार-बार दोहराया जाता है। 

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