यम-नियम से करें आत्मसात् - TOURIST SANDESH

सोमवार, 21 जून 2021

यम-नियम से करें आत्मसात्

 

यम-नियम से करें आत्मसात्

- सुभाष चन्द्र नौटियाल 


पतंजलि योग दर्शन में योग के आठ अंग बताये गये हैं। यम, नियम, आसन,प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। यम-नियम योग के आधार स्तम्भ हैं। सम्पूर्ण योग के लिए सर्वप्रथम यम-नियम से आत्मसात् करना अनिवार्य है। जीवन में बिना यम-नियम अपनाये योग की चरम सीमा तक पहुंचना असम्भव है। योग व्याक्ति को विषय वासनाओं से मुक्त कर सात्विक जीवन जीने की प्रेरणा देता है। चित्त की वृत्तियों का निरोध ही वास्तविक योग है।  जीवन जीने की पद्धति योग के आधार स्तम्भ यम जहॉ व्यक्ति को सामाजिक बनाने पर जोर देता है, वहीं नियम आन्तरिक एंव बाह्य स्वच्छता के लिए प्रेरित करता है -
यम
यम के पालन से मानव सामाजिक तथा अनुशासित होने लगता है। मन की चंचलताऐं धीरे-धीरे समाप्त होने लगती हैं। यम के पांच वृत्त हैं। जिनके अनुसार आचरण करने से योग का फल प्राप्त होना प्रारम्भ होता है।
1- अहिंसा- अहिंसा का शाब्दिक अर्थ होता है हिंसा न करना है। आमतौर पर व्यक्ति शारीरिक तौर पर आघात न पहुंचाना ही अहिंसा समझता है। वास्तव में यह अर्थ अपूर्ण है, आघात केवल शारीरिक ही नहीं होता बल्कि मानसिक एंव वाचिक भी होता है। मन एंव वाणी से भी हिंसा होती है। हिंसक विचार, हिंसक वाणी शरीर तथा मन पर बुरा प्रभाव डालते हैं। जिसके कारण मन आन्तरिक रूप से हिंसा के लिए प्रेरित होता है। योग में मन,वाणी और कर्म से अहिंसक होने पर जोर दिया गया है।  अतः योग हमें सिखाता है कि किसी व्यक्ति को केवल शरीरिक तथा मानसिक क्षति से ही नहीं बचना चाहिए अपितु कलुषित हिंसक विचारों को भी मन में नहीं लाना चाहिए। इससे सार्वभौम प्रेम का विकास होता है। फलस्वरूप व्यक्ति को सम्पूर्ण सृष्टि में एकाकार का अनुभव होने लगता है।
2- सत्य- सत्य ही ईश्वर है, ईश्वर ही सत्य है। सत्य नैतिकता का आधार स्तम्भ है। जीवन में बिना सत्यता धारण किये मोक्ष की कामना नहीं की जा सकती है। योग हमें सिखाता है कि व्यक्ति को मन, वचन तथा कर्म तीनों से सत्यभाषी होना चाहिए।
3- अस्तेय- अस्तेय का तात्पर्य है चोरी न करना। चोरी का अर्थ मात्र किसी वस्तु को चुराने मात्र से नहीं है बल्कि मन, वचन तथा कर्म से पराया वस्तुओं की कामना न करना, कर्तव्यों की चोरी न करना तथा किसी दूसरे की वस्तु की लालसा न रखना ही वास्तव में अस्तेय है। व्यक्ति की लालसा ही मन को भटका देती है तथा व्यक्ति चोरी की तरफ उन्मुक्त होने लगता है परन्तु चित्त में अस्तेय का विचार धारण करने से चित्त की वृत्तियां पर अंकुश लगता है तथा मन, बु़द्ध पर नियंत्रण किया जा सकता है।
4- ब्रह्मचर्य- ब्रह्मचर्य का तात्पर्य इन्द्रियों पर नियन्त्रण विशेष कर काम वृत्ति पर नियंत्रण लाना होता है, ब्रह्मचर्य का व्यापक अर्थ होता है, ब्रह्मचर्य का तात्पर्य ब्रह्मा में रमण करने से है। जीवन में यह स्थिति तभी सम्भव है जब व्यक्ति सभी प्रकार की बिषय वासनाओं तथा इच्छाओं से मुक्त हो चुका हो। काम वासना सभी वासनाओं में सबसे शक्तिशाली वासना है। काम क्रिया की अधिकता से मनुष्य के अंदर निहित शक्तिशाली संचित ऊर्जा का क्षय होता है। जीवन में मानव जब ब्रह्मचर्य को धारण करता है तो सभी प्रकार की वासनासें नियंत्रित होने लगती हैं तथा मन पूर्ण रूप से शांत होने लगता है।
5- अपरिग्रह- वस्तुओं का संग्रह न करना ही अपरिग्रह है। जीवन यापन के लिए न्यूनतम सुख-सुविधाओं को जुटाना तथा भौतिक वस्तुओं के प्रति अनुराग न रखना है अपरिग्रह है। भौतिक वस्तुओं के प्रति विशेष लगाव होने के कारण उनके अभाव में विशेष्ट कष्ट का अनुभव होता है। भौतिक वस्तुओं के रखने से कोई संकट उत्पन्न नहीं होता है। संकट तो वस्तुओं के प्रति आसक्ति व मोह तथा उनको अधिकाअधिक पाने की लालसा में हैं। इसीलिए योग यह आवश्यक समझता है कि ऐसी बुद्धि तथा मन का विकास किया जाए तो भौतिक वस्तुओं के प्रति आसाक्ति उत्पन्न ना करें।
नियम
नियम वे वृत्त हैं जो व्यक्ति को वाह्य तथा आन्तरिक दोनों रूप से स्वच्छ बनाते हैं, पंतजलि के योगदर्शन के अनुसार नियम पांच प्रकार के होते हैं-
1- शौच- शौच का तात्पर्य शरीर तथा मन दोनों की स्वच्छता से है शारीरिक स्वच्छता प्राप्त करना सहज कार्य है परन्तु मन की स्वच्छता प्राप्त करना जटिल कार्य है। मन की स्वच्छता प्राप्त करने के लिए विशेष प्रयास करने की आवश्यकता है,जिससे मन और बुद्धि परिष्कृत हो सकें। परिष्कृत अवस्था में स्मृति विचारों के प्रति सजग रहती है तथा बुद्धि सद तथा असद् विचारों में विभेद करने की क्षमता अर्जित करती है।
2- सन्तोष- मन में संतोष की अवस्था आनन्द का अनुभव कराती है, मन का संतोष भौतिक उपलब्धियों पर कदापि आधारित नहीं होता है। मन में भौतिक वस्तुओं के प्रति अनुराग के कारण अनंत इच्छायें प्रस्फुटित होती रहती हैं, जिनको पाने की लालसा में मन सदैव व्यग्र व बेचैन रहता है। मन की इसी अशान्ति को दूर करने के लिए संतोष वृत्ति को मन में धारण किया जाता है। संतोष वृत्ति के विकास से ही मन की शांति संभव है परन्तु संतोष का तात्पर्य कर्म से मुक्ति नहीं है।
3- तप- तप का तात्पर्य उन कृत्यों से है जिससे शरीर में अधिकाधिक ऊर्जा का विकास हो, इन्द्रिय सुखों से मुक्त जीवन, नियमित वृत्ति, ईश्वर श्रद्धा, मानव, सेवा, धैर्य तथा सहनशीलता तप के अभिन्न अंग हैं। तप को तीन भागों में बांटा जा सकता है- ज्ञानेन्द्रियां का तप, कर्मेन्द्रियां का तप, मानसिक विचारों का तप। ज्ञानेन्द्रियां का तात्पर्य ज्ञान के श्रोतों से कार्य लेना परन्तु अकार्य न करना। उदाहरण के लिए आंखों से देखने का कार्य करना परन्तु बुराई देखने का अभ्यास न करना। कर्मेन्द्रियों में तप का अर्थ भी यही है। अर्थात् कर्म तो करना परन्तु वेद असम्मत कार्य न करना। मानसिक विचारों के तप का तात्पर्य सदैव सकारात्मक विचार ही मन में लाना।
4- स्वाध्याय- स्वाध्याय का तात्पर्य है, धर्म ग्रंथों का अध्ययन करना तथा अपने आपको जानने का प्रयत्न करना, धार्मिक ग्रंथ हमें जीवन के वास्तविक लक्ष्यों को दर्शातें हैं तथा चिंतन की नयी दिशा निर्धारित करते हैं।
बौद्धिक स्तर पर आध्यात्मिक सत्यों को स्वीकार कर लेने पर व्यक्ति चिंतन तथा ध्यान की ओर अग्रसर होता है तथा अर्न्तदृष्टि का विकास होता है।
5- ईश्वर प्राणिधान- परम सत्ता के प्रति समर्पण ही ईश्वर प्राणिधान है। जो भी हम कार्य करते हैं ईश्वर के प्रति समर्पण भाव से कर्म के प्रति पूर्ण निष्ठा आती है। कर्म के प्रति समर्पण भाव दुष्कर कार्य है यह कार्य उसी व्यक्ति के लिए संभव है जिसकी ईश्वर के प्रति अपार श्रद्धा भाव हो। व्यक्ति का अंह समर्पण भाव में सबसे बड़ी बाधा है। जीवन में ईश्वर के प्रति समर्पण से ही वास्तविक आनन्द की प्राप्ति होती है। 

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